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देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर

Shyam Kishore Choubey जो संसद में छाती ठोंककर कहा करते थे, ‘एक अकेला सब पर भारी’ वे कुनबे जोड़ने में लग गए. -मल्लिकार्जुन खड़गे, कांग्रेस प्रमुख दो बड़े राजनीतिक दलों के अध्यक्षों का यह बयान 17 जुलाई को आया. पटना बैठक के 25 दिनों बाद इसी दिन बेंगलुरू के ताज वेस्ट एंड होटल में विपक्षी दलों का जुटान हुआ. इस बीच 11 नई पार्टियों के जुटने से इस गठबंधन में दलों की संख्या 26 हो गई. यह बैठक 18 जुलाई तक चली. दूसरी ओर दिल्ली के होटल अशोक में भाजपा द्वारा 18 जुलाई को ही एनडीए की बुलाई गई बैठक में 38 दल जुटे. दो फाड़ हुए एनसीपी, शिवसेना और अपना दल के एक-एक भाग दोनों गठबंधनों से जा मिले हैं. विपक्षी दलों ने अपने मोर्चे का नाम इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया) तय किया, जबकि भाजपा द्वारा आयोजित बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनडीए को पारिभाषित करते हुए नया नाम न्यू इंडिया डेवलप्ड एस्पिरेशन बताया. चुनावी गणितज्ञों ने जोड़-घटा कर कहा कि पिछले चुनाव में एनडीए को 25 करोड़ और ‘इंडिया’ को 23 करोड़ वोट मिले थे. लोकसभा में यूपीए सांसदों की संख्या 91 ‘इंडिया’ के गठन से बढ़कर 142 हो गई. इस संदर्भ में नड्डा और खड़गे के बयानों के निहितार्थ आप विचारें, मैं दोनों बैठकों के मूल तत्व की ओर बढ़ रहा हूं. सरकारी नौकरियों की वैकेंसी भले न हो, दोनों गठबंधन अपने-अपने पक्ष में छोटे दलों की खूब वैकेंसियां निकाले हुए हैं. राज्यों के चुनावों में छोटी पार्टियों की बड़ी भूमिका होती है, लेकिन 2024 के संसदीय चुनाव में छोटी पार्टियों की बड़ी भूमिका की पटकथा खुद बड़े दल लिखने को आकुल-व्याकुल हैं. प्रभुत्ववाली पार्टियों द्वारा ओबीसी और दलितों को आगे नहीं लाने के कारण छोटी पार्टियों का उदय हुआ. ‘24 का चुनाव ओबीसी और दलित के इर्द-गिर्द घूमने का समां बन रहा है. यह चुनाव बाईपोलर यानी एनडीए और ‘इंडिया’ के बीच कराने की रणनीति बनाई जा रही है. इस कारण भी छोटी पार्टियों की भूमिका बढ़ गई है. एक-एक सीट की मारामारी मची हुई है. दोनों ओर से एक ही परस्पेक्टिव बनाया जा रहा है कि वे पिछड़ों और दलितों के साथ हैं. ऐसा तभी संभव होगा, जब इन वर्गों से जुड़ी छोटी-छोटी पार्टियां इनके साथ आएं. 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने छोटी पार्टियों को नजरअंदाज कर दिया था. चुनाव बाद पता चला कि छोटी पार्टियों की भूमिका बहुत सीमित नहीं थी. बिहार में रामविलास पासवान की लोजपा को पिछली बार 08 फीसद वोट के साथ छह लोकसभा सीटें मिली थीं. पासवान के दिवंगत होने के बाद चाचा-भतीजे के बीच यह पार्टी विभक्त हो गई. अब भाजपा दोनों से समझौता कर उन्हें एकजुट कराना चाह रही है. उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी, जीतनराम मांझी की हम, मुकेश सहनी की वीआईपी और सीपीआई-एमएल को मिले वोटों को जोड़ दें तो बिहार में उन्होंने नौ प्रतिशत वोट पाया था. महाराष्ट्र में प्रकाश अम्बेडकर की पार्टी बहुजन समाज अघाड़ी ने हालांकि सात प्रतिशत वोट अर्जित किया था, लेकिन उसको कोई सीट नहीं मिल पाई थी. अलबत्ता उसके कारण कांग्रेस को पश्चिम महाराष्ट्र में कम से कम तीन लोकसभा सीटें गंवानी पड़ गई थी. बाद में प्रकाश ने कहा कि उन्होंने कांग्रेस को बताया था कि दस सीटों पर वह पांच बार से हार रही है. दोनों मिलकर इन सीटों को शेयर कर लें तो सभी दस सीटें निकाल सकते हैं. कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया, इसलिए दोनों को कुछ नहीं मिल सका. बहुजन समाज अघाड़ी औरंगाबाद में ओवैसी से मिलकर चुनाव लड़ी तो एआईएमआईएम का महाराष्ट्र में खाता खुल गया. अब प्रकाश अम्बेडकर ने उद्धव ठाकरे से दोस्ती कर ली है और दावा किया है कि दोनों मिलकर राज्य की आधी सीटें जीत लेंगे. उत्तरप्रदेश में झांकें तो ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को पिछले विधानसभा चुनाव में एक प्रतिशत वोट मिले, लेकिन उसने छह सीटें पा ली. अब राजभर ने सपा का साथ छोड़ फिर से भाजपा से हाथ मिला लिया है. राजभर का कहना था कि ओबीसी समूह के राजभरों की जाति तक कोई नहीं जानता था, इसलिए पार्टी बनाई. अब वे यूपी की 10-12 सीटें जिताने का दावा कर रहे हैं. ऐसे ही सोनेलाल की पार्टी अपना दल ने 1.2 प्रतिशत वोट हासिल कर पिछली बार दो लोकसभा सीटें पाई थी. यह पार्टी कुर्मी मतदाताओं पर अपना प्रभाव रखती है. अब उसके दो खंड हो गए हैं. झारखंड को देखें तो पिछले चुनाव में आजसू को 4.3 प्रतिशत वोट मिले थे. उसने भाजपा के गठबंधन में मिली अपनी एकमात्र गिरिडीह सीट निकाल ली थी. दूसरी ओर आजसू के सहयोग से भाजपा को 4-5 सीटों पर फायदा हुआ था. लोकसभा चुनाव के छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा-आजसू का गठबंधन टूट गया था, तो भाजपा को सत्ता की कुर्सी से उतरना पड़ा, जबकि 2014 के विधानसभा चुनाव में पांच सीटें पानेवाली आजसू भी दो सीटों पर सिमट गई. जिस प्रकार 2024 के चुनाव को लेकर दोनों ओर से छोटे-छोटे दलों का साथ गहने का उपक्रम किया जा रहा है, उससे प्रतीत हो रहा है कि जातीय और निहायत क्षेत्रीय आधार पर गठित ये छोटे दल महाकवि बिहारी की ‘देखन में छोटन लगें घाव करें गंभीर’पंक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं. डिस्क्लेमर :  ये लेखक के निजी विचार हैं.
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