Faisal Anurag
सरकार बहादुरों! अब तो एक्शन मोड में आइए. हर पांच साल बाद चुनाव आ जाएंगे, लेकिन चिता में जल चुके और क्रब में मौत की नींद से उठ कर लोग खड़े नहीं होंगे. इतनी सी बात तो आप को भी समझ में आती होगी. जिन लोगों ने आप पर भरोसा किया और अपने ही परिजनों, दोस्तों से आप के लिए संबंध तोड़ लिए, इस मौत के सैलाब में वे भी हैं. केवल आपके विरोधी ही तकलीफ नहीं झेल रहे. चुनाव आयोग तो एक संवैधानिक संस्था है, लेकिन वह चुनाव के कार्यक्रमों में किसी तरह के बदलाव के लिए तैयार नहीं है. तो क्या मान लिया जाये न कि भारत के आमलोगों की मौतों या तकलीफों ने भी किसी के जमीर को झकझोरा नहीं है.
कल तक दुनिया भर में डंके की चोट पर जो प्रधानमंत्री कोरोना की जंग जीतने का एलान कर रहे थे. हर छोटी बड़ी चीज का श्रेय ले रहे हैं, उन प्रधानमंत्री को भी स्वीकार करना चाहिए कि इस महामारी की गंभीर हालात के लिए वे भी जिम्मेदार हैं. राज्य की सरकारों की जिम्मेदारी भी है. लेकिन आपदा को अवसर बनाने वाले प्रधानमंत्री को लोगों के टूटते भरोसे और बेबसी के समय चुनावी मोड से बाज आना चाहिए.
बंगाल का चुनाव या कुंभ किसी भी इंसान की जिंदगी से बड़ा नहीं है. प्लेग या स्पेनिश फ्लू के समय तो भारत गुलाम था. करोड़ों लोगों की जान उस समय गयी थी. कोरोना वायरस का आतंक इस सदी में यदि उसी प्लेग या स्पेनिश फ्लू की याद दिला रहा है, तो यह किसी भी सरकार और सत्ता की साख पर बसे बड़ा सवाल है.
आलोचकों की बात तो छोड़िए, अब मोदी भक्त भी कहने लगे हैं कि हालात बेकाबू ही नहीं, अपराधिक लापरवाही के हो गये हैं. मोदी समर्थक पत्रकार हेमंत शर्मा का ट्वीट इस की गवाही दे रहा है. ये वही हेमंत शर्मा हैं जो भाजपा खेमे में बेहद अहम हैं. उन्होंने लिखा है : अब सांसें नहीं, भरोसा टूट रहा है. सिस्टम से, सरकार से, रिश्ते-नातों से. सिर्फ बीमारी से नहीं लड़ना पड़ रहा है. पहले जांच के लिए लड़िये. अस्पताल के लिए लड़िये. बेड के लिए लड़िये. ऑक्सीजन के लिए लड़िये. रेमडेसिविरि के लिए लड़िये. और आत्मीय जनों के एकांत से जूझते नियति का फैसला मंजूर कीजिए. यह उत्तर प्रदेश के हालात हैं. कमोवेश देश के हर राज्य में यही स्थिति है.
लखनऊ में तो आदित्यनाथ सरकार मौत नहीं रोक पा रही है, लेकिन उसे छुपाने के लिए श्मशान को नीले चादरों से घेर रही है. वह नहीं चाहती कि जलती चिता के धुएं मीडिया या लोग देख पायें. बिहार की हालत भी कमोवेश ऐसी ही है और झारखंड की भी. कोविड की दूसरी लहर ने तो अमेरिका,ब्राजील और ब्रिटेन में भी तबाही मचायी है, लेकिन ब्राजील का दृश्य ही भारत जैसा दिखता है. उन तमाम उपक्रमों की बात तो छोड़ ही दीजिए, जो पिछले साल भर में सरकारों को करना था. यह तो सब को ही पता था कि दूसरी लहर आएगी और पहले से वह ज्यादा खतरनाक होगी.
भारत के शासक जानते हैं कि लोगों की याददाश्त बेहद कमजोर है. वह अपने परिजनों की मौत और बेशुमार तकलीफों को अगले चुनाव आते-आते भूल जाएगा और हिंदू, मुस्लिम, पाकिस्तान, घुसपैठ जैसे मुद्दे तो हैं ही जो प्रियजनों की मौत से भी कहीं ज्यादा कारगर चुनावी हथियार हैं. यह इसलिए भी है कि न तो बेरोजगारी के सवाल को लेकर लोग सजग हैं और न ही आर्थिक तबाही को लेकर वे सजग हुए. अस्पताल और शिक्षा के सवाल पर भी भला कोई चुनावी हार जीत हुई है क्या. और मौत की सदौगरी में वह ताकत है जो अंधभक्ति का तूफान पैदा करती है.
लेकिन इतिहास का भी एक फैसला होता है हुक्मरान साहबों! और यह फैसला बेहद क्रूरता से मूल्यांकन करता है. यह जानने के बावजूद यदि शासन अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता तो उन जजों को याद कर लीजिए जो चार साल पहले प्रेस कांफ्रेंस कर लोगों को आगे आने की अपील कर रहे थे. हालांकि उनमें एक जज की पूरी भूमिका बाद में बदल गयी. यह एक ऐसी इमरजेंसी है, जिसमें सामान्य गतिविधियों के बनिबस्त कारगर और तत्वरित पहल की जरूरत है. यदि सरकार ठान ले तो अगले तीन दिनों में न तो बेड की कमी रह सकती है और न ही ऑक्सीजन की. इसके लिए पहले खुद राजनीतिक नेतृत्व को तय करना होगा कि वे उन लोगों से, जिन्होंने उन्हें शासक बनाया है या लोकतंत्र में जो उनके खिलाफ भी हैं, उनकी जान की रक्षा के लिए युद्धस्तर पर इंतजाम करेंगे ही.
यह महामारी किसी ऐसे दौर में तबाही नहीं मचा रही, जब विज्ञान अभी आखें ही खोल रहा था. आज तो ढेर सारा ढांचागत इंतजाम है. जरूरत प्राथमिकता की है. चुनाव चाहिए या एक भी इंसान की जिंदगी?