Manish Singh
नरेंद्र मोदी की सात सालों की ड्रीम फ्लाइट, को न्यूनतम शब्दों में यूं ही बयान किया जा सकता है. सफेद घोड़े पर सवार, सपनों का राजकुंवर किसी दुःस्वप्न के सफेद भूत में बदल चुका है.
सात साल का राज, बहुत होता है. एक शख्स की छवि इतिहास में गढ़ने को. ऐसे तो जनमानस में आज भी उनका समर्थन है. कार्यकाल के तीन बरस बाकी हैं. पार्टी उन पर निर्भर है. सो कुर्सी जाने का भय नहीं.
मगर भारत का मुस्तकबिल बदलने का अवसर उनके हाथ से निकल चुका. इसलिए कि मोदी अपनी नैतिक सत्ता खो चुके हैं. नेता की ताकत होती है, जनता का भरोसा, उसकी नीयत, सक्षमता और दृष्टि. नीयत पर तो जनमानस का बड़ा हिस्सा, शुरू से शंकित रहा. सक्षमता और दृष्टि पर भरोसा नोटबंदी की बेशर्मी, जीएसटी के प्रहसन और कोविड जनसंहार के बाद तार-तार हो चुका है.
घोर पक्षपात, अपने और पराए का भाव, मोदी सरकार का स्थायी भाव रहा. व्यापार जगत, मीडिया, सोसायटी, संस्थान, अफसर. हर जगह वफादार “यस मैन” बिठाने के जुनून ने इस सरकार को इको चेम्बर में तब्दील कर दिया. पूरा तंत्र एक प्रोपगेंडा मशीन में तब्दील हो गया या फिर एक सस्ते ट्रोल में.
नेता और उसके गिनती के वफादार छोड़, हर कोई इस विशाल ट्रोलिंग मशीन के निशाने पर है. ऐसी अविश्वसनीय, अस्थिर, चित्त पक्षपाती व्यवस्था में कोई निवेश नहीं करता.
ऐसी व्यवस्था के वादों, कानूनों, शब्दों की कीमत शून्य हो जाती है. उसके हर कदम पर संदेह होता है. यहां न्याय की उम्मीद नहीं होती. जो आज फेवर्ड है, वह भी संभल संभल कर कदम रखता है. पहले खटके में भाग निकलता है.
तो वहां जॉब नहीं होते, उद्यमशीलता नहीं होती. जहां प्रतिस्पर्धी की जेब में रेजीम होने का अंदेशा हो, देशी और विदेशी संस्थान हाथ खींच लेते हैं. इंतजार करते हैं, इस व्यवस्था के जाने का.
तो जब तक "आएगा तो मोदी ही" की संभावना रहेगी, हिंदुस्तान का एक बड़ा हिस्सा, हिंदुस्तान पर रिस्क नहीं लेगा. बौद्धिक और उद्यमशील वर्ग, निराशा भरे इंतजार में घड़ियां गिन रहा है. यह इंतजार चाहे जितना लंबा हो, भारत की मेधा और भारत की पूंजी, इस रेजीम में भारत अपनी पांखें नहीं खोलेगा.
अर्थव्यवस्था ही अंततः इतिहास में स्थान दिलाती है. मजबूत अर्थव्यवस्था देश में जिंदगियों को बेहतर करने का रास्ता देती है. इसी से देश को जियोपोलिटिक्स में वजन मिलता है. इसी से राजनेता स्टेट्समैन में रूपांतरित होता है.
मोदी सिर्फ चुनाव जीतने को सफलता मानते रहे. विदेशों में किराए के निजी कार्यक्रमों की फुटेज दिखाकर, तमाम दौरों की तस्वीरों से खुद को विश्वनेता का भ्रम जरूर पाला. लेकिन यह बुलबुला भी फूट चुका है. वैश्विक पटल पर हम या तो अकेले हैं, या इस्तेमाल हो रहे हैं.
मौजूदा दौर में अंतराष्ट्रीय मीडिया ने जो लिखा, कहा, वह उनके खाते की स्थायी कीर्ति है. भारत के किसी प्रधानमंत्री की इतनी कटु आलोचना कभी नहीं हुई.
आने वाले वक्त में मोदी और युवा नहीं होंगे. गलतियों से सीखने का हुनर विकसित करने की उम्र नहीं रही. वे वही करेंगे जो वे करके सारा जीवन सफल हुए. प्रोपगेंडा, प्रचार, शो मैनशिप.
और ज्यादा डेस्परेट, ज्यादा शोरगुल, ज्यादा स्तरहीन.
कोर समर्थक की सहानुभूति, चाणक्यी चक्रम, दुर्बल विपक्ष जैसे फैक्टर कुछ और चुनाव जीतने में उनकी मदद अवश्य कर दें. मगर इससे नई आशा का संचार नही होगा. कोई भरोसा पैदा नहीं होगा.
सरकार, पार्टी, समर्थक और फंतासियों के चार कंधों पर सवार इस रेजीम का जनाजा, हमारे गली कूचों में भटकता रहेगा.
दिल पर हाथ रखकर खुद से पूछिए किसी को दबाने, डराने की उम्मीदें जरूर बचाई रखी है आपने. पर, क्या खुद की बेहतरी की आपकी आशाएं जिंदा हैं?
कुटिल मुस्कान के साथ पूछे गए - "विकल्प क्या है" का जवाब न दे पाना, आपको राजनैतिक नहीं, अब एक निजी बेबसी का अहसास देता है. आप भीतर ही भीतर डरे हुए हैं, क्योंकि आप जानते हैं, हालात और बिगड़ेंगे. इसलिए मुखर या चुप, बेबस या प्रार्थनारत.
भारत, अब मोदी युग के अवसान की बाट जोह रहा है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
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