Faisal Anurag
तीन खबरें देश के मिजाज को बता रही हैं.
पहली खबर यह कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन प्रधानमंत्री से बात करने के बाद कहा कि प्रधानमंत्री ने काम की बात नहीं की. वे मन की ही बात करते रहे.
दूसरी खबर जिसकी पर्याप्त चर्चा नहीं हो पायी वह कर्नाटक से भाजपा के लोकसभा सदस्य तेजस्वी सूर्या की है. जिनकी चिंता यह है कि हिंदू और मुसलमान की बहस को इस भयावह महामारी में ठंडा नहीं होने दें.
तीसरी खबर है कि सरकार के कुछ प्रतिनिधि और मीडिया का एक सेक्शन यह धारणा बनाने की कोशिश कर रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर अब थमने लगी है.
तीनों खबरों का संबंध यह है कि जब लोग मर रहे हैं और परिवार रो रहे हैं, हमारी सरकारें और उसके प्रतिनिधि किस तरह हालात को नियंत्रित करने के लिए प्रयासरत हैं?
हेमंत सोरेन पर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने हमला करना शुरू कर दिया है. भाजपा नेता उन पर मुख्यमंत्री की गरिमा गिराने का आरोप लगा रहे हैं. लेकिन सवाल इससे कहीं ज्यादा गंभीर है. आखिर एक मुख्यमंत्री को इस आशय का ट्वीट करने की मजबूरी क्यों महसूस हुई. प्रधानमंत्री और झारखंड के मुख्यमंत्री तो इसके पहले भी कई बार बात कर चुके हैं.
याद कीजिए पिछली बार भी प्रधानमंत्री के वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के बाद हेमंत सोरेन ने कहा था कि उन्हें झारखंड का पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया. हालांकि प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री के बीच क्या बातचीत हुई यह अभी सार्वजनिक नहीं है. लेकिन हेमंत सोरेन का ट्वीट बता रहा है कि शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड की परेशानी सुना नहीं है. वैसे भी कई बार यह बात सामने आ चुकी है कि नरेंद्र मोदी तो अपने कैबिनेट सदस्य तक की बात नहीं सुनते हैं.
नरेंद्र मोदी पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने पहले भी इस तरह की बाते कहीं हैं. गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की यह शिकायत सात सालों से चली आ रही हैं. वह यह कि किसी भी अहम मसले पर न तो उनसे सुझाव लिया जाता है और न ही उनकी बात को ही सुना जाता है. गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि वे राजनीति करते हैं. लेकिन उनके तथ्यों को तो नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पिछले साल देशव्यापी लॉकडाउन से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री या राज्यपाल को इस बारे में जानकारी नहीं दी थी.
बंगाल चुनाव के समय जब महाराष्ट्र कोरोना संक्रमण के सबसे बुरे दौर का सामना कर रहा था, तो वहां के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के फोन का जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह दिया था कि इस समय प्रधानमंत्री बंगाल के चुनाव में व्यस्त हैं. वे बाद में बात कर लेंगे. यह तो एक छोटा उदाहरण मात्र है. पी. विजयन जो केरल के मुख्यमंत्री हैं, इसी तरह की बातें कम से कम चार बार कर चुके हैं.
तेजस्वी सूर्या, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खास पसंद हैं. वे बैंगलूर से लोकसभा सदस्य हैं. कोरोना के इस संकट के समय उनकी चिंता यह है कि कोविड सेंटर में मुसलमान किस योग्यता के आधार पर नियुक्त किए गए हैं. उन्होंने एक कोविड नियंत्रण सेंटर पर पहुंच कर ऐसे 16 मुसलमानों का नाम पढ़ा और यह बताने का प्रयास किया कि 2012 कर्मियों में ये 16 देश के दुश्मन की तरह हैं. और फिर उनसे उनकी योग्यता पूछा. यही नहीं उन्होंने यह भी आरोप लगा दिया दिया कि इन कर्मचारियों का संबंध मदरसा से रहा है.
पहली लहर के समय तो तबलीगी जमात मिल गया था. उसके बहाने सरकार ने अपनी अक्षमता को भरपूर तरीके से छुपा लिया था. लेकिन यह लहर इतना भयावह और डराने वाला है. बावजूद इसके भाजपा सांसद की चिंता सांप्रदायिक है. बाद में उन्होंने अपनी गलती स्वीकार कर माफी तो मांग लिया है. लेकिन इतना तो बता दिया है कि भाजपा के नेता सरकार की नाकमयाबी और निष्क्रियता को छुपाने के लिए एक बार फिर सांप्रदायिक प्रचार के अपने नजरिये पर ही जमे हुए हैं.
चुनौतियों का सामना करने के बजाय यदि जोर इस बात पर हो कि दूसरी लहर थमने लगी है. तो इसे क्या समझा जाये. जबकि स्थिति यह है कि 30 अप्रैल को पहली बार कोरोना के 4 लाख से अधिक मामले आए. लेकिन उसके अगले पांच दिनों तक यह संख्या 3 लाख 60 हजार और 3 लाख 82 हजार के बीच रही. हालांकि 7 अप्रैल को एक बार फिर से संक्रमितों का आंकड़ा 4 लाख से अधिक है.
इसके बाद भी यह प्रचार किया जा रहा है कि दूसरी लहर का पीक पूरा हो गया है और पॉजिटिवी रेट भी घटने लगी है. लेकिन पिछले दो दिनों से पॉजिटिव संख्या चार लाख से ज्यादा आ रही है. पिछले 24 घंटों में तो मरने वालों का सरकारी आंकड़ा 3900 से ज्यादा है. बावजूद आंकडों की चर्चा को छुपाने के प्रयास को क्या कहा जा सकता है. वैज्ञानिक कह चुके हैं कि केंद्र उन्हें वास्तविक आंकड़े दे, ताकि वे भविष्य के लिए शोध कर सकें. लेकिन बहस को पॉजिटिवीटी रेट में फंसा देने के मकसद को आसानी से समझा जा सकता है.