Satya Sharma Kirti
मुझे आज भी याद आते हैं, बचपन के वो दिन जब घर के आँगन में बैठ कर मेरी दादी चावल साफ किया करती थी और उनके आस – पास ही गौरैया का झुंड चावल खुद्दी खाते रहते थे. कई बार तो सूप में बैठ कर खाने लगती थी. आंगन में ही पानी का बर्तन रखा रहता था जिसमें वो नहाती भी थी ,और पीती भी थी. कोई डर नहीं मानो दादी और इन नन्ही- नन्ही गौरैया में गहरी दोस्ती हो. पर अब ना दादी रही न ही वो गौरैया का झुंड.
हाँ, कभी- कभी आती है गौरेया आज भी ..ढूंढती है वो विश्वास आज भी …वो आँगन, वो तुलसी का चौरा …वो उन्मुक्त हँसी, संयुक्त परिवार की ख़ुशी..पर ना अब वो आँगन है, न वो विश्वास है. हम बस तरक्की करते गए और छोड़ते गए अपने संस्कार , अपनी सभ्यता , अपनी सांस्कृतिक पहचान और प्यारी सी गौरैया का साथ.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.