Search

किसानों के इरादे मजबूत, राष्ट्रव्यापी विरोध से एक बार फिर चर्चा में

Faisal Anurag

किसानों ने केंद्र के खिलाफ आंदोलन तेज करने का फैसला किया है. 26 मई को देश व्यापी विरोध का आह्वान किया है. इस विरोध को विपक्ष की 12 पार्टियों ने भी समर्थन दिया है. इन दलों की ओर से कहा गया है कि 26 मई को साहसिक और शांतिपूर्ण किसान संघर्ष के छह महीने पूरे होने पर संयुक्त किसान मोर्चा के देशव्यापी विरोध दिवस का समर्थन करते हैं.

कोरोना की सुनामी के बीच भी किसान केंद्र के तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग के खिलाफ अपने मोर्चे पर डटे रहे. उन पर आईटी सेल,मीडिया के सरकार समर्थक समूह और केंद्र के नेता कोरोना सुपरस्प्रेडर का आरोप साबित नहीं कर पाए. किसान आंदोलन ने यह भी साबित किया कि मीडिया से ब्लैकआउट किए जाने के बावजूद उनके आंदोलन के तेवर में कोई कमी नहीं आयी है. उनके इरादे पहले से भी ज्यादा मजबूत है. किसान नेता राकेश टिकैत ने तो ऐलान किया है कि उनके आंदोलन के प्रभाव को कम कर देखना राजनीतिक भूल है. 2024 तक उनका आंदोलन जारी रहेगा. 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव पर किसानों के आंदोलन के असर को लेकर भारतीय जनता पार्टी चिंतित है.

बंगाल,केरल, तमिलनाडु में भी जिस तरह किसान नेताओं ने भाजपा के खिलाफ प्रचार किया. उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. कोविड से होने वाली मौतों, वैक्सीन की कमी और कोरोना प्रबंधन में केंद्र की लापरवाही के बीच मोदी ब्रांड और इमेज को लेकर भाजपा, आरएसएस  की रविवार को हुई बैठक में भी चर्चा हुई. इससे जाहिर होता है कि आरएसएस के पॉजिटिविटी अनलिमिटेड कार्यक्रम के बावजूद केंद्र को लेकर लोगों में जो चिंता है उसका निराकरण नहीं हो पाया है. तीसरी लहर की आशंका के बीच नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में भाजपा आरएसएस का मंथन भी बताता है कि आने वाले दिनों में उसकी चुनौतियां क्या है.

किसानों का आंदोलन मीडिया के हाशिए पर धकेल देने के बावजूद बेअसर नहीं हुआ है.  तीन कृषि कानूनों को किसानों ने जो गंभीर सवाल उठाए हैं उससे देश भर के किसान सहमत होते नजर आये हैं. किसान आंदोलन हरियाणा, पंजाब,राजस्थान या पूर्वी यूपी तक ही सीमित नहीं है. दिल्ली में इन्हीं इलाकों की भागीदारी उसमें दिखी है लेकिन उसका असर तो दक्षिण और उत्तर पश्चिम भारत के राज्यों पर भी है. भाजपा से भी ज्यादा आरएसएस की चिंता का यह सबसे बड़ा कारण है. किसानों को पुराने दामों पर ही खाद  दिलाने का प्रचार के बावजूद किसानों ने यह स्पष्ट किया है कि उसके किसी भी प्रोपेगेंडा से उनका आंदोलन न तो थमेगा और  न ही उसके राजनीतिक असर को रोका जा सकता है.

26 मई को किसान आंदोलन के छह महीने पूरे हो रहे हैं. किसानों ने 26 मई को राष्ट्रव्यापी विरोध के लिए चुना है. एक आंदोलन पिछले छह महीनों से जारी है और केंद्र सरकार ने 21 दौर की  बतचीत के बाद किसानों से संवाद को बंद कर दिया. प्रधानमंत्री ने किसान आंदोलन को लेकर कहा था कि वह सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी पर हैं. यह फासला खत्म होने के बाद लगातार बढ़ता ही गया है. आखिर एक फोन कॉल की दूरी एक जुमला ही क्यों साबित हुई है. देश के अन्नदाताओं को इस तरह कोरोना सुनामी की त्रासदी में अकेल छोड़ देना राजनीतिक संवेदनहीनता की ही मिसाल है. यदि बंगाल और अन्य राज्यों में चुनाव प्रचार हो सकता था तो किसानों के सवालों को भी हल करने की दिशा में कदम उठाया जा सकता है.

 यदि कोरोना की भयावहता के अंधेरे माहौल में यूपी चुनाव और इमेज बचाने के लिए आरएसएस भाजपा के बड़े नेता एकत्र हो सकते हैं. तो फिर किसानों की इस तरह उपेक्षा क्यों की जा रही है.कृषि और किसान को कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले करने के वैश्विक अनुभवों से सीखा जा सकता है.

[wpse_comments_template]

Comments

Leave a Comment

Follow us on WhatsApp