Shyam Kishore Choubey
चुनावी जद्दोजहद के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार तीसरी मर्तबा काम करने लगी है, लेकिन इस बार मोदी का कस-बल थोड़ा ढीला पड़ा है. वे टीडीपी और जदयू जैसी बैसाखियों के भरोसे दिख रहे हैं. ये दोनों दल भी फिलहाल उनके ही भरोसे हैं. इसलिए निकट भविष्य में कोई खास सियासी परेशानी पेश आने की सूरत नहीं बनती. आरएसएस की ओर से कुछ टीका-टिप्पियां जरूर आई हैं, लेकिन वे खास मायने नहीं रखतीं, जैसा कि चुनाव के दौरान भाजपा प्रमुख जेपी नड्डा ने कह दिया था, ‘भाजपा इतनी बड़ी हो गई है कि उसको अब किसी सहारे की जरूरत नहीं है’. मोदी अपनी कार्यशैली के अनुरूप अगले चुनाव की तैयारियों में जुट गए हैं. इसी साल झारखंड समेत चार राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव के लिए दो-दो प्रभारी नियुक्त करने में भाजपा ने कोई देर नहीं की.
झारखंड की कमान केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को सौंप दी गई है. इस राज्य में साल के अंतिम महीनों में चुनाव का समय है. बीच के चार-साढ़े चार महीनों में कैसे-कैसे गुल खिलेंगे, कहा नहीं जा सकता. झारखंड में सत्तासीन इंडिया ब्लॉक की बागडोर झामुमो के हाथों में है. तदनुरूप मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन ने लोकलुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा दी है. चंपाई को हल्के में लेने वालों को थोड़ी निराशा हो रही होगी. अभी यह देखना अधिक मौजूं है कि भाजपा और कांग्रेस के घर में क्या-क्या पक रहा है. लोकसभा चुनाव में भाजपा अपेक्षाओं से कम नहीं पायी है. इसके बावजूद उसमें एक्शन-रिएक्शन अधिक है. लगातार चौथी बार जीती हुई सीट गोड्डा और बोरो प्लेयर उतारने के बावजूद हारी हुई सीट दुमका को लेकर तकरार मची हुई है, जबकि हारी हुई खूंटी सीट पर भी आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है.
गोड्डा में मार्जिन सवाल बना. इसी विषय पर देवघर के विधायक नारायण दास और निर्वाचित सांसद निशिकांत दुबे के समर्थकों के बीच धक्का-मुक्की तक की नौबत आ गई, जबकि दुबे महोदय की ओर से सारठ के विधायक रणधीर सिंह को भी निशाने पर लिया गया. ऐन चुनावी दौर में झामुमो त्याग भाजपा प्रत्याशी बनीं सीता सोरेन का रोना रहा कि रणधीर ने उनको वोट नहीं दिलवाया. सवाल तो प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी पर भी उठा कि उनके रहते भाजपा पांचों जनजातीय सीटें हार गई. कांग्रेस के घर में भी ऐसी ही खदबदाहट मची. खासकर रांची, हजारीबाग और गोड्डा में मिली हार पर तकरार का ठिकाना नहीं. इस चुनाव में भाजपा के दो और झामुमो के दो विधायक सांसद चुने गये. इन दोनों दलों को इन विधायकों का विकल्प खोजना है. झामुमो से निष्कासित सीता सोरेन हों कि लोबिन हेम्ब्रम, दोनों का पार्टी विकल्प तलाशेगी या उनकी वापसी कराएगी, कहा नहीं जा सकता.
अलबत्ता, बागी बनकर चुनाव में खड़े विधायक चमरा लिंडा का निलंबन वापस लिए जाने की उम्मीद बेवजह नहीं, क्योंकि झामुमोवाले कहने लगे हैं कि उनके कारण ही गठबंधन प्रत्याशी सुखदेव भगत की जीत पक्की हो सकी. सवाल यह भी है कि चुनावी दौर में भाजपा त्याग कांग्रेस में गये विधायक जेपी पटेल इस बार टिकेंगे या अपनी वापसी कराएंगे. बागी बनकर खुलेआम चुनावी ताल ठोंकनेवाले तीनों माननीयों पर स्पीकर का मौन कम बड़ा सवाल नहीं. सवाल, कुड़मी वोटों पर डाका डालने को तैयार जेबीकेएसएस पर भी है, जिसने लोकसभा चुनाव में खासा वोट अर्जित किया. वह स्थापित दलों को विधानसभा चुनाव में चुनौती देगा, गठजोड़ करेगा या किसी में विलीन होगा! यूं जेबीकेएसएस प्रमुख ने 55 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया है.
पिछली बार जेवीएम सभी 81 और आजसू 70-72 सीटों पर लड़ी थी. परिणाम कतई उत्साहवर्द्धक न रहा. उमड़-घुमड़ रहे ऐसे सवालों का जवाब इंतजार कराएगा. सभी दल वोटों की तुला पर तौलकर ही कोई निर्णय लेंगे. अब नीति-सिद्धांत और विचारधारा से अधिक अहम होता है सीटें जीतना. जीतने के लिए कुछ भी किया जा सकता है, विभीषण हो कि दुःशासन, किसी को भी गले लगाने में कोई परहेज नहीं होता.
इस बीच चंपाई सोरेन ने दो सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली, 25 साल से अधिक की महिलाओं को भी पेंशन, शिक्षक, सिपाही आदि की बहाली, जातीय जनगणना जैसे तीर चलाकर एक तरह से चुनावी शंखनाद कर दिया है. सरना धर्म कोड, एससी-एसटी और ओबीसी आरक्षण में बढ़ोतरी, कुड़मियों को एसटी सूची में शामिल करना जैसे सवाल स्थायी भाव बन चुके हैं. केंद्र और राज्य सरकार के बीच ये गेंद की तरह उछाले जाते हैं या विधानसभा चुनाव के पहले इनका कोई समाधान निकलता है, यह भी सवाल ही है. पांच साल से सूबाई शासन से दूर रही भाजपा इस मौके को गोल दागनेवाला बनाती है या कुछ और ढंग से खेलती है, यह भी एक सवाल है. असल गोलपोस्ट राज्य की 28 जनजातीय सीटें हैं. ये ही सत्ता तक ले जाती हैं. फिलहाल भाजपा के पास इनमें से दो ही सीटें हैं. लोकसभा चुनाव गंवा चुके अर्जुन मुंडा का कैसा उपयोग होता है, यह अलग सवाल है.
सवाल कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना जाना भी है, क्योंकि इस पद पर आसीन आलमगीर आलम ईडी के फंदे में हैं और उनकी कद-काठी का कोई है नहीं. आगामी चुनाव तक हेमंत सोरेन जेल में ही रहेंगे या उनको जमानत मिलती है, यह एक सियासी सवाल है क्योंकि वे बाहर नहीं निकले तो दोनों पक्षों की रणनीतियां अलग-अलग होंगी. कोई भुनाएगा, कोई घेरेगा. फिलहाल ईडी का घेरा बढ़ता जा रहा है. 2019 के फलाफल से सबक लें तो लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में कोई हेल-मेल नजर नहीं आता.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.