Faisal Anurag
नसीरूद्दीन शाह एक बार फिर अतिवादियों के निशाने पर हैं. नागरिकता कानून को विरोध करते हुए उनके बयान के बहुसंख्यक अतिवादियों ने उनको ट्रोल ही नहीं किया, चेतावनी तक दिया था. इस बार तालिबान और उसके प्रभाव के खतरों को लेकर चेतावनी देते हुए भारतीय इस्लाम को अन्य देशों से बहुत अलग बताया है और वे मुस्लिम समूह के एक तबके के निशाने पर आ गए हैं. ऐसा नहीं है कि केवल शाह ही तालिबान के खतरों को लेकर चिंतित हैं. इस समय अरब और एशिया के अनेक मुस्लिम देशों में भी इसे लेकर खलबली है. नसीर एक ऐसे अभिनेता हैं, जिनकी जन प्रतिबद्धता और विचारों के खुलेपन को लेकर अक्सर चर्चा होती रही है. अतिवादी और कट्टरपंथी उभार के खिलाफ शाह की मुखरता सर्वविदित है. शाह ने एक गंभीर वैचारिक सवाल उठाया है कि क्या भारतीय इस्लाम सुधार और आधुनिकता को लेकर खुला नजरिया अपनाने को तैयार हैं. हालांकि यह सवाल पहली बार नहीं उठाया गया है. दुनिया के अनेक मुसलमानों ने जदीदीयत यानी आधुनिकता को लेकर अपने विचार को प्रकट करने से गुरेज नहीं किया है.
यह एक संजीदा और संवेदनशील सवाल है. इसे इस्लामफोबिया के शिकार लोग समझ नहीं सकते हैं. भारत में भी इस्लामफोबिया सार्वजनिक जीवन के एक खास समूह में प्रभावी है. नसीर की चिंता सिर्फ यह नहीं है कि तालिबान के उभार से अतिवादियों को नया जीवन मिलेगा बल्कि भारत में उसके असर को भी वे खतरनाक मानते हैं. एक वीडियो संदेश देते हुए नसीर ने तालिबान की कट्टरता का उल्लेख करने का साहस और हौसला दिखाया है. इस कट्टरता के कई बार वहशी हो जाने की भी उन्होंने की है. नसीर का बयान उस समय आया है, जब भारत दोहा में तालिबान के नेता से बातचीत शुरू कर चुका है. नसीर ने अफगानिस्तान में तालिबान का दोबारा हुकूमत में आने से अधिक ख़तरनाक है, हिन्दुस्तानी मुसलमानों के कुछ तबके में जश्न मनाने की प्रवृति को ठहराया है.
उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तानी मुसलमान को सोचना होगा कि वे आधुनिकता के विचार और मूल्यों को लेकर क्या सोचते हैं. पिछली सदियों के वहशी मूल्यों को मान्यता नहीं दी जा सकती है. जैसा कि मिर्जा गालिब कह गये हैं- मेरा रिश्ता अल्लाह मियां से बेहद बेतकल्लुफ है, मुझे सियासी मज़हब की कोई ज़रूरत नहीं है. हिन्दुस्तानी इस्लाम हमेशा दुनिया भर के इस्लाम से मुख़्तलिफ़ रहा है.
नसीर की बातों से कुछ अतिवाद समर्थकों ने हंगामा खड़ा कर रखा है. सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि नसीर इन बातों के माध्यम से अपनी राष्ट्रीयता का बेवजह प्रमाण दे रहे हैं. नसीर बहुसंख्यक अतिवादियों के मुसलमानों के राष्ट्रवादी हाने के सबूतों की मांग से होने वाली परेशानी पर चिंता पहले प्रकट कर चुके हैं.
जदीदीयत यानी आधुनिकता की बहस नयी नहीं है. मिश्र में गमाल अब्दुल नासिर के जमाने में भी यह बहस पूरे अरब में हुई थी और तुर्की को आधुनिक बनाने वाले अतातुर्क कमाल पाशा को भी इस संदर्भ में विस्मृत नहीं किया जा सकता है. 1989 तक अफगानिस्तान में भी आुधनिकता बनाम कट्टरता की बहस हुई. सूफी धारा में तो जदीददीयत की बहस के कई आयाम हैं. दरअसल अरब जगत के ज्यादातर देशों में सामंतशाही काबिज हैं, जो खुद तो आधुनिकता को नकारती नहीं है, लेकिन अपने देशों में इसके लिए माहौल नहीं बनाती है. अनेक देशों में यह धारणा प्रबल है कि दुनियाभर के विभिन्न तरह के धार्मिक अतिवादियों को ताकत मिली है.
अरब जगत की चिंताओं में भी देखा जा रहा है कि वहां तालिबान को लेकर व्यापक खलबली है. हालांकि तुर्की और कतर इस समय तालिबान के मददगार के रूप में दिखने की कोशिश कर रहा है. पाकिस्तान अफगानिस्तान के बहाने अपने हितों के नाम पर ऐसे जाल में उलझता हुआ दिख रहा है, जिसमें पाकिस्तानी तालिबान के उभार की चिंताएं हैं. इरान इस समय दो तरह के संकट में है. खबरों के अनुसार, उसे तालिबान के उभार से अतिवाद के मजबूत होने के खतरे की चिंता है. नसीर के बयान भी कुछ यही संकेत देते हैं. वैसे तो तालिबान विश्व समुदाय को भरोसा दे रहा है कि वह अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी भी देश के खिलाफ नहीं होने देगा. लेकिन आइएसआइएस का खतरा, तो तालिबान को भी है. आइएस खुरासान गुट कह चुका है कि तालिबान अमेरिकापंथी है और वह अफगानिस्तान में अपनी गतिविधियां तेज करेगा.
अरब देश अमेरिका की वापसी से तो मन ही मन खुश दिख रहे हैं. लेकिन तालिबान को लेकर वे आशंकित हैं. अरब देशों के जानकारों के अनुसार भविष्य को देखते हुए अमेरिका के अरब देशों के सहयोगियों में भी डर व्याप्त है. तालिबान के एक नेता ने तो बीबीसी से बात करते हुए जिस तरह दुनिया भर के मुसलमानों की पैरोकारी की बात की है, उसका असर अरब के देशों पर भी है. नसीरूद्दीन शाह की चिंताएं एक सजग मुसलमान की है, जो लोकतंत्र,आधुनिकता और आधुनिक विज्ञान की दुनिया का विश्व नागरिक है.
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