Brijendra Dubey
मनुष्य मुख्य रूप से प्रदूषित हवा, पानी और खान-पान के रास्ते अवांछित रसायनों का डंपिंग ग्राउंड बनता जा रहा है. एक तरह से देखें तो हम अनेक प्रकार के हानिकारक रसायन के तालाब में अनजाने में तैर रहे हैं, जिनके स्रोत हमारी दिनचर्या में प्रयोग होनेवाले रसायन ही हैं. इनमें मुख्य रूप से प्लास्टिक, पैकेजिंग, सौन्दर्य प्रसाधन, दवाइयां और रोजमर्रा उपयोग में लाये जाने वाले समान से निकलने वाले रसायन हैं. इसके अलावा खान-पान का रासायनिक प्रदूषण, पानी और हवा का प्रदूषण भी बहुत बड़ा स्रोत हैं, जिसका सामना हम अनवरत कर रहे हैं, चाहे हम कहीं भी क्यों न हों. इसकी वजह से शरीर का मेटाबोलिज्म प्रभावित होता है, जो आम होते जा रहे कैंसर, मोटापा, ह्रदय संबन्धित बीमारियों के साथ-साथ गर्भवती महिला को मुख्य रूप से प्रभावित करता है, जिसके कारण गर्भ का सामान्य और मुख्य रूप से तंत्रिका तंत्र का विकास बाधित होता है.
आज हम अपनी दिनचर्या को गौर से देखे तो सुबह ब्रश करने से जो रसायन और प्लास्टिक से जो सामना होता है, वह रात सोने तक लगातार जारी रहता है, जिसमें व्यक्तिगत इस्तेमाल की चीज़े जैसे सौन्दर्य प्रसाधन, दवाइयां, प्लास्टिक में पैक दूध, फल-सब्जियां, डिब्बाबंद खाना, मेलानिन के बर्तन, एक बार या बार-बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के ग्लास और चम्मच, कपड़े जिसका अधिकांश अब कृत्रिम रेशे से बना होता है, फर्नीचर, कालीन, घर का पेंट, चमड़े का चप्पल जूते से लेकर प्रदूषित जल, घर के अन्दर और बाहर की प्रदूषित हवा शामिल है और ये सब एक किस्म से अनेक जहरीले रसायनों का कॉकटेल बनाती है, जिसके संपर्क में हम लगातार रहते हैं या यह कहें कि जाने-अनजाने में आदी हो चुके हैं.
हमारे आम दैनिक दिनचर्या में रसायनों का दखल इतना बढ़ चुका है कि अब तक अन्तःस्रावी तंत्र को ही प्रभावित करने वाले करीब एक हज़ार से ज्यादा रसायनों के बारे में पता चल चुका है. ये रसायन मानव शरीर में मुख्य तीन तरीकों से प्रवेश करते हैं. हवा में मौजूद प्रदूषण के रूप में फेफड़े और खून तक पहुंचते हैं, वही खान-पान के प्रदूषण के रूप में पाचन तंत्र, यकृत और किडनी तक को प्रभावित करते हैं वहीं कुछ रसायन त्वचा और आंखों के रास्ते शरीर में घर कर जाते हैं. इन रसायनों का सबसे बड़ा हिस्सा खाने से आता है दूसरा बड़ा हिस्सा खाने के संपर्क में आने वाली चीजों से आता है, खासकर पैकेट्स में बंद खाद्य सामग्री. सबसे आम उदाहरण प्लास्टिक थैलियों में बंद दूध या फिर इपोक्सी रेजिन की चिकनी परत वाले चाय कॉफ़ी कप है. मौजूदा दौर में बेतहाशा इस्तेमाल होने वाली नैनोमटेरियल भी हमारे शरीर को रसायनशाला बनाने में योगदान दे रहे हैं, जैसे पानी को साफ और कीटाणु से मुक्त करने के लिए उपयोग आने वाले मेम्ब्रेन और नैनोमटेरियल युक्त मैट्रिक्स.
पिछले कुछ सालों में घरेलू इस्तेमाल की चीजों में बेतहाशा इस्तेमाल और विविधता के कारण एक नए प्रकार का रसायन का संक्रमण उभर कर सामने आया है, जिसे फॉरएवर केमिकल कहते हैं. ऐसे रसायन का प्रयोग रोजमर्रा उपयोग होने वाली चीजों को और अधिक टिकाऊ बनाने के लिए पीएफएएस (पर एंड पोलीफ्लुरोअल्काइल सब्सटांस) मिलाया जाता है, खासकर जो तेज आंच पर भी न जले और पानी से न भीगे. बारिश के पानी से लेकर, सतही जल और भू-जल तक इससे प्रदूषित है और हम अनजाने में पानी के हर घूट के साथ फॉरएवर केमिकल पीते जा रहे हैं. हाल के वर्षों में प्लास्टिक के परम्परागत संक्रमण के इतर एक नए तरह से संक्रमण पाया गया है. प्लास्टिक लम्बे समय बाद समुद्र में टूट कर काफी सूक्ष्म कण माइक्रोप्लास्टिक में बदल जाता है और ये सूक्ष्मकण सी फ़ूड के रास्ते तटीय जनसंख्या और समुद्री नमक के रास्ते लगभग हर आदमी तक आहार शृंखला का हिस्सा बन रहा है. यहां तक कि भ्रूण और प्लेसेंटा तक माइक्रोप्लास्टिक पाया गया है.
मानव शरीर में लगातार जमा हो रहे इन जटिल रसायनों का असर अन्य शारीरिक प्रभावों जैसे व्यापक स्तर पर कैंसर, मेटाबॉलिज्म से जुड़े मधुमेह और किडनी, यकृत और ह्रदय सम्बन्धी बीमारियों के अलावा सीधे-सीधे हमारे प्रजनन क्षमता, खास कर पुरुषों पर पड़ा है. पुरुषों में प्रजनन की प्रक्रिया स्पर्म की संख्या और उसकी गतिशीलता द्वारा कुछ हद तक निर्धारित होती है. एक शोध के मुताबिक साल 2011 तक पिछले चार दशको में स्पर्म की संख्या में लगभग 52% की औसत गिरावट आई है. वहीं एक और अध्ययन में साल 1973 से 2018 के बीच स्पर्म की संख्या में सालाना औसतन 1.2% की गिरावट पाई गयी है, हालांकि नयी सदी में गिरावट की सालाना दर दो गुनी से भी ज्यादा (2.6%) हो गयी, जहां स्पर्म की औसत संख्या 10.4 करोड़/मिलीलीटर से घट कर 4.9 करोड़/मिलीलीटर हो गयी.
इसके अलावा महिलाओं में मासिक धर्म लगभग नौ महीने पहले शुरू होने की पुष्टि एक शोध करती है जो स्पष्ट रूप से शरीर में बढ़ते रसायन के कारण प्रजनन प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव की ओर इशारा करती है. इसके अलावा भ्रूण और बच्चों पर व्यापक स्तर पर तंत्रिका और विकास सम्बन्धी गड़बड़ियों का सीधा सम्बन्ध गर्भावस्था के दौरान प्रदूषित माहौल पर पाया गया है. मानव शरीर पर लगातार हो रहे रासायनिक दबाव के वातावरण के अन्य कारकों के संयुक्त प्रभाव के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसमें सबसे प्रभावी भूमिका इस रसायनों को माना जा सकता है. उदाहरण के लिए व्यापक हो रहे मोटापा और मधुमेह (टाइप 2) के विकास में जीवन शैली और भोजन का बड़ा प्रभाव होता है, लेकिन हार्मोन को प्रभावित करने वाले पदार्थों का भी उतना ही असर होता है.
हालांकि, खतरनाक रसायनों के प्रति उपभोक्ता वर्ग में धीरे-धीरे ही सही, पर जागरूकता आई है और इसके नतीजे में उत्पादक समूह भी इन रसायनों के विकल्प ढूंढ़ने को मजबूर हुआ है, पर इतना भर काफी नहीं है. जरूरत है किसी भी नए रसायन को उत्पाद के एक हिस्से के रूप में बड़े पैमाने पर उत्पादन के पहले लाइफ साइकिल एस्सेस्मेंट प्रोटोकॉल को समग्रता से लागू किया जाए, जैसे डीडीटी अपने दौर का सबसे प्रभावी कीटनाशक था, पर अपने प्राथमिक उपयोग के इतर जैसे ही आहार शृंखला का हिस्सा बना और तबाही का सबब बन गया. ऐसे में जरूरत है बेधड़क बढ़ रहे मानव निर्मित रसायनों पर एक प्रभावी निगरानी तंत्र के साथ समुचित जागरूकता का माहौल बने.