Faisal Anurag
अनुदारवादी आवारा पूंजी के खेल निराले हैं. पांच राज्यों के चुनावी टकरावों के बीच एक कृषि कानून को पार्टी लाइन की दीवार मिटा कर सख्ती से लागू करने पर बनी सहमति को आवारा पूंजी के खेल का हिस्सा ही माना जा सकता है. 114 दिन से विपरीत मौसम की मार झेलते हुए किसान आंदोलन के साथ खड़ा होने के पाखंड भी साफ हो गया है. संसद की एक स्थायी समिति में बनी सहमति ने किसान नेताओं को बेहद निराश किया है. किसान तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर डटे हुए हैं.
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने एक दिन पहले ही तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग पर जोर दिया है. लेकिन उनकी ही पार्टी के सांसद खाद्य, उपभोक्ता मामले और वितरण की स्थायी समिति में 12 विपक्षी दलों के साथ मिल कर आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम-2020 को पूरे स्पिरिट में लागू करने पर सहमति दे रहे हैं. इस कानून को जमाखोरों को आजाद करने और बाजार पर नियंत्रण के नजरिये से किसान नेताओं ने सबसे खतरनाक बताया है.
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किसान नेता चुनाव वाले राज्यों में भाजपा को हराने की कर रहे वकालत
किसान नेता राकेश टिकैत तो बार-बार दुहराते हैं कि भूख का व्यापार करने और किसानों के उत्पादन पर कब्जे के लिए इस कानून को बनाया गया है. विपक्षी दलों ने नरेंद्र मोदी को राहत दी है और किसानों की लड़ाई को कमजोर करने का प्रयास किया है. संसदीय इतिहास में कम से कम एक कृषि कानून पर बनी राजनीतिक सहमति इस अर्थ में नायाब है कि इस समय देश में किसानों का आंदोलन जारी है और किसान नेता चुनाव वाले पांच राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को हराने की वकालत कर रहे हैं. विपक्ष में केवल वाम दल ही इस सहमति के दायरे से बाहर हैं.
तीनों कृषि कानून बनने के पहले से ही अडानी के बड़े-बड़े सेलो बनकर तैयार हो गये थे. इस प्रतिस्पर्धा में अंबानी और कृछ अन्य बड़े घराने भी शामिल हैं. इस कारण कृषि काननों के खिलाफ आंदालन के निशाने पर अंबानी और अडानी घराने हैं. किसानों ने तो अंबानी की कंपनियों के खिलाफ टकराव का रास्ता अपना लिया है. मुंबई में भी पिछले अंबानी की कंपनी के मुख्यालय पर किसान विरोध प्रदर्शन कर चुके हैं. भारत की आवारा पूंजी कृषि उत्पादों पर नियंत्रण के लिए बेचैन है. अडानी के सेलो तो कम से कम यही कहानी सुनाते हैं.
राजनीतिक सहमति का वातावरण तैयार हुआ
राजनीतिक दलों पर कॉरपोरेट पूंजी के नियंत्रण की कहानी नयी नहीं है. कुछ नया है तो यही कि भारत के सबसे बड़े कॉरपोरेट घरानों ने पिछले सात सालों से अनेक गैर भाजपा दलों को महत्व नहीं दिया है. कॉरपोरेट चंदा हासिल करने में उनका हिस्सा कम हुआ है. बावजूद इसके यदि एक कृषि कानून पर राजनीतिक सहमति का वातावरण तैयार हुआ है, तो लोकतंत्र में नागरिकों के निर्णायक अधिकार की वास्तविकता को समझा जा सकता है. एक जमाने में तमाम आंदोलनों में नारा लगता था टाटा-बिड़ला की सरकार नहीं चलेगी. वही नारा अब अडानी-अंबानी के खिलाफ मजबूत हुआ है. 1990 के बाद की भारतीय राजनीति और सरकार के फैसलों को लेकर आवारा पूंजी के प्रभाव के असर की चर्चा की जाती रही है. आवारा पूंजी क्रोनी कैपिटल को ज्यादा सही तरीके से परिभाषित करती है.
1990 के बाद जिस तरह की राजनीतिक सहमति डेकल प्रस्ताव पर बनी थी, उसी से जाहिर हो गया था कि निजीकरण का बुलडोजर तेजी से दौड़ाया जाएगा, लेकिन 1990 से लेकर 2014 तक की राजनीतिक परिस्थितियों ने इस बुलडोजर की गति को अंकुश में रखा. खासकर जिस तरह का उद्वेलन भारतीय समाज के विभिन्न तबकों में था, उसका तो यही असर था. 2014 के बाद भारत के राजनीतिक ऑर्डर और मिजाज में भारी बदलाव आया है. इन बदलावों ने न केवल आंदोलनों के असर को हाशिए पर धकेल दिया है, बल्कि राष्ट्रवाद के नाम पर नव उदारवादी नीतियों को थोप कर जनता पर बुलडोजर चलाने का लाइसेंस भी हासिल कर लिया गया है.
नव उदार नीतियों को अमल में लाने के लिए जरूरी है बहुमत
यही कारण है कि सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को बेचा जा रहा है और उसके खिलाफ मध्यवर्ग खामोश है. तीन दशकों से नव उदारवादी ताकतें खामोशी का बाना धारण किये रही हैं. खामोशी के इस दौर में ही ऐसे हालात बनाये गये कि भारत का लोकतांत्रिक विमर्श हिंदू और मुसलमान पर सिमट गया और इस कारण एक दल के बहुमत की राह प्रशस्त हो गयी. नव उदार नीतियों को अमल में लाने के लिए बहुमत जरूरी है.
दरअसल भारत के लगभग सभी दलों की आर्थिक नीतियों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है और न ही आर्थिक सुधारों को लेकर उनमें ज्यादा फर्क है. अब तो कल्याणकारी राज्य का नकाब ओढ़े रहने की भी जरूरत नहीं बची है. इसलिए किसान लड़ते रहें, राजनीतिक दल कृषि कानूनों पर सहमत होंगे. दूसरी तरफ कुछ दल किसानों के आंदोलन के साथ एकजुट भी होते रहेंगे. इसका एक बड़ा कारण तो वह मुख्यधारा मीडिया भी है जो इन सवालों को नजरअंदाज करता है. विश्व व्यापार संगठन के दबाव को भी इस संदर्भ में समझा जा सकता है.
विश्व व्यापार संगठन के सम्मेलन में जहां सरकारों को खेती के कार्पोरेटीकरण का रोड मैप दिया जाता है कि करो या मरो. 2018 के एक सम्मेलन में भारत पर भी इस रोड मैप को लागू करने के लिए के लिए दबाव डाला गया. विश्व व्यापार संगठन का असर राजनीतिक दलों की नीतियों पर भी देखा जा सकता है, जो आर्थिक सुधारों के उसके नुस्खे को ही मर्ज का इलाज मान लेते हैं.
Disclaimer : ये लेखक के निजी विचार हैं
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