
आज 26 जनवरी है. इतिहास की एक अविस्मरणीय तिथि. सदियों पुरानी पराधीनता के बंधनों को काटकर भारतीय गणतंत्र के अभ्युदय का पावन दिन. राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में यह विश्व के सबसे विराट गणतंत्र के अभ्युदय का दिन है. राष्ट्र वेदी पर असंख्य वीरों के प्राणोत्सर्ग का प्रतिफल है 26 जनवरी. सुखद संयोग यह कि आज ही वाग्देवी की शुचि साधना का आध्यात्मिक पर्व भी है. कलाकार, मसिजीवी और छात्र समुदाय उत्साह और उमंग के पारावार में डूब उतरा रहे हैं. विद्या की, ज्ञान की अधिष्ठात्री शुभ्रवसना शारदा के मृण्मय स्वरूप की उपासना में व्यस्त है समग्र सनातन भारतीय समाज. हम में से बहुतों के लिए यह तिथि एक विशेष कारण से भी उल्लेखनीय है.
हिंदी के महाप्राण कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की जन्मतिथि है वसंत पंचमी. यद्यपि इस तिथि को लेकर विवाद है. गंगा प्रसाद पांडेय, राहुल सांकृत्यायन, डा बच्चन सिंह और आदरणीय जानकी वल्लभ शास्त्री के अनुसार, वसंत पंचमी निराला जी की जन्मतिथि है तो कई अन्य मूर्धन्य विद्वानों की राय में इस तिथि का चयन स्वयं कवि श्री ने किया है. इस विवाद से परे मैं युग प्रवर्तक कवि के कृतित्व में ऋतुराज वसंत और शारदोत्सव वसंत पंचमी के उजागर महत्व को रेखांकित करने की कोशिश कर रही हूं. वसंत और पावस कवियों की सर्वाधिक प्रिय ऋतु मानी गयी है. आज केवल वसंत की सुरम्य वीथियों में विचरें. निराला के लिए वसंत जीवन जगत में प्रसरित चिरकालिक कालिमा का, जड़ता का उच्छेद कर उसे निर्मल दर्पण बनाने का ऋतु है. कवि जीवन का निरुपाया-निरुद्देश्यता का परिहार कर उसे अर्थगर्भ और सोद्देश्य बनाता है वसंत. प्रकृति और चेतना के सायुज्य का उत्सव यह रागमय ऋतु.
अपनी रेखा शीर्षक कविता में कवि का आत्मस्वीकार देखते ही बनता है–
आज वह याद है वसंत
जब प्रथम दिगंतश्री, सुरभि धरा के आकांक्षित
दान प्रथम हृदय को/ था ग्रहण किया हृदय ने
अज्ञात भावना, सुख चिर मिलन का
हल किया प्रश्न जब, सहज एकत्व का
प्राथमिक प्रकृति ने
उसी दिन कल्पना ने/पायी सजीवता
कवि आम्र मंजरियों का मुकुट बना ऋतुपति के आगमन का आकांक्षी है.
तभी तो पूरी होगी उसकी कामना –
नवल प्राण नव गान गगन
फूटे नवल वृंत पर फूल
भरें जागरण की किरणों से
जग के जीवन
यह वसंत ही तो है जो अपरिमेय संताप और अवहेलना से बारंबार उबार लेता है कवि को. जैसे उसमें विश्वास की जोत जगाता है, उसके कंठ स्वर में नयी ओजस्विता भरता है-
अभी न होगा मेरा अंत…
मेरे ही अविकसित राग से, विकसित होगा बंधु दिगंत
हुआ करे जीवन चिरकालिक क्रंदन, लेकिन अडिग है कवि के जीवन में आस्था
रुखी री यह डाल, वसन वासंती लेगी
हार गले पहना फूलों का,
ऋतुपति सकल सुकृत-कूलों का,
स्नेह, सरस भर देगा उर-सर,
स्मर हर को वरेगी.
इस वसंत ऋतु के आरंभ में ही की जाती है सरस्वती की उपासना. निराला छायावाद के इकलौते कवि हैं, जिनका कृतित्व बारंबार सरस्वती के आगे नतशीश होता है. असह्य आतप में दीर्घ काल तक जलने वाले निराला को अप्रतिहत आत्मविश्वास दिया है सरस्वती ने. यह सरस्वती कवि के लिए कहीं हिंदी भाषा है, उनकी स्वयं की और उनके पुरखों की भाषा है. कहीं शारदा और आदि शक्ति का समवेत स्वरूप. कवि उनके चरणों में प्रणति अर्पित करता है-
“बंदू पद सुंदर तव
छंद नवल स्वर-गौरव”
कवि द्वारा उल्लेखित ये चरण शारदा के हैं. उनकी कृपा से खिलते हैं सृष्टि में सुमन दल, खिलता है वनफूल भी जो स्वयं कवि का प्रतीक है. सरस्वती के लिए अनेक अनूठे संबोधनों, विशेषणों से समृद्ध है निराला का कविता कोष. यह वाग्देवी ही है जिनके वरद प्रभाव से कवि बारंबार दैन्य और कातरता के कठोर पाश काटने में सक्षम होता है. उसका वन्य प्रसून सम जीवन धन्य हो जाता है. मां शारदा के अनुग्रह का प्रार्थी हो जाता है.
जीवन के रथ पर चढ़ कर
सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर
महाकाल के खरतर शर सह
सकूं, मुझे तू कर दृढ़तर
जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रुजल, धौत विमल
दृग जल से पा बलि, बलि कर दूं
जननि, जन्म श्रम संचित फल
शारदा निराला के लिए सकल गुणों की खान हैं. इस जगत तम की धृति, ज्ञान ध्यान है –
कमलासन पर बैठ प्रभातन
वीणा कर करती स्वर-साधन
अंगुलि-घात गुंजा मृदु गुंजन
भर देती शत गान, तान तुम
परंतु इस श्वेतांबर के मंदिर तक पहुंचने का मार्ग सुगम नहीं था
प्रात तव द्वार पर,
लगे जो उपल पद, हुए उत्पल ज्ञात,
कंटक चुभे जागरण बने अवदात…
निराला की वाग्देवी वंदन वैयष्ठिकता से उर्ध्व गमन करती हुई राष्ट्र की बहुस्तरीय बंधन युक्ति तक पहुंचाती है. हिंदी साहित्य में सरस्वती वंदना का सर्वोत्तम गीत है. वर दे वीणा वादिनी वर दे,…निराला शारदा की वीणा की झंकृति से भारत भूमि में स्वतंत्रता के, अमरत्व के अमोघ मंत्र फूंकना चाहते हैं. वे अज्ञानता और जड़ता के बहुस्तरीय बंधनों के उच्छेद के प्रार्थी हैं. चेतना और ज्ञान के प्रसरण के आकांक्षी हैं. देश की तरुणाई को नयी गति देना चाहते हैं महाकवि –
नवगति, नवलय, तालछंद नव
नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव
नव नभके नव विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे…
अद्भुत है कवित्व और आस्था का यह मणि कांचन योग. सरस्वती में अपार आस्था के फलस्वरूप निराला अपने प्रिय कवि तुलसीदास के भी मोहभंग के उपरांत रत्नावली में नील वसन शारदा के दर्शन कराते हैं.
देखा, शारदा नील वसना
है सम्मुख स्वयं सृष्टि रशना
जीवन-समीर शुचि-नि:श्वसना, वरदात्री
वाणी वह स्वंय सुवादित स्वर
फूटी तर अमृताक्षर निर्झरा
यह विश्व हंस, है चरण सुघर जिस पर श्री
आनंद का सार्वत्रिक संधान करने वाले कवि ने अनामिका के समर्पण में लिखा है-
मां, जिस तरह चाहो बजाओ इस वीणा को
यंत्र है
सुनो तुम्हीं अपनी सुमधुर तान
बिगड़ेगी वीणा तो सुधारोग बाध्य हो.
भारत की भारती को आज भी निराला जैसे शब्द साधक की प्रतीक्षा है.