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महेंद्र सिंह का प्रयोग जनप्राधिकार की स्थापना के लिए प्रेरणा देता है

Faisal  Anurag / Praveen kumar  किसानों,मजदूरों,आदिवासियों और दलितों के लिए महेंद्र सिंह इंसाफ,बराबरी और आजादी के लिए जारी लड़ाई के प्रतीक हैं. हत्या के 21 साल बाद भी उनके विचार जीवंत बने हुए हैं. 16 जनवरी को हजारों की संख्या में समाज के वंचित समूह के लोग इक्ठा होते हैं और एक समाजवादी झारखंड के निर्माण का संकल्प लेते हैं. महेंद्र सिंह वामपंथी धारा में ए. के. राय के बाद वह दूसरें व्यक्ति थे जिन्होने ने मजदूर किसानों के झारखंड के लिए जनांदोलन की जमीन तैयार किया था. बतौर विधायक उनकी लोकतांत्रिक भूमिका से कहीं बडा योगदान झारखंड के आंदोलन को वैचारिक रूप से शोषित को इंसाफ की आवाज बनाना था. वैसे तो झारखंड आंदोलन बुनियादी संरचना ही संसाधनों पर सामाजिक अधिकार की है. झारखंडी अस्मिता के जनसंघर्ष को जिस तरह महेंद्र सिंह ने एक वामपंथी व्याख्या प्रस्तुत किया वह अपने आप में एक ऐसा वैचारिक हस्तक्षेप था जिसकी कमी लंबे समय से महसूस की जा रही थी. संसदीय मंच भी जनसंघर्षो का हिस्सेदार बन सकता है इसका एक बडा उदाहरण उन्होने पेश किया. ज्यादातर मौकों पर देखा गया है कि लोकतंत्र में वंचित जनसमूहों की आवाज अनसुनी ही रह जाती है. वंचित समुदायों को महेंद्र सिंह ने एहसास कराया कि वे मात्र वोट देने की भूमिका तक ही सीमित नहीं हैं. यानी विधायिका का पटल संघर्षो का हिमायती बनाने की उनकी भरपूर कोशिश ने एक नयाम उद्घाटित किया. महेंद्र सिंह एक क्लासिकल वामपंथी भर नहीं थे. उनके प्रयोग लोकतंत्र में जनभागीदारी की भूमिका को रेखांकित करते हैं. एक तरह से वामपंथ को नये प्रयोगो से समृद्ध किया. उनके प्रयोग जनतंत्र की पायी क्षमता और संभावना की तरह है. आदिवासी सांस्कृतिक सवालों को जिस गंभीरता से वामधारा का हिस्सा महेंद्र सिंह ने बनाने का प्रयास किया वह ए के राय के प्रयोगों से ज्यादा भिन्न है. ए के राय ने झारखंड की जिस परिकल्पना को प्रस्तुत किया था महेंद्र सिंह ने अपनी विशिष्टताओं के साथ उसे विकसित किया. कॉमरेड ए के राय ने वामपंथ की परंपराओं की दीवार को ध्वस्त कर पहली बार झारखंडी अस्मिता को एक नया तेवर दिया. शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो के साथ मिल कर झारखड आंदोलन को वास्तविक जनांदोलन बनाया. झारखंड आंदोलन का यह तेवर 1990 के बाद जब कमजोर हो गया तब महेंद्र सिंह ने उस परचम को अपने तरीके से लहराया. बावजूद इसके कि वे भाकपा माले के एक सदस्य आजीवन बने रहे लेकिन झारखंड के जनगण ने उन्हें कभी केवल एक पार्टी विशेष का हिस्सा भर नहीं माना. देश में ऐसे कम ही लोग संसदीय राजनीति से निकले हैं. जिनको इस तरह का सम्मान प्राप्त है. महेंद्र सिंह का सबसे ज्यादा जोर जनता के प्राधिकार पर यानी आमजनता की आथरिटी पर केंद्रित था. किसी भी राजनीति में यह प्रस्थाना ही उसे नया तेवर देता है. उनका कोई ऐसा क्रियाकलाप नहीं होता था. जिसमें जनप्राधिकार का सरोकार नहीं रहता था. यही कारण है कि वे जनता की संप्रभुता को सबसे ऊपर मानते थे. भारत के संविधान की भी यही मूल भावना है जिसे चुनावों की राजनीति ने छोड दिया है. यह एक बडा सवाल है कि आखिर जनप्राधिकार की सर्वोच्चता किस तरह स्थापित होगी. खास की विधयी प्रक्रियाओं में. यह एक ऐसी प्रक्रिया है. जो जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार की अवधारा के बरखिलाफ है. भारत को देर सबेर इस इस प्रक्रिया से गुजरना ही होगा. जब जनप्राधिकार जनतंत्र की नई मर्यादाओं को रेखांकित करेगा. तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने इस जनसंप्रभुता को एक बार फिर से विमर्श का हिस्सा बना दिया है. महेंद्र सिंह ने झारखंड की विधान सभा को बार बार इस प्राधिकार का बोध कराने का भी प्रयास किया था. खास कर जिस तरह के सवाल झारखंड के लोगों के सरोकार हैं उन्हें आवाज दे कर. यह मामूली काम नहीं था कि जब झारखंड के जनगण राजनीति के कारपोरेटीकरण के खिलाफ विस्थापन विरोधी आंदोलनों में आवाज उठा रहे थे. महेंद्र सिंह ने उसके साथ अपनी आवाज भी समाहित कर दिया. महेंद्र सिंह की इस भूमिका ने वामधारा के दलों को भी अपनी कई प्रास्थापनाओं पर पुनर्विचार करने की प्रेरणा दी. कोयलकारो इसका उदाहरण है. वे ना केवल आदिवासी आंदोलन के साथ एकाकार हुए बल्कि वैचारिक रूप से बडी परियोजनाओं के वास्तविक लक्ष्य पर हमला किया. यानी जमीन पर कब्जे की कारपारेट नीति को उन्होने बेपर्दा करने में बडी भूमिका निभायी. विस्थापितों के लिए चाहे भूख हडताल हो या फिर उन पर हो रहे दमन के खिलाफ सक्रिय हिस्सेदारी अब तक लोगों की स्मृतियों में दर्ज है. महेंद्र सिंह ने इसके लिए एक बडा दायरा बनाया जिसमें असमहत आवाजों के साथ भी विमर्श किया. आमतौर पर असहमत आवाज को अनसुनी करने की परंपरा विकसित हो गयी है. अब तक असहमति को देशद्रोह तक की संज्ञा दे दी जा रही हैं महेद्र सिंह के संघर्ष की विरासत न केवल वामपंथ के लिए उपयोगी है बल्कि व्यापक जनगण के संघर्षों की प्रेरणा है. उन की कविताओं में जिस तरह के भाषा और प्रतीकों के नण् प्रयोग किए गए हैं ठीक उसी तरह उनकी राजनीति प्रयोगों की एक विरासत छोड गयी है. एक ऐसी विरासत जिसमें तंगतबाह जनसमुदाय अपनी वास्तविक लोकतांत्रिक नागरिक की छवि देखता है. एक ऐसी छवि जो जनता की संप्रभुता और प्राधिकार आधारित जनतंत्र का केंद्रीय पहलू है.  
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