Harikant Tripathi
लोकतांत्रिक सरकारें और राजनीतिक दल, जनता के लिए होते हैं या सत्ता के लिए? यह सवाल आज के इस अभूतपूर्व संकट में मुंह बाये सामने खड़ा है. देश में कल 2 लाख 60 हज़ार से अधिक नये कोरोना केसेज आये. यह संख्या द्रुत गति से ऊपर की ओर भाग रही है. स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत यह है कि दवाएं, डॉक्टर, बेड, ऑक्सीजन उपलब्ध होना तो दूर लोग कोरोना टेस्ट नहीं करा पा रहे हैं.
ग़ाज़ियाबाद में भारत सरकार के एक राज्य मंत्री और बेंगलुरू में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एक बेड के लिए गुहार लगा रहे हैं. पिछले दिनों लखनऊ के लोहिया अस्पताल में टेस्ट कराने वालों की भीड़ हनुमानगढ़ी पर रामनवमी की भीड़ को मात दे रही थी. ऐसा टीवी चैनलों पर दिखाया गया था. भैंसाकुंड, लखनऊ और भोपाल के श्मशान में जलाये जा रहे शवों के वीडियो दहशत पैदा करने वाले हैं.
आईएमए ने 2 फ़रवरी को राज्यसभा में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़े पर बहुत नाराजगी व्यक्त की थी. जिसमें कोरोना से मरने वाले डॉक्टरों की संख्या मात्र 164 बतायी गयी थी. आईएमए का कहना था कि 3 फ़रवरी तक कुल 734 डॉक्टरों ने कोरोना के कारण अपना जीवन अर्पित कर दिया था. 3 फ़रवरी के बाद से कोरोना ने और विकराल रूप धारण कर लिया है. और अब तक कोरोना से मरने वाले डॉक्टरों की संख्या निश्चित रूप से हज़ार से भी ऊपर चली गई होगी. यह संख्या कारगिल युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के क़रीब पहुंच रही है.
जब यह हाल डॉक्टरों का है तो आम जनता की हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि वे कितनी यंत्रणा में जी रहे होंगे. यह स्थिति किसी बाह्य आक्रमण से भी विकराल इसलिए है, क्योंकि दो देशों के युद्ध में तो मुख्य रूप से सैनिक प्रभावित होते हैं. जबकि कोरोना से हर वर्ग प्रभावित हो रहा है. यदि गांवों में संक्रमण का प्रसार हुआ, तो क्या कोई भी सुविधा उन्हें उपलब्ध हो पायेगी?
इस अभूतपूर्व संकटकाल में सरकारों और राजनीतिक दलों को कुंभ कराने, सत्ता का खेल खेलने की विलासिता कैसे सूझ रही है ? प्रकरण भारतीय निर्वाचन आयोग तक गया था. वहां सब अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार, अपनी-अपनी डफली बजाने लगे और आयोग ने चुनाव कार्यक्रम को यथावत रखा. क्या आयोग चुनाव कार्यक्रम को संशोधित नहीं कर सकता था? क्या चुनाव की तिथियां आगे नहीं बढ़ाई जा सकती थीं ? क्या चुनावों में किसी प्रकार के जुलूस, जलसे, रैली, सभा पर रोक लगाकर केवल इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से ही चुनाव प्रचार की व्यवस्था आयोग नहीं कर सकता था?
प्रधानमंत्री जी ने धर्माचार्यों के कोरोना पीड़ित होने का हवाला देकर कुंभ को समाप्त करने की अपील सबेरे की और दोपहर में कुंभ समाप्त कर दिया गया. क्या धर्माचार्यों का ही जीवन महत्वपूर्ण है. आम लोगों के जीवन संकट का हवाला देकर क्या प्रधानमंत्री यह अपील और पहले नहीं कर सकते थे ? यदि भाजपा सहित कोई भी राजनीतिक दल स्वप्रेरणा से यह घोषणा करता कि वे कोविड की वजह से कोई भी चुनावी रैली, जुलूस, जनसभा नहीं करेंगे तो कितना बड़ा संदेश जाता पब्लिक में. क्या तुच्छ चुनावी फ़ायदे के ऊपर लोगों के जीवन को वरीयता देने की स्टेट्समैनशिप अब देश के किसी नेता में नहीं है ? हमारा नेतृत्व बौने, सत्ता प्रेमी और स्वार्थी लोगों के हाथ में है ?
याद रखिए! ये संकट भी जैसे आया है, वैसे चला जायेगा. पर इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा. रामधारी सिंह दिनकर जी के शब्दों में कहें तो –
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध.
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं औऱ यह लेख उनके फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हो चुका है.