Faisal Anurag
दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन के नजरिए से नेपाल की राजनैतिक अस्थिरता एक गंभीर संकेत है. दो तिहायी बहुमत के बावजूद नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार तीन साल भी ठीक से नहीं चल पायी. राजशाही के जाल से निकल कर नेपाल ने संविधान सम्मत सेकुलर संघात्मक जिस ढांचे पर लोकतांत्रिक यात्रा की शुरूआत की है वह भी संकटग्रस्त होता दिख रहा है. इस संकट को नेपाली प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने पार्टी के आंतरिक विवाद के बाद पैदा किया है. संसद को भंग कर चुनाव कराने की ओली की पहल के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी के अन्य नेता सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का एलान कर चुके हैं. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी एनसीपी में तीन सालों के भीतर ही विभाजन तय है. प्रचंड और माधाव नेपाल के नेतृत्व में ओली को पार्टी के प्रमुख पदों से हटा दिया गया है. ओली ने भी अपनी अलग से नयी कार्यसमिति बनाने का एलान किया है. ओली, प्रचंड, माधाव नेपाल, झलनाथ खनाल जैसे बडे कम्युनिस्ट नेता एक साथ तीन साल भी नहीं चल पाये हैं. इन तीन सालों में नेपाल के लोगों आर्थिक समस्याओं को लेकर परेशान हैं. ओली शासन नेपाली लोगों को राहत देने में विफल रहा है.इस नाकायमयाबी का असर तब देखा गया जब काठमांडू की सडकों को राजशाही के समर्थन में प्रदर्शन हुए और पुरानी व्यवस्था की मांग की गयी. नेपाल की अस्थिरता को ले कर भारत भी चिंतित है. चीन ओली के पतन से परेशान है.
माओवादियों के दस साल के हथियारबंद संघर्ष के बाद नेपाल ने लोकतंत्र की खुली हवा में सांस लिया. नेपाल में लोकतंत्र का इतिहास नया ही है. राजशाही के दौर में लोकतंत्र के हुए प्रयोगों की विफलता ने माओवादियों को विस्तार दिया था. राजशाही के जमाने में वीपी कोइराला के लोकतांत्रिक आंदोलन के बाद चुनी हुई सरकार को मान्यता दी गयी थी. लेकिन राजा की सर्वोच्चता ही बनी रही. बाद के दिनों में चुनी गयी सरकारों का बार-बार गिरना और सिद्धांतविहीन राजनैतिक समझौतों ने नेपाल को हथियारबंद लडाई में धकेल दिया. भारत की पहल के बाद नेपाली माओवादी बातचीत के लिए तैयार हुए और लोकतंत्र की राह प्रशस्त हुई. राजशाही के दौर में नेपाल के मेहनतकश लोगों ने बहुत तकलीफे झेली. कोविड काल के बाद दुनिया के विभिन्न हिस्सें में कार्यरत 90 हजार नेपाली श्रमिकों की वापसी के मुद्दे को भी ओली सरकार ठीक से हल नहीं कर पायी. इससे भी असंतोष पसरा. कम्युनिस्टों के सत्ता में आने के बाद से उम्मीद थी कि नेपाल एक नये प्रयाग की भूमि बनेगा. नेपाल के कम्युनिस्ट आंदोलन में 2018 के अंत में नेपाल के दो बडे कम्युनिस्ट दलों नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी लेनिनवदी और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी सेंटर ने विलय किया. चुनावों में नयी बनी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी को दो तिहायी बहुमत हासिल हुआ.
नेपाल का संकट भी इसी के साथ शुरू हो गया. भारत की नाकाबंदी के बाद नेपाल में ओली लोकप्रिय नेता बन कर उभरे. इसी कारण चुनावों के बाद उन्हें प्रधानमंत्री का पद दिया गया. ओली की नीतियों को लेकर प्रचंड, माणव नेपाल, श्रेष्ट और खनाल जल्द ही असंतुष्ट हो गए. एक साल से ओली अपनी सरकार को बचानें का प्रयास करते रहे. चीन की राजदूत इन नेताओं के बीच असंतोष दूर करने का प्रयास करती रही. लेकिन कुछ नीतियों को लेकर पिछले दो महीने से लगने लगा था कि अब ओली का टिके रहना संभव नहीं है. ओली ने संसद भंग करने के पहले किसी भी अन्य नेता को विश्वास में नहीं लिया. मंत्रीमंडल के बीच भी बहुमत आने के बावजूद राष्ट्रपति विद्या भंडारी को ओली ने संसद भंग करने के लिए तैयार कर लिया. नेपाल में अगले साल चुनाव कराने की घोषणा की जा चुकी है. लेकिन चुनाव होंगे ही नहीं. कहा जा सकता क्योंकि 2015 के संविधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार है कि वह प्रचंड की चुनौती पर विचार कर फैसला पलट सकता है. नेपाल में आम चुनाव 2022 में होना था.
दरअसल ओली क्षेत्रीय संतुलन साधने में भी कारगर नहीं रहे. ओली की विदेश नीति भी विवादों में रही है. भारत और चीन के साथ शक्ति संतुलन में ओली का चीनी झुकाव कम्युनिस्ट पार्टी के कई नेताओं को नापसंद रहा है. राजशाही के खत्मे के बावजूद नेपाल की राजनीति में राजा समर्थकों का अस्तित्व पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. ऐसी स्थिति में नेपाली लोकतंत्र का भविष्य उस हालत में सुरक्षित नहीं है जब राजशाही की वापसी के लिए प्रदर्शन हो चुके हैं. वैसे नेपाल में हथियारबंद लडाई ने समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक संबंधों में भारी बदलाव किया है. राजशाही की वापसी चाहने वालों को नेपाल की बडी आबादी का समर्थन नहीं प्राप्त है. लेकिन नेपाल के भारत से लगे हिस्सों में भी जिस तरह का असंतोष है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. मधेशी अपनी स्वायत्तता का सवाल उठाते रहे हैं. नेपाल के इस राजनीतिक उथलपुथल को सतही तौर पर एक सरकार के पतन या एक और चुनाव की संभावना मात्र से नहीं देखा जा सकता हे.
एक सामंती राजशाही से मुक्ति के बाद का लोकतंत्र नेपाल के राजनीतिक दलों से ज्यादा जबावदेही और गंभीरता की मांग करता है. प्रचंड ने शासनकाल के दौरान भ्रष्टाचार के अरोपों से घिरे रहे. यह वहीं प्रचंड हैं जिन्हें नेपाली क्रांति का अग्रदूत माना जाता रहा है. बावजूद इसके प्रचंड का नेपाली जनता पर असर हे. नेपाली कम्युनिस्टों ने उस अवसर को भी दावं पर लगा दिया है जो उसने लंबे संघर्ष के बाद सावियत संघ के पतन के बाद की दुनिया में हासिल किया है. अस्थिरता का यह दौर नेपाल के लिए घात साबित हो सकता है.