Anand Kumar तब मैं करीब 13-14 साल का रहा होउंगा. मेरे मुहल्ले में एक ईसाई परिवार था, जो बच्चों का स्कूल चलाता था. एक बार एक विदेशी श्वेत महिला अपने बच्चे के साथ मेरी गली में आयीं और स्कूल का पता पूछा. वहां हम दो-तीन दोस्त खड़े थे. वे एक साइकिल रिक्शा पर सवार थीं. मैंने रिक्शेवाले को स्कूल का रास्ता बता दिया. उन दिनों साइकिल रिक्शा के पीछे बच्चों का लटक कर कुछ दूर घूम लेना आम बात थी. जैसे ही उन विदेशी महिला का रिक्शा आगे बढ़ा, हमारी गली का एक बच्चा पीछे लटक गया. इसे भी पढ़ें-
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टेस्ट : तेज गेंदबाज सिराज पर की गयी नस्लीय टिप्पणी, ब्राउन डॉग और बिग मंकी कहा गया! रिक्शे पर सवार उस श्वेत वर्णीय शिशु ने पीछे लटके बालक को देखा और अपनी मां से बोला, “लुक मॉम, मंकी!” यह सुन कर एक दोस्त बोल उठा, देखो लाल मुंहवाले बंदर का बच्चा काले मुंह वाले लंगूर के बच्चे को मंकी कह रहा है. हम सब हंसते-हंसते लोटपोट हो गये. रिक्शे पर बैठा बच्चा अबोध था और हम अल्पवय किशोर. तब न हमें रंगभेद की समझ थी न उस विदेशी बच्चे को पता था कि नस्ल क्या होती है!
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय क्रिकेटरों पर नस्लभेदी टिप्पणी
ऑस्ट्रेलिया में चल रही क्रिकेट सिरीज में भारतीय क्रिकेटरों पर दर्शकों की नस्लभेदी टिप्पणी पर मचे बवाल के बीच अचानक यह घटना याद आ गयी. हालांकि क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने माफी मांग ली है और आइसीसी ने कड़ा रुख लिया है, लेकिन क्रिकेट में नस्लवाद और रंगभेदी टिप्णियों का मामला नया नहीं है. ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड में अकसर एशियाई और अश्वेत खिलाड़ियों को ऐसी फब्तियों से दो-चार होना पड़ता है. क्रिकेट ही नहीं, दुनिया के तकरीबन सभी मुल्कों में जहां श्वेत बहुसंख्यक हैं, काली, भूरी और पीली चमड़ीवालों पर तंज कसते ही रहते हैं. मौका पड़ने पर अपमानित करने और प्रताड़ित करने से भी नहीं चूकते. अमेरिका में कुछ समय पहले जॉर्ज फ्लायड की एक पुलिसकर्मी द्वारा हत्या की घटना भी अश्वेत लोगों पर श्वेतों की श्रेष्ठता की मानसिकता का ही परिणाम थी. मगर दुनिया में सिर्फ श्वेत ही ऐसे नहीं हैं, जो रंग और नस्ल के आधार पर भेदभाव करते हैं. भारतीयों पर भी ऐसा करने के आरोप लगते रहे हैं.कुछ महीने पहले वेस्टइंडीज के क्रिकेटर डैरेन सैमी ने आरोप लगाया था कि आइपीएल के दौरान उनपर रंगभेदी और नस्लीय टिप्णियां की गयीं. ऑस्ट्रेलिया के पूर्व खिलाड़ी एंड्रयू सायमंड्स भी यह आरोप लगा चुके हैं. इसे भी पढ़ें-
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हत्याकांड: खुलासे के करीब पहुंची रांची पुलिस,कई अहम सुराग लगे हाथ बहुत से भारतीयों को आज मोहम्मद सिराज और जसप्रीत बुमराह को ऑस्ट्रेलिया में ‘ब्राउन डॉग्स’ कहा जाना बुरा लग रहा है. लगना भी चाहिए, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहां जाति, नस्ल और रंग का भेदभाव दूसरे देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है. हमारे आसपास रोजाना ऐसी घटनाएं घटती हैं, जिनमें जाने-अनजाने लोगों पर रंग, जाति या भाषा को लेकर भद्दे कमेंट किये जाते हैं.
गिरिराज सिंह ने सोनिया गांधी पर दिया था बयान
केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता गिरिराज सिंह का बयान लोग भूले नहीं होंगे, जिसमें उन्होंने कहा था कि राजीव गांधी यदि किसी सांवली या काले रंग की नाइजीरियन से विवाह करते, तो कांग्रेस उसे अपने नेता के रूप में स्वीकार ही नहीं करती. उनका आशय यह था कि सोनिया गांधी अपने गोरे रंग के कारण आज इस पद और ओहदे पर हैं. गोवा के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर का वह बयान भी चर्चा में रहा, जिसमें उन्होंने हड़ताली नर्सों को धूप में बैठकर हड़ताल नहीं करने की सलाह दी थी, क्योंकि इससे उनका रंग ‘डार्क‘ होगा और शादी में दिक्कत आ सकती है. ये उदाहरण हमारे समाज में गहरे तक जड़ जमा चुके पूर्वाग्रह को दर्शाते हैं.रंग को लेकर भारतीय परिवारों में कितना गहरा पूर्वाग्रह है, यह किसी से छिपा नहीं है. बेटी अगर सांवली हो, तो परिवार की चिंता बढ़ जाती है. कदम-कदम पर मिलनेवाले तानों से बेचारी लड़की का जीना मुश्किल हो जाता है. मन्नू भंडारी और प्रभा खेतान जैसी लेखिकाओं की आत्मकथाओं में भारतीय परिवारों में लड़कियों के साथ रंग को लेकर होने वाले भेदभाव को महसूस किया जा सकता है. बात सिर्फ लड़कियों तक ही सीमित नहीं है. दक्षिण भारतीय लोगों के साथ देश के बाकी हिस्सों में यही सलूक होता है. बॉलीवुड की फिल्मों और टीवी सीरियलों में भी एक्टरों को दक्षिण भारतीय दिखाने के लिए काला रंग पोत कर सफेद टीका लगा दिया जाता है. उनकी भाषा और लहजे का सार्वजनिक मजाक बना कर कामेडी का नाम दिया जाता है और हम देख कर खुश हो लेते हैं.
इसे भी देखें- हमारे लिए दक्षिणवाले काले हैं तो नॉर्थ ईस्टवाले “चाइनीज”
हमारे लिए दक्षिणवाले काले हैं तो नॉर्थ ईस्टवाले “चाइनीज”. पूरे देश में “लुक्स” के आधार पर अगर सबसे ज्यादा भेदभाव किसी के साथ होता है, तो ये यही लोग हैं. इन्हें ज्यादातर लोग भारतीय मानते ही नहीं हैं. पूर्वोत्तर की लड़कियों को देखते ही इनका नजरिया बदल जाता है. लड़कों के साथ देश के बाकी हिस्सों में दोयम दर्जे से भी बुरा सलूक होता है. देश के अलग-अलग भागों में हमारे आदिवासी भाई-बहनों को तरह-तरह से लांछित किया जाता है. हम कतई दूध के धुले नहीं हैं. हमारे समाज में इतना भेदभाव और हिप्पोक्रेसी है कि हमें किसी दूसरे की टिप्पणी से आहत होने का अधिकार ही नहीं है. याद रखने की जरूरत है कि इसी रंगभेद ने मोहनदास गांधी को अहिंसक विरोध और सत्याग्रह का प्रणेता बना दिया, जिन्होंने 06 नवंबर, 1913 को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के खिलाफ ‘द ग्रेट मार्च’ की अगुवाई की. गांधी के रास्ते चलकर नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका को रंगभेदी और नस्लवादी शासन से मुक्ति दिलाई. मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने इसी रास्ते चलकर अमेरिका में अश्वेतों को कई अधिकार दिलाये. दूसरी तरफ जर्मन आर्य जाति को सर्वश्रेष्ठ मानने के दंभ में हिटलर ने पूरी मानव जाति को द्वितीय विश्व युद्ध की आग में झोंक दिया. हिटलर की तरह खुद को जाति, नस्ल और रंग के आधार पर दूसरे से श्रेष्ठता का दंभ रखनेवाले आज भी पूरी दुनिया में मौजूद हैं.
इसे भी देखें- भारत ही वह देश है, जिसने 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ में जातिगत भेदभाव के मुद्दों को उठाया. भारत ही वह पहला देश बना, जिसने रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका से अपने संबंधों पर प्रतिबंध लगाया. भारत के अंदर भेदभाव खत्म करने के लिए इक्वालिटी बिल को संसद से पारित कराने की मांग की जाती रही है. लेकिन बिलों और कानूनों से सामाजिक बुराइयां खत्म नहीं होतीं. इन्हें समाज ही खत्म कर सकता है. क्यों न हम अपने घर से इसकी शुरुआत करें ?