Faisal Anurag
औवैसी से भाजपा विरोधी दल यही जानना चाहते हैं कि आखिर उनकी पॉलिटिक्स क्या है? बिहार में औवेसी की उपस्थिति ने महागठबंधन की सत्ता संभावनाओं को प्रभावित किया. बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनावों में उतरने की उनकी घोषणा के बाद यह प्रश्न चर्चा में हैं. विपक्ष के ज्यादातर दल ओवेसी पर भाजपा की बी टीम होने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन औवेसी इन आरोपों का खंडन करते रहे हैं.
रविवार को ओवैसी गुपचुप तरीके से बंगाल पहुंच गये. बंगाल के चुनावों में शिरकत करने के उनके एलान के बाद यह पहली यात्रा है. यात्रा जिस गोपनीय तरीके से की गयी है, उसे लेकर राजनीतिक प्रेक्षकों के बीच सरगर्म चर्चा हो रही है. हुगली के फुरफुरा शरीफ की जियारत और पीरजादा अब्बास सिद्दकी के साथ उनकी मुलाकात को अहम माना जा रहा है. पीरजादा फुरफुरा शरीफ के ही हैं और ममता बनर्जी का साथ देते रहे हैं. पीरजादा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की ओवैसी के एलान के बाद बंगाल में अल्पसंख्यक वोटों के बिखराव का अंदेशा है.
औवेसी ने बिहार में न केवल सीमांचल की पांच सीटों को जीता है, बल्कि दर्जनों सीटों पर महागठबंधन के वोटों में बिखराव किया है. तो क्या आवैसी बंगाल में अल्पसंख्यक वोटों में बिखराव कर सेकुलर दलों को नुकसान पहुंचाने में कामयाब हो सकेंगे. इस सवाल की अहमियत यह है कि यदि इस गठबंधन का जादू चलेगा तो अंततः नुकसान किसे होगा.
यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. पीरजादा की परेशानी और नारजगी यह है कि पिछले कुछ समय से उनकी अहमियत तृणमुल सरकार में पहले जैसी नहीं रही है. भाजपा की रणनीति का भी यह प्रमुख हिस्सा है कि बंगाल के 30 मुस्लिम वोटों में वह बिखरा करे. पिछले दो विधानसभा चुनावों में बंगाल के मुसलमानों का समर्थन ममता बनर्जी को मिलता रहा है.
मीडिया में यह माहौल बनाया गया है. बंगाल में भाजपा और तृणमूल के बीच सीधा मुकाबला है. इस परसेप्शन में लेफ्ट कांग्रेस गठबंधन को लगभग नकार दिया जा रहा है. जबकि वोटों के नजरिये से इन दोनों गठबंधनों को नकारा नहीं जा सकता है.
पिछले विधानसभा चुनाव में लेफ्ट और कांग्रेस को 31 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल हुए थे. तृणमूल को 44.5 प्रतिशत और बीजेपी को 10.16 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया था. भाजपा इसी आधार को 2021 के चुनावों की बुनियाद मानकर चल रही है.
ओवैसी को लेकर बंगाल की मीडिया भी सजग है. इसके पहले नंदीग्राम के नेता रहे सुवेंदु अधिकारी के भाजपा में शामिल होने को भी हाइप दिया गया. लेकिन ममता बनर्जी की बड़ी रैली के बाद अधिकारी के इलाके में यह दिखाया है कि उनके समर्थन का आधार दरका नहीं है. लेकिन ओवैसी का मामला थोड़ा अलग इस अर्थ में है कि उनकी उपस्थिति से यदि अल्पसंख्यकों के बीच किसी तरह की दुविधा पैदा होगी. तो इसका नुकसान तृणमूल कांग्रेस के साथ लेफ्ट कांग्रेस गठबंधन को भी उठाना पड़ सकता है.
औवेसी को लेकर बंगाल मीडिया में चर्चा हो रही है. इसका कारण बिहार के बाद वे राजनीतिक हालात हैं. जिसमें ओवैसी ने कम सीटें जीतकर भी असर दिखाया है. तृणमूल कांग्रेस ने तो ओवैसी के संभावित असर को नकार दिया है. बावजूद पार्टी पूरी तरह आश्वस्त नहीं है. इसका एक बड़ा कारण तृणमूल के असंतुष्टों की भूमिका है. ममता बनर्जी से नाराज असंतुष्ट जिस तरह भाजपा का दामन थामन रहे हैं. उससे कहीं ज्यादा असर फुरफुरा श्रीफ के पीरजादा की हारने की संभावना व्यक्त की जा रही है.
ओवैसी हाल दिनों में जिस तरह विपक्ष के दलों के मजबूत दावेदारी वाले राज्यों में सक्रियता की बात कर रहे हैं. उससे ही यह सवाल उठता है कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है. अल्पसंख्यकों को ठगे जाने और धोखा देने के आरोप भले ही औवेसी सेकुलर दलों पर लगायें, लेकिन बंगाल में जिस तरह के राजनीतिक जंग के हालात हैं. उसमें उनकी भूमिका पर सवाल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
बंगाल में भाजपा लगातार सांप्रदायिक कार्ड खेल रही है. और ऐसे में सेकुलर दलों के बीच जिस तरह की राजनैतिक प्रतिस्पर्धा है. यह भी एक संजीदा सवाल है.