यूपी में क्या होगा, अखिलेश या योगी?

Dr Santosh Manav फेस्टिव सीजन खत्म होते ही यानी नवंबर के बाद यह सवाल पूरे देश में गूंजेगा कि यूपी में क्या होगा? इसलिए कि यूपी में फरवरी-मार्च में चुनाव तय है. इसलिए भी कि प्रधानमंत्री यूपी से लोकसभा के सदस्य हैं. इसलिए कि यूपी में पिछले कई दशकों से एक पार्टी की लगातार… दूसरी बार सरकार नहीं बनी है. इसलिए कि यूपी जनसंख्या के लिहाज से देश का सबसे बड़ा राज्य है. इसलिए कि देश की सत्ता यूपी के रास्ते मिलती है. इसलिए कि यूपी हारकर बीजेपी शायद ही देश की सत्ता बचा पाए. राजनीति की दशा-दिशा हर दिन बदलती है. यहां कुछ भी स्थायी नहीं है. इसलिए आज की तारीख में यूपी की सत्ता के पांच कोण हैं. बीजेपी, सपा, बसपा, कांग्रेस और ओमप्रकाश राजभर के नेतृत्व में दर्जन भर छोटे दलों का संयुक्त भागीदारी मोर्चा. फैसला इन्हीं में होना है. अब तक जो भी सर्वे आए हैं, वे पिछली बार की तुलना में कम सीटों के साथ फिर बीजेपी की सरकार बना रहे हैं. लेकिन, खेल इतना आसान भी नहीं है. थोड़ी-सी चूक भारी पड़ सकती है और अभी कई तरह के सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन होंगे. उदाहरण के लिए मानकर चलिए कि आम आदमी पार्टी और शिवपाल यादव की जेबी पार्टी आज न कल सपा के साथ जाएगी. ब्राहम्ण जाति के मतदाता बीजेपी के साथ एकजुट रहेंगे या बसपा-सपा के साथ बंटवारा होगा? मुस्लिम सपा के साथ रहेंगे या बसपा, ओवैशी की पार्टी को समर्थन देंगे? अपना दल, निषाद पार्टी अब तक बीजेपी के साथ हैं. ये चुनाव तक बने रहेंगे या साथ छोड़ेंगे? सवाल कई हैं. दिल्ली की सत्ता के लिए यूपी का साथ जरूरी है. इसलिए बीजेपी पूरी ताकत के साथ जुटी है. दूसरी पार्टियां भी कम नहीं हैं. लेकिन बीजेपी वाली तेजी नहीं है. बीजेपी सरकार के कामकाज के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ सामाजिक समीकरण साधने पर भी फोकस कर रही है. हिंदू जातियों में कम संख्या वाले तबकों को भी जोड़ने की पूरी कोशिश दिख रही है. मंत्रीमंडल विस्तार में इसकी झलक दिखी. यह भी सही है कि बीजेपी ने अपना सामाजिक विस्तार तीव्र गति से किया है. इस गति से दूसरी पार्टियों ने नहीं किया या नहीं कर पाई. कामकाज का प्रचार-प्रसार भी तेजी से हो रहा है. पिछले दिनों योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार की 45 उपलब्धियां गिनाईं. बीजेपी का सबसे ज्यादा जोर इस बात पर है कि उसने माफिया राज समाप्त किया. अतिक अहमद, मुख्तार अंसारी, बदन सिंह, विजय शुक्ला को उनकी असली जगह दिखाई. माफियाओं की दो हजार करोड़ की संपत्ति जब्त की. एनकाउंटर में 150 अपराधी मार गिराए. 3427 को घायल किया, 44759 पर गैंगस्टर एक्ट और 630 को रासुका में अंदर किया. गृहमंत्री अमित शाह हों, जेपी नड्डा या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सब इसे भारी सफलता बताते नहीं थकते. वे गर्व से कहते हैं कि हमने माफिया राज खत्म किया. किसानों की कर्ज माफी, लड़कियों की ग्रेजुएशन तक मुफ्त पढ़ाई को भी वे बड़ी उपलब्धि के तौर पर रेखांकित करते हैं. तो क्या 45 बड़ी उपलब्धियां और सशक्त सामाजिक गठबंधन की कोशिश बीजेपी का बेड़ा पार कर देगी? ऐसा कतई नहीं है. बीजेपी की राह में दो बड़े रोड़े हैं. एक तो किसान आंदोलन और दूसरा ब्राहम्ण जाति के मतदाताओं को अपने साथ जोड़ने की सपा-बसपा की कोशिश. किसान आंदोलन पश्चिमी यूपी में बीजेपी की संभावनाओं को पलीता लगा रहा, तो ब्राहम्ण मतदाताओं का कम या ज्यादा पलायन भी संभावनाओं पर असर डालेगा. यूपी में ब्राहम्ण हिंदू जातियों में सबसे ज्यादा संख्या वाली और प्रभावी जाति है. जतिन प्रसाद को कांग्रेस से लाकर कैबिनेट मंत्री बनाना इसी जाति को पूरी तरह समेटे रखने की कोशिश का नतीजा माना जा रहा है. किसान आंदोलन की धार भी कम करने की कोशिश जारी है. माना जा रहा है कि चुनाव से पहले किसानों के लिए बंपर घोषणाएं हो सकती हैं. सपा ने कहा है कि वह बड़ी पार्टियों यानी कांग्रेस और बसपा से गठबंधन नहीं करेगी. छोटी पार्टियों को साथ लाएगी. सामाजिक आधार बढ़ाने की कोशिशों के तहत प्रतीकात्मक ही सही, हर जिले में भगवान परशुराम की प्रतिमा लगाने की बात कही है. ऐसी ही कोशिश बसपा की है. कांग्रेस सीटें बढ़ा सकती है. उसके लिए सत्ता अभी दूर है. संयुक्त भागीदारी मोर्चा से भी बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है. फैसला बीजेपी-सपा में ही होना है. बाजी इन्हीं दोनों में से किसी के हाथ लगेगी. लेकिन सभी को एक बात याद रखनी होगी-यूपी में बीजेपी को सीधे मुकाबले में ही हराया जा सकता है. त्रिकोणीय या चारकोणीय मुकाबला बीजेपी की राह आसान कर देती है. [wpse_comments_template]
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