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कनाडा से अदावत किस ओर जाएगी?

Pushparanjan कनाडा के टोरंटो में जो भारतीय समुदाय के लोग हैं, उनसे कोई पूछे कि साल में कितनी बार भारतीय ध्वज को अपमानित होते देखते हो? तिरंगे को उल्टा लटका कर उसपर कोई चरमपंथी जूते-चप्पल लगाये, कौन सच्चा भारतीय बर्दाश्त करेगा? भारतीय ध्वज के साथ वर्षों से इस तरह की बदतमीज़ी हो रही है. टोरंटो और वेंकुवर में भारतीय महावाणिज्य दूतावास है. ओटावा में भारतीय उच्चायोग. टोरंटो स्थित कौंसुलेट जनरल कार्यालय इस गुंडई का सबसे अधिक शिकार होता रहा है. उसकी वजह ब्रेम्टन है, जो टोरंटो से आधे घंटे की दूरी पर है. जस्टिन ट्रूडो जैसा मनोरोगी प्रधानमंत्री जो घरेलू नीतियों में पूरी तरह विफल रहा है, अपना उल्लू सीधा करने के लिए कभी भी ब्रेम्टन में खालिस्तान की निर्वासित सरकार को मान्यता दे सकता है. खालिस्तान से तो कनाडा का लगता है, गोया गर्भ-नाल का संबंध हो. एक थे सुरजन सिंह गिल, जो सिंगापुर में पैदा हुए और इंग्लैंड में पले-बढ़े. सुरजन सिंह गिल ने 26 जनवरी, 1982 को वैंकूवर में निर्वासित खालिस्तान सरकार कार्यालय की स्थापना की. वो यहीं तक नहीं रूके. नीले रंग का खालिस्तानी पासपोर्ट और रंगीन मुद्रा भी जारी की. हालांकि, उन्हें स्थानीय सिखों के बीच सीमित समर्थन मिला, उनके कुछ कार्यकर्ताओं ने अप्रैल 1986 में बैसाखी जुलूस के दौरान दौड़ा-दौड़ा कर मारा. कनाडा से हमारी कूटनीतिक अदावत पहली बार नहीं है. 1998 में परमाणु परीक्षणों के बाद ओटावा ने भारत में अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया था. दोनों देशों के बीच दरार 1948 में ही स्पष्ट हो गई थी, जब कनाडा ने कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन किया था. ओटावा में बैठे सियासतदानों को लगता है कि अलगाववादियों द्वारा मतसंग्रह, भारत की वो कमजोर नस है, जिसे जब चाहो दबा दो. कनाडा सरकार ने दिसंबर 2018 में अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ‘कनाडा में आतंकवादी खतरे नाम से सार्वजनिक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें पहली बार ‘सिख चरमपंथ और खालिस्तान’ का उल्लेख किया गया था. रिपोर्ट में कहा गया है कि कनाडा को खालिस्तानी चरमपंथियों सहित आतंक से प्रेरित विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से खतरों का सामना करना पड़ा है. 2018 में भारत-कनाडा ने आतंकवाद विरोधी गतिविधियों पर सहयोग के लिए एक रूपरेखा भी स्थापित की, लेकिन जस्टिन ट्रूडो साल भर बाद वापिस आतंक को समर्थन देने वाले जहाज पर लौट आये. 2019 में कनाडा ने बैसाखी से ठीक एक दिन पहले उस रिपोर्ट को संशोधित किया, जिसमें खालिस्तान और सिख उग्रवाद के सभी उल्लेख सिरे से हटा दिए गए. पंजाब के तत्कालीन सीएम अमरिंदर ने इसकी कड़ी आलोचना की थी, जिन्होंने ट्रूडो को हरदीप सिंह निज्जर सहित कनाडा में सक्रिय चरमपंथियों की एक सूची प्रदान की थी. कनाडा की कुल आबादी का डेढ़ प्रतिशत सिख हैं तो वहां सरकार उनकी न सुने, ऐसा संभव नहीं. भारत में सिखों की संख्या 1.7 प्रतिशत है. मानकर चलिये कि कुछ वर्षों में कनाडा में प्रवास करने वाले सिख भारत, जितने हो जाएंगे. 18 सितंबर 2022 को ब्रैम्टन में खालिस्तान पर रेफरंडम का आयोजन किया गया. उस मतसंग्रह में एक लाख से अधिक सिखों की हिस्सेदारी ने कई सवाल खड़े किये हैं. कनाडा में 13 लाख 75 हज़ार भारतवंशियों की आबादी में लगभग चार लाख हिंदू और पांच लाख सिख हैं, बाक़ी दूसरे मतों को मानने वाले. मतलब, खलिस्तान के वास्ते तथाकथित मतसंग्रह में एक चौथाई से भी कम सिखों ने हिस्सा लिया. चार लाख प्रवासी सिखों ने इस कार्यक्रम से दूरी बनाकर रखी थी. जिन एक लाख सिखों ने ब्रैम्टन के गोर मेडो कम्युनिटी सेंटर पर आयोजित मतसंग्रह में हिस्सा लिया, उनमें पाकिस्तान वाले कितने हैं, यह भी खोज का विषय है. लेकिन इतना तो तय है कि उत्तर अमेरिका से यूके तक सिख चरमपंथ को मज़बूत करने में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका रही है. जस्टिन ट्रूडो इस समय केवल अपनी सत्ता 2025 तक चलाने के लिए एक गंदा खेल जारी रखे हुए हैं. पहले इसी तरह का खेल जस्टिन ट्रूडो ने चीन के साथ खेला. जस्टिन ट्रूडो के साथ मुश्किल यह है कि सरकार को सुचारू रूप से चलाने की बजाय देश का घ्यान भटकाने के लिए कभी चीन से, तो कभी भारत से कूटनीतिक संबंध बिगाड़ने में लगे हुए हैं. अक्टूबर 2025 तक सत्ता में बने रहने के लिए जस्टिन ट्रूडो एक कठपुतली प्रधानमंत्री की भूमिका में हैं. सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी को 338 सदस्यीय हाउस ऑफ कॉमंस में 170 सभासदों का समर्थन चाहिए. 2019 के आम चुनाव परिणाम के समय न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) के लीडर जगमीत सिंह किंग मेकर की भूमिका में अवतरित हुए थे. उनके कहने पर ही 18 सिख सांसदों ने जस्टिन ट्रडो को प्रधानमंत्री स्वीकार किया था. 22 मार्च 2022 को दूसरे आम चुनाव में भी यही सीन था. एक बार फिर सिख सांसदों ने ट्रडो की कठपुतली सरकार को समर्थन दे दिया. चार साल की यह मियाद 20 अक्टूबर 2025 को पूरी होगी. ट्रुडो ने हालिया बयान में कहा भी था कि हम ‘सप्लाई एंड कान्फिडेंस’ की नीतियों के साथ एनडीपी से अपने संबंध निर्वाह कर रहे हैं. कनाडा की घरेलू राजनीति में स्थिरता के लिए सिख सांसदों का समर्थन ही एकमात्र विकल्प है. ठीक से देखा जाए तो भारतीय लोकसभा से कहीं अधिक सिख सांसद कनाडा में हैं. लोकसभा में 13 तो कनाडा के हाउस ऑफ कॉमन्स में 18 सिख सांसद हैं. ट्रूडो की सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी की मज़बूरी ऐसे तत्वों को बर्दाश्त करने की है. वे ज़रा भी सिख चरमपंथ के खिलाफ़ जाते हैं, सरकार कभी भी नप सकती है. जो बयान ट्रूडो प्रशासन ने जारी किया है, वह केवल औपचारिकता का हिस्सा लगता है. इससे प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी के भीतर हिंदू समर्थक नाखुश हैं. हिंदू सांसद चंद्र आर्य ने सही कहा है कि अधिकांश कनाडाई सिख खालिस्तान आंदोलन का समर्थन नहीं करते हैं. ट्रूडो दरअसल अपने बुने जाल में फंसते जा रहे हैं. उनसे संसद के अंदर और बाहर वह ठोस सुबूत मांगा जा रहा है, जिससे साबित हो सके कि भारतीय दूतावास का हत्याकांड में हाथ है. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. 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