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बीजेपी को क्यों नहीं है किसान आंदोलन की फिक्र?

Satyendra Ranjan तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा आंदोलन किसान आंदोलन शक्तिशाली है. इसके फैलाव का इलाका भी इतना कम नहीं है कि कोई सरकार उसे नजरअंदाज कर दे. इस आंदोलन को न सिर्फ देश, बल्कि विदेशों में भी पर्याप्त समर्थन और सहानुभूति मिली है. लेकिन इन सबसे सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी परेशान नहीं दिखती. यह तो अब लगभग साफ ही कर दिया गया है कि केंद्र सरकार आंदोलन की मांग को मानते हुए कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी. इससे सरकार और आंदोलन के बीच जो गतिरोध बना है, यह साफ है कि बीजेपी ने उसके साथ जीने का फैसला कर लिया है. इसलिए ये प्रश्न फिर से हमारे सामने है कि आखिर आज की बीजेपी जन आंदोलनों या किसी प्रकार के प्रतिरोध की फिक्र क्यों नहीं करती है? क्या ऐसा किसी एक या दो नेताओं की जिद या अहंकार की वजह से होता है? या इसके पीछे कहीं अधिक गंभीर कारण हैं? बेशक जिन नेताओं के हाथ में पार्टी या सरकार की कमान होती है, उनका अपना स्वभाव या नजरिया निर्णयों और राजनीतिक कार्य-शैली को प्रभावित करता है. लेकिन कोई राजनेता राजनीतिक नुकसान की कीमत पर जिद या अहंकार का परिचय नहीं देता. अगर बीजेपी और उसके नेतृत्व ने पिछले साल नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन और अब किसान आंदोलन के आगे ना झुकने और अपने नैरैटिव के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया है, तो यह समझा जाना चाहिए कि उसके पीछे उसकी ठोस सियासी गणना है. इस गणना का आधार देश की पॉलिटिकल इकॉनमी (राजनीतिक अर्थव्यवस्था) में वह बदलाव है, जिसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजपी लाने में कामयाब रही है. नई पॉलिटिकल इकॉनमी का सार यह है कि लोगों की रोजी- रोटी और देश की खुशहाली से जुड़े सवालों पर बिना कोई ठोस काम किये चुनावी राजनीति में बहुमत बनाये रखने का इंतजाम पुख्ता रखा जा सकता है. ये नई सोच किस तरह काम कर रही है, इसकी बेहतरीन मिसाल हाल में राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे-5 के जारी हुए आंकड़ों से मिली. इन आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए मोदी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने कहा कि मोदी सरकार ने कल्याणकारी योजनाओं की ऐसी नीति अपनाई है, जिसमें फायदा तुरंत और सीधे लोगों के हाथ में पहुंचता दिखे. इसलिए रसोई गैस कनेक्शन, शौचालय, बिजली कनेक्शन, बैंक खातों आदि को उपलब्ध करवाने की योजनाओं को तरजीह दी गयी है. सुब्रह्मण्यम ने कहा कि इन सुविधाओं के पहुंचने का यह मतलब नहीं है कि लोग वास्तव में नियमित रूप से इनका इस्तेमाल भी कर रहे हों. मगर उनके पहुंचने भर से यह संदेश मिल जाता है कि सरकार ने कुछ किया है. लेकिन ऐसा शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा के व्यापक उपायों आदि में निवेश घटाते और संसाधनों के गरीबों के हित में पुनर्वितरण की नीति को पलटते हुए किया जा रहा है. इसलिए जहां प्रत्यक्ष लाभों की डिलिवरी पिछले छह साल में बेहतर हुई है, वहीं कुपोषण बढ़ा है, और भूख सूचकांक, मानव विकास सूचकांक, सामाजिक प्रगति सूचकांक आदि पर भारत पिछड़ता चला गया है. इन क्षेत्रों में प्रगति के लिए जो निवेश होता है, उसका सीधा लाभ पहुंचता आमजन को नहीं दिखता. फिर जो लाभ होते हैं, वो दीर्घकाल में जाकर जाहिर होते हैं. यहां गौरतलब यह है कि मोदी सरकार का यह नजरिया सियासी रूप से कामयाब रहा है. इसके साथ सामाजिक-धार्मिक नफरत की नीतियों को आगे बढ़ाते हुए और सूचना तंत्र पर पूरे नियंत्रण के साथ बीजेपी आज ऐसी स्थिति में है, जहां उसे फिलहाल कोई चुनौती मिलती नहीं दिखती. किसान आंदोलन अपने अ-राजनीतिक स्वरूप और सीमित राजनीतिक प्रभाव के कारण उपरोक्त सच्चाई को निकट भविष्य में बदल पाएगा, इसका कोई संकेत नहीं है. बीजेपी के रणनीतिकारों की समझ यह है कि भारत की चुनाव प्रणाली में विजयी होने के लिए एक तिहाई या इससे कुछ अधिक मतदाताओं की ठोस गोलबंदी चाहिए. उनका आकलन है कि हिंदुत्व समर्थक मतदाताओं की बढ़ती गई संख्या, मेनस्ट्रीम मीडिया की जद में आने वाले शहरी मध्य वर्ग और रोजी-रोटी के सवालों की तुलना में भावनात्मक मुद्दों से अधिक प्रभावित होने वाले एक बड़े जन समुदाय के आधार पर बीजेपी के पास ये अटूट समर्थन है. हाल के तमाम चुनाव नतीजे उनके इस आकलन की पुष्टि करते हैं. हाल में हैदराबाद के शहरी निकाय चुनाव, राजस्थान के ग्रामीण निकाय चुनाव और जम्मू से आए जिला विकास परिषद चुनावों के ताजा नतीजे यही बताते हैं कि किसान आंदोलन से वहां बीजेपी की चुनावी संभावनाएं तनिक भी प्रभावित नहीं हुईं. आज की बीजेपी ने राज करने का जो खास मॉडल लागू किया है, उसमें कुछ उद्योग घरानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. मॉडल यह है कि ये घराने चुनाव के समय अपने पूरे संसाधन बीजेपी की जीत के लिए झोंकते हैं. उनसे नियंत्रित मीडिया देश में एकतरफा राजनीतिक नैरेटिव बनाए रखने में जुटा रहता है. उन घरानों से मिले आर्थिक संसाधनों के जरिए बीजेपी और सहमना संगठनों के कार्यकर्ता सोशल मीडिया पर उसी नैरेटिव को दूर-दूर तक पहुंचाने में जुटे रहते हैं. इससे बीजेपी की जीत सुनिश्चित होती है. सत्ता में आने पर बीजेपी सरकार उन घरानों के हित में फैसले लेती है. इस क्रम में देश के संसाधन उन घरानों के हाथ में पहुंचते गये हैं. कृषि कानूनों के पीछे भी इस मॉडल को काम करते देखा जा सकता है. किसान आंदोलन को यह श्रेय देना होगा कि उसने इस मॉडल को समझा है और अपने आंदोलन में राजनीतिक चेहरों के साथ-साथ उन उद्योग घरानों को भी निशाने पर रखा है. कृषि कानूनों को पूरी तरह वापस लिया जाए, उसकी ये मांग भी जायज और सटीक है. इसलिए कि इन कानूनों में कोई संशोधन किसानों को वे सुरक्षाएं वापस नहीं कर पाएगा, जो हरित क्रांति के दौरान तैयार किए गए ढांचे से उन्हें मिला था. बहरहाल, सही समझ और मांग के बावजूद किसान आंदोलन ने अ-राजनीतिक रहने की हानिकारक रणनीति अपना रखी है. जबकि बीजेपी के मौजूदा शासन मॉडल कामयाब के रहते हुए किसान आंदोलन की मांग पूरी होगी, इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती. असल सवाल राजनीतिक विकल्प की जमीन तैयार करने का है. इस मोर्चे पर किसान आंदोलन के भीतर किसी चर्चा के संकेत नहीं हैं. इसीलिए बीजेपी इस आंदोलन से पैदा हुए गतिरोध के साथ जीने को तैयार दिख रही है. वह आश्वस्त है कि इस गतिरोध से उसकी सत्ता की बुनियाद पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.

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