Faisal Anurag
महाभारत में युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा, इस महाविनाश के लिए हर कोई मुझे ही उत्तरदायी क्यों ठहरा रहा है? कृष्ण ने जवाब दिया, ऐसा इसलिए राजन क्योंकि इस महाविनाश के उत्तरदायी तो आप भी हैं. वह युधिष्ठिर भी आरोप से नहीं बच सके, जिन्हें महासंग्राम के लिए विवश किया गया था. लेकिन कोविड-19 महामारी के महाविनाश का उत्तरदायित्व लेकर फ्रंट से मुकाबला करने के लिए भारत में कोई सामने नहीं आ रहा है. अमित शाह बंगाल में कोरोना विस्फोट के बाद भी 22 अप्रैल को तीन चुनावी सभाएं कर रहे हैं. प्रधानमंत्री ने तो दो दिनों पहले ही एक तरह से अपना पाल्ला झाड़ लिया. राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बेबसी साफ दिखाई दे रही है. इस बेबसी के लिए वे अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते. लेकिन यहां कोई युधिष्ठिर तो है नहीं, जो खुद को कठघरे में रख कर सवाल करे और न ही कोई कृष्ण दिखाई दे रहे हैं, जो बता सकें कि राजनेता अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते.
बिहार के एक मेडिकल कॉलेज के निदेशक ने पद से मुक्त किये जाने की मांग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से की है. उस निदेशक ने मेडिकल सुविधाओं की कमी का एक गंभीर सवाल उठाया है, तो झारखंड के स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने एक आइएएस के सामने लाचार रहने का रोना रोया है. वह भी रेमडेसिविर के मामले में. सरकार से कहीं ज्यादा प्रभाव उस आइएएस का है, जो इस दवा की आपूर्ति एक निजी अस्पताल में कराने में सक्षम हैं. यह बेबसी है या अपने दायित्व से पलायन. उस महिला आइएएस के बारे में कहा जाता है कि राजधानी के एक निजी अस्पताल की वे निगहबान हैं. ऐसे अनेक उदाहरण देश भर में हैं, लेकिन सरकारों और मंत्रियों के इशारों पर चलने वाली मीडिया पॉजिटीवीटी की तलाश करने में लगी हुई है. लोगों की जिंदगियों से खिलवाड़ किया जा रहा है. यह उस हालत में है, जब देश एक जबरदस्त मेडिकल इमरजेंसी के दौर में है. लेकिन इस की तड़प शासकों में नहीं है. इन नेताओं को तो लोगों की मौतों से उठे आर्तनाद और घरों में पसरे सन्नाटे से कहीं ज्यादा 2 मई के उस दिन का इंतजार है, जब बंगाल के साथ चार राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित होंगे.
देश का पूरा मेडिकल ढांचा चरमरा गया है. वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के शब्दों में- लोगों की मौतें वायरस से ज़्यादा अपने देश की लुंजपुंज लोक स्वास्थ्य सेवा, अदूरदर्शी एवं सिर्फ चुनावदर्शी नेताओं, लुटेरे कारपोरेट और निकृष्टतम नौकरशाही के मिले-जुले असर के कारण हो रही हैं! ये मौतें महामारी से ज्यादा व्यवस्थागत हैं. आम आदमी के लिए लोक स्वास्थ्य सेवाएं हैं ही नहीं. जो थोड़ी बहुत हैं, वो दक्षिण के राज्यों में ही दिखती हैं. इस टिप्पणी में त्रासदी के मंजर का सच शामिल हैं. शासकों को अपनी आलोचनाओं से परेशानी होती है. मीडिया पर नियंत्रण का जो निजाम खड़ा किया गया है, उसके तमाशे भी सच्चाई को झुठला नहीं पा रहे हैं. कोई भी सोशल साइट अब उसी तरह डरा रही है, जैसा तीन दशक पहले टेलीग्राम आते ही घरों में रोना-धोना शुरू हो जाया करता था. कम से कम इस सदी में तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि लोगों को मरने के लिए इस तरह छोड़ दिया जाएगा. उर्मिलेश यह भी कहते हैं कि देश के वीवीआईपी, बड़े उद्योगपति और बड़े नौकरशाह जब स्वयं किसी तरह के स्वास्थ्य संकट में फंसते हैं तो अपने लिए बेहतर हेल्थकेयर खरीद लेते हैं या बेहतरीन संस्थानों पर कब्जा जमा लेते हैं. बाकी जनता को कहा जाता है कि वो धैर्य रखे! अभिशप्त हैं हम!
इस अभिशाप के शिकार बना दिये गये आमलोगों की परेशानी प्राकृतिक नहीं है. यह इरादतन है. अब ऐसा नहीं है, तो उन चेतावनियों को किन कारणों से नजरअंदाज किया गया, जो दूसरी-तीसरी लहर की आक्रमकता की चेतावनी दे रहे थे. अमेरिका में इसी साल 8 जनवरी को तीन लाख चार हजार लोगों के संक्रमित होने का रिकॉर्ड बना था. 21 अप्रैल को भारत में एक दिन में 3 लाख 14 हजार संक्रमित मिले. लेकिन दिसंबर-जनवरी में जब ब्रिटेन और अमेरिका में दूसरी लहर तांडव मचा रही थी, भारत के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बंगाल के गली-कूचों में चुनाव प्रचार में व्यस्त थे. इकोनामी का संकट हो या दूसरी लहर की विभीषिका, किसी भी में तो सरकार के प्रयास ऐसे नहीं दिखे हैं, जो लोगों में भरोसा पैदा कर सकें. अर्थव्यवस्था और कोविड दोनों के प्रबंधन में सरकार का तदर्थवाद ही दिखा है.
उत्तरदायित्व लेने का दौर तो खत्म ही हो गया है. इसी देश में लाल बहादुर शास्त्री ने रेल दुर्घटना होने पर मंत्री पद त्याग दिया था, जब कि उनके प्रधानमंत्री उनके साथ थे. यह मामला तो निर्भया बलात्कार मामले का ही है जब डॉ मनमोहन सिंह ने विपक्ष और लोगों के आक्रोश के शिकार होने के बाद पीडिता को इलाज के लिए सिंगापुर भेजा. लेकिन निर्भया बच नहीं पायीं. उनका जब शव दिल्ली पहुंचा तो हवाई अड्डे पर डॉ मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दोनों उपस्थित थे. यह बेहद प्रतीकात्मक था. इसके बावजूद इसमें जिम्मेदारी का अहसास तो दिखता ही है. लेकिन महाविनाश को लेकर इस तरह की संवेदना का अभाव हुक्मरानों में क्यों है? जब किसान भी धरना स्थल पर मर रहे थे और उन के प्रति शोक व्यक्त करने के लिए राहुल गांधी ने सदन को कहा था, तो उस अट्टहास को याद कीजिये, जो लोकसभा में दिखा था. कोविडग्रस्त राहुल गांधी पर ऐसा ही अट्टहास तो भाजपा नेता विजयवर्गीय कर रहे हैं. यह भी प्रतीकात्मक है. लेकिन इसके संकेत साफ हैं. इस देश में आगे बढ़ कर यह कहने का साहस हुकमरानों में नहीं है कि ठीक है. गलती हुई. अब हालात को के लिए तमाम संसाधन और ताकत झोंक दी जायेगा, ताकि मौतों की संख्या कम की जाये और लोगों की तड़प भी.