क्या आदिवासी समुदायों के बीच भाजपा चुनावी पैठ मजबूत बनाने की कवायद में सफल होगी?

Faisal Anurag बिरसा मुंडा और आदिवासी समुदायों को जिस तरह का महत्व भारतीय जनता पार्टी दे रही है, इसका साफ राजनीतिक संदेश तो यही है कि झारखंड,छत्तीसगढ़,मध्यप्रदेश,गुजरात,राजस्थान और पश्चिम बंगाल के आदिवासी वोटों पर उसकी निगाह है. इन राज्यों में आदिवासी वोट पर उसकी वह पकड़ नहीं है, जो उसने उत्तर प्रदेश,बिहार सहित अनेक राज्यों के पिछड़ी जाति के वोटों को अपनी ओर करने में कामयाबी पा ली है. दलित वोटों को लेकर भी उसकी चिंता जाहिर है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अब भी दलितों का बड़ा वोट आधार बहुजन समाज पार्टी के साथ ही है. पंजाब में कांग्रेस ने एक दलित को मुख्यमंत्री बना कर और अकाली दल ने बसपा के साथ चुनावी तालमेल कर दलित वोटों को आकर्षित करने का दांव खेल दिया है. गुजरात में भी अगले साल होने वाले चुनाव में आदिवासी और दलित वोटों के रूझान को लेकर भाजपा चिंतित है. राजस्थान में तो हाल ही में हुए उपचुनाव में एक आदिवासी बहुल सीट पर तो भाजपा न केवल हारी बल्कि वह एक-एक आदिवासी पार्टी से पिछड़ कर तीसरे स्थान पर रही. जाहिर है कि 2024 के चुनावों और 2023 में हाने वाले मध्यप्रदेश और राजस्थान के चुनावों में आदिवासी वोटों पर भाजपा की निगाह है. पश्चिम बंगाल के अनुसूचित सुरक्षित सीटों पर उसकी नाकामयाबी हाल की ही घटना है. झारखंड में पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा केवल दो आदिवासी सुरक्षित सीटों को जीत सकी थी और 2019 के लोकसभा चुनाव में हालांकि उसने पांच में तीन सीटों पर तो जीत हासिल किया. लेकिन उसके आदिवासी वोट प्रतिशत में गिरावट आयी. मध्यप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भी उसे आदिवासी सीटों पर नुकसान उठान पड़ा और छत्तीसगढ़ में तो उसे सत्ता से बाहर करने में आदिवासी वोटरों की बड़ी भूमिका रही. इन्हीं तथ्यों को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जनजातीय गौरव दिवस के बहाने आदिवासियों को भाजपा की ओर आकर्षित करने का एजेंडा की शुरूआत कर दिया है. इस कार्यक्रम के आयोजन में उनके भाषण का फोकस भी यही रहा. उन्होंने पिछली सरकारों को आदिवासियों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया और आदिवासी विकास का मसीहा के साथ आदिवासियों को महत्व देने वाला प्रधानमंत्री बताने का प्रयास किया. लेकिन सवाल तो इससे अलग है. दुनिया भर में आदिवासी अपनी पहचान आदिवासी नाम से ही किए जाने के लिए पिछले चार दश्कों से संघर्ष कर रहे हैं. भारत में अब भी भाषणों में भले ही आदिवासी शब्द का इस्तेमाल किया जाता हो सरकारी भाषा में उन्हें जनजाति की संज्ञा ही दी जाती है. आदिवासी संस्कृति के पैरोकार इससे असहमति जाते रहे हैं. झारखंड आंदोलन के समय भी देखा गया कि भाजपा ने झारखंड के समानांतर वनांचल शब्द का प्रयोग किया. इन दोनों शब्दों के बीच केवल शब्दों का ही फक्र नहीं है, बल्कि दो विश्वदृष्टिकोण का अंतर है. आदिवासी समाज के दार्शनिक डॉ. रामदयाल मुंडा ने तो दोनों के बीच के फर्क को स्पष्ट करते हुए तल्ख शब्दों में कहा था कि आदिवासी गौरव,संस्कृति और विरासत के खिलाफ वनांचल एक ऐसी प्रवृति है जो आदिवासियों की सांस्कृति पहचान को ही नष्ट कर देगी. डॉ. मुंडा लिखित आदि धर्म पुस्तक आदिवासी संस्कृति,धर्म और चेतना की विशिष्टताओं को ही उजागर करता है. डॉ. मुंडा अनेक अवसरों पर कहा करते थे कि आदिवासियों की अस्मिता को मिटा देने की अनेक साजिशें चल रही है. आदिवासी प्रतिरोध के मूल स्वर एक न्यायपूर्ण विकास के लिए है. एक ऐसा विकास जिसका मूल केंद्र आम आदमी हो और प्रकृति पर्यावरण जलवायु से छेड़छाड़ करने वाला न हो. आदिवासी समाजों ने सदियों से विकास के नाम पर विस्थापन का दर्द झेला है. विस्थापन केवल एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना भर नहीं है, बल्कि वह सामाजिक संरचना के टूटने और संस्कृति के बिखरने का भी वाहक है. आदिवासी शब्दावली इन तमाम संदर्भों को रेखांकित करता है जिसका अपना एक सांस्कृतिक नजरिया,संदर्भ और विरासत है. आदिवासियों की यह समझ केवल झारखंड के आदिवासियों की नहीं है. देश भर के आदिवासी जब बिरसा उलगुलान की स्मृति को ताजा करते हैं तो वे मूलत: अन्याय और असमानता के तमाम आर्थिक सामाजिक संदर्भों का भी निषेध करते हैं. जनजाति शब्दावली से उन्हें वह गौरव और बोध हासिल नहीं होता जो आदिवासी चेतना उन्हें देती है. भाजपा का एजेंडा भले ही आदिवासी वोटों को अपने पक्ष में स्थायित्व देने की हो, लेकिन उसका आर्थिक एजेंडा जल,जंगल और जमीन के संरक्षण और उस पर आदिवासी अधिकार की वकालत नहीं करता. यही वह अंतरविरोध है, जिसे भाजपा हल नहीं कर पा रही है और आदिवासी प्रतिरोध चेतना अपनी विशिष्ट राजनैतिक पहचान के लिए निरंतर तलाश में लगी हुई है. [wpse_comments_template]
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