Vikas singh
Bokaro: झारखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की चर्चा जोरों पर है. आने वाले कुछ महीनों में पंचायत चुनाव संपन्न हो जायेगा. बोकारो जिले के 751 गांव चुनाव प्रक्रिया में भाग लेंगे. लेकिन, 19 गांव ऐसे हैं जो अपने पहचान स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. गांव वालों की विवशता इससे समझी जा सकता है कि ग्रामीण सांसद व विधायक का चुनाव तो कर सकते हैं, लेकिन अपना मुखिया नहीं चुन सकते. 19 गांव 1956 से ही अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं. कारण सिर्फ इतना है कि ये गांव न तो पंचायत में शामिल हैं, न ही नगर प्राधिकार में.
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19 गांवों में रहती है 80 हजार की आबादी
इन 19 गांवों में तकरीबन 80 हजार की आबादी रहती है. इस आबादी को सिर्फ जनगणना व विधायक-सांसद चुनाव में वोट देने का अधिकार है. राशन कार्ड, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत के तहत शौचालय जैसी महत्वकांक्षी योजनाओं का लाभ इन्हें नहीं मिल पाता है. जन्म व मृत्यु सर्टिफिकेट बनाने के लिए गांव के लोगों की समिति को संबंधित विभाग में चक्कर लगाने पड़ते हैं. 1956 तक ये सभी गांव पंचायत में शामिल थे. लेकिन बोकारो इस्पात संयंत्र के निर्माण नोटिफिकेशन के बाद से ये गांव अपनी सरकारी पहचान के लिए भटक रहे हैं. इनका दर्द ऐसा है कि इनके समरूप अधिग्रहित 04 दर्जन गांव व पुर्नवासित गांवों को साल 1991 के सर्वे के अनुसार पंचायत का दर्जा मिल गया. लेकिन इन 19 गांवों की किस्मत नहीं बदल सकी.
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बोकारो शहर से सटे उत्तरी विस्थापित क्षेत्र के शिबुटांड, कुंडौरी, मोहनपुर, आगरडीह, करमाटांड, बांसगढ़, पंचौरा, महेशपुर, कनफट्टा, कंचनपुर, बास्तेजी, बैदमारा, धनघड़ी, महुआर, मोदीडीह, चिटाही, चैताटांड समेत अन्य गांव खुद को पंचायत में शामिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उपरोक्त गांव के लोग इन गांवों व अन्य छोटे-छोटे गांवों को लेकर पंचायत बनाने की मांग कर रहे हैं.
अधिकारियों को बरगलाने से नहीं मिली सफलता : गुलाब
विस्थापित नेता गुलाब चंद्र ने बताया कि 23 मार्च 2002 को तत्कालीन बोकारो डीसी विमलकीर्ति सिंह के हस्ताक्षर से बीएसएल के अधिग्रहित गांवों की 14 पंचायत के गठन के लिए अधिसूचना जारी की गयी. इसके बाद बाद के डीसी सत्येंद्र सिंह के समय कनारी उतरी पंचायत की अधिसूचना जारी हुई. लेकिन, उत्तरी क्षेत्र के विस्थापित गांवों को इसमें जगह नहीं मिली. पूर्व के जनप्रतिनिधियों ने उत्तरी क्षेत्र के विस्थापित गांव को लेकर कई योजनाएं सामने रखीं. साइंस सिटी की बात जोर-शोर से उछाली गयी.अधिकारियों को अंधेरे में रखा गया.
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मुआवजे की लड़ाई अभी भी जारी
बोकारो इस्पात संयंत्र निर्माण शुरू होने से पहले 1956 में ही भूमि अधिग्रहण का नोटिस जारी हुआ. 15,685 हेक्टेयर जमीन अधिकृत हुई. 1968 में तत्कालीन बिहार सरकार के मुख्य सचिव अरूप कुमार बसु ने बीएसएल के पास सरप्लस जमीन होने का दावा किया. 2,954 हेक्टेयर सरप्लस जमीन बीएसएल के पास थी. जमीन ग्रामीणों को वापस देने की बात उस समय उठायी गयी. लेकिन बीएसएल ने विस्तारीकरण के नाम पर जमीन वापस नहीं की.
ग्रामीण को जमीन के बदले मुआवजा की समुचित राशि भी नहीं मिली थी. 1982 में स्व.विनोद बिहारी महतो मुआवजे के मामला को लेकर कोर्ट गये. कई मामले वर्तमान में भी कोर्ट में चल रहे हैं. ग्रामीणों की जमीन भी चली गयी और मुआवजा भी नहीं मिला.
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विधानसभा में कई बार उठ चुका है मामला
उत्तरी क्षेत्र के विस्थापित गांवों को पंचायत में शामिल करने की मांग सड़क से सदन तक पहुंचा है. विस्थापित संगठन सैंकड़ों बार धरना-प्रदर्शन, अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों के साथ पत्राचार कर चुके हैं. विधानसभा में भी मामला कई बार उठा है. बोकारो विधायक बिरंची नारायण ने बताया कि इस संबंध में सदन में कई बार सवाल उठाता रहा हूं. 2019 में इस संबंध में बोकारो डीसी के साथ बैठक हुई थी. कुछ मामलों में सकारात्मक पहल भी हुई थी. इस सत्र में फिर से मामले को सदन पटल पर रखा जायेगा.
इधर, विस्थापित लोगों की मानें तो प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन व पंचायती राज मंत्री आलमगीर आलम से भी इस दिशा में पहल की मांग की जा रही है. बोकारो जिला कांग्रेस अध्यक्ष मंजूर अंसारी इस मुद्दे पर लगातार मंत्री और मुख्यमंत्री से मिल रहे हैं. राजनीतिक स्तर विस्थापित ग्रामीणों का मानना है कि सिर्फ इच्छा शक्ति की कमी के कारण 19 गांवों का मामला अधर में लटका हुआ है. जिस आधार पर 2002 में 40 से ज्यादा विस्थापित गांवों को पंचायत में शामिल किया गया था, उसी आधार पर इन 19 गांवों को भी शामिल किया जा सकता है.
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