alt="" width="150" height="150" />DR. Pramod Pathak पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सफलता और विपक्ष की विफलता का असर दो साल बाद होने वाले अगले लोकसभा चुनावों पर देखना कितना सही है, यह तो भविष्य के गर्भ में छुपा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी आधार पर 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का एलान कर दिया और भारतीय जनता पार्टी ने इस पर पुष्टि की मुहर लगा दी. वैसे आम आदमी पार्टी ने भी अपने को राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखना शुरू कर दिया है और बंगाल से लेकर तेलंगाना तक घुसपैठ की कवायद में जुटी है. अब यह भविष्यवाणियां या प्रयास कितने कारगर होंगे यह तो समय बताएगा लेकिन भारतीय जनता पार्टी का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर है. आप संयत है: इस मामले में आम आदमी पार्टी थोड़ा ज्यादा संयत दिख रही है और अरविंद केजरीवाल कम से कम अगली केंद्रीय सरकार बनाने की बात नहीं कर रहे हैं. अतः हम फिलहाल भारतीय जनता पार्टी द्वारा किए गए दावे पर ही चर्चा सीमित रखेंगे. राजनीति के बारे में एक पुरानी कहावत है कि राजनीति में एक हफ्ते का अरसा भी काफी लंबा होता है. फिर यहां तो दो वर्ष से ज्यादा समय बाकी है लोकसभा के अगले चुनाव होने में. तो क्या यह भविष्यवाणी गम्भीर और तथ्यपरक है या एक सोची- समझी रणनीति का हिस्सा? मार्केटिंग में बीजेपी : राजनीति में मार्केटिंग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसमें संशय नहीं. और यह आदिकाल से होता रहा है. हां, राजनीति में मार्केटिंग का तरीका बदल गया है. प्रचार के ढंग बदल गए हैं. डिजिटल और सोशल मीडिया के दौर में तकनीकि काफी महत्वपूर्ण हो गया है. कहने की आवश्यकता नहीं कि इस मामले में भारतीय जनता पार्टी अन्य सभी दलों से आगे है. उसके पास तकनीकि मानव संसाधन की एक प्रशिक्षित फौज है जो डिजिटल मार्केटिंग के जरिए सोशल मीडिया के माध्यम से मतदाता व्यवहार को काफी हद तक प्रभावित करने की कला में पारंगत है. सब्लिमिनल तकनीकि : मार्केटिंग की एक बड़ी प्रभावी रणनीति है, जिसे सब्लिमिनल तकनीकि कहते हैं. सब्लिमिनल यानी अचेतन को प्रभावित करने की कला. मतदाता मानस को सूचना के शक्तिशाली प्रवाह के जरिए प्रभावित करना. इसे मनोविज्ञान की भाषा में सजेशन भी कहते हैं. भारतीय मतदाता इस सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में सूचना के तेज प्रवाह से पूरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं और उनके चेतन मन पर अचेतन हावी हो रहा है. इस प्रकार तर्कशक्ति का प्रभाव कम हो जाता है. यही तकनीकि उपभोक्ता उत्पाद को बेचने के लिए बड़े - बड़े उपभोक्ता उत्पाद के उत्पादक इस्तेमाल करते हैं और उपभोक्ता मानस को अपने उत्पादों को खरीदने के लिए तैयार करते हैं. राजनीति में मार्केटिंग : टेलीविजन कमर्शियल में किए जा रहे प्रचार के जरिए वह उत्पाद भी बेच दिए जाते हैं, जिसकी उपभोक्ता को आवश्यकता नहीं होती. और इसमें बड़े नामों का इस्तेमाल विश्वसनीयता लाता है. सिने कलाकार एवं बड़े खिलाड़ी इसके लिए अनुबंधित किए जाते हैं. राजनीति में इस मार्केटिंग का इस्तेमाल बहुत पुराना नहीं है, लेकिन भाजपा ने बहुत कारगर तरीके से इसका प्रयोग किया है. यह दावा कि इस बार के विधानसभा चुनाव के नतीजे अगली लोकसभा चुनाव, जो कि दो साल बाद होने हैं, की झांकी है, इसी मार्केटिंग का उदाहरण है. जो जीत रहा हो : चुनाव विशेषज्ञों के अनुसार मतदाता का एक बड़ा वर्ग उसे वोट करना चाहता है, जो जीत रहा हो. यह वर्ग घटता- बढ़ता रहता है. इसी वर्ग को प्रभावित करने की यह रणनीति है. मजे की बात है कि इस दावे को उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों से जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है. दरअसल, विपक्षी दलों ने उत्तर प्रदेश चुनावों को 2024 लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया था. लेकिन क्योंकि उन्हें आशातीत सफलता नहीं मिली, इसलिए भाजपा ने इसका बुद्धिमता पूर्ण इस्तेमाल कर लिया. ओवैसी की भूमिका : मगर उत्तर प्रदेश चुनाव का अगर बहुत ही वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया जाए तो हम यह पाएंगे कि भाजपा इसे जितना बढ़ा- चढ़ाकर प्रस्तुत कर रही है, यह उससे अलग है. सच्चाई यह है कि समाजवादी पार्टी की सीटें दोगुना से ज्यादा बढ़ गई और भाजपा को काफी सीटों का नुकसान हुआ. इसका एक और भी पक्ष है कि कोई 50 के करीब सीटें ऐसी हैं , जहां भाजपा 5000 से कम वोटों से जीती है. और इस जीत हार में ओवैसी की पार्टी ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. राजनीति का जहां तक सवाल है, तो वहां अंकगणित नहीं बीजगणित चलता है इसलिए सीधे तौर पर नतीजों को समझना शायद ठीक ना हो. न जेपी न वीपी : रहा सवाल इस बात का कि दो साल बाद क्या होगा, तो इसके लिए यदि हम इतना ही समझ लें कि जिस कांग्रेस को 84 के लोकसभा चुनाव में 415 सीटें मिली थी उसे 89 में 195 सीटों से सब्र करना पड़ा था तो काफी है. थोड़ा और पीछे जाए तो सन 77 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पूरे हिंदी भाषी क्षेत्र से सिर्फ एक सीट मिली थी. मगर ढाई साल में ही स्थिति पलट गई. यह ठीक है कि आज ना तो जयप्रकाश नारायण जैसा कोई व्यक्तित्व है और ना ही वीपी सिंह जैसा कोई जुझारू नेता. और न इमरजेंसी या बोफोर्स जैसा कोई मुद्दा. मगर यह ध्यान देना होगा कि इमरजेंसी दो साल में ही मुद्दा बना था और बोफोर्स भी. और हां, मुद्दे बनाये जाते हैं. यह भी जान लेना होगा कि विपक्षी एकता और सत्ताधारी दल का विकल्प उस समय भी स्पष्ट नहीं दिखा था. विकल्प तो कांग्रेस है : मतदाता असंतोष कब और कैसे कहर ढाएगा यह बताना टेढ़ी खीर है. लेकिन दो बातें विपक्ष को समझ लेनी बहुत जरूरी है. पहली कि राष्ट्रीय स्तर पर आज भी भाजपा का विकल्प यदि कोई बन सकता है तो वह सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस है. आज भी दुर्दशा के दिनों में कांग्रेस के पास देश भर में करीब 700 विधायक हैं और अपने उफान के दौरान भी भाजपा के पास 14 सौ. कार्यशैली बदलनी होगी : सबसे जरूरी है, कांग्रेस के लिए यह समझना कि उसे खुद को अब भाजपा का विकल्प साबित करना होगा. इसके लिए कार्यशैली बदलनी होगी. कांग्रेस को सुनने की आदत डालनी होगी. अपनी पुरानी पहचान फिर से बनानी होगी. चुके हुए लोगों को बदल कर मंजे हुए लोगों को लाना होगा. कारपोरेट कल्चर बदलकर पॉलीटिकल कल्चर स्थापित करना होगा. कुछ नए तेवर के लोगों को ढूंढना होगा. और सबसे जरूरी बात यह है कि यह अंतिम मौका है. { लेखक स्तंभकार और आई आई टी -आई एस एम, धनबाद के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं } [wpse_comments_template]
22 का रिजल्ट 24 में, यह दावा नहीं आसान
alt="" width="150" height="150" />DR. Pramod Pathak पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सफलता और विपक्ष की विफलता का असर दो साल बाद होने वाले अगले लोकसभा चुनावों पर देखना कितना सही है, यह तो भविष्य के गर्भ में छुपा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी आधार पर 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का एलान कर दिया और भारतीय जनता पार्टी ने इस पर पुष्टि की मुहर लगा दी. वैसे आम आदमी पार्टी ने भी अपने को राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखना शुरू कर दिया है और बंगाल से लेकर तेलंगाना तक घुसपैठ की कवायद में जुटी है. अब यह भविष्यवाणियां या प्रयास कितने कारगर होंगे यह तो समय बताएगा लेकिन भारतीय जनता पार्टी का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर है. आप संयत है: इस मामले में आम आदमी पार्टी थोड़ा ज्यादा संयत दिख रही है और अरविंद केजरीवाल कम से कम अगली केंद्रीय सरकार बनाने की बात नहीं कर रहे हैं. अतः हम फिलहाल भारतीय जनता पार्टी द्वारा किए गए दावे पर ही चर्चा सीमित रखेंगे. राजनीति के बारे में एक पुरानी कहावत है कि राजनीति में एक हफ्ते का अरसा भी काफी लंबा होता है. फिर यहां तो दो वर्ष से ज्यादा समय बाकी है लोकसभा के अगले चुनाव होने में. तो क्या यह भविष्यवाणी गम्भीर और तथ्यपरक है या एक सोची- समझी रणनीति का हिस्सा? मार्केटिंग में बीजेपी : राजनीति में मार्केटिंग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसमें संशय नहीं. और यह आदिकाल से होता रहा है. हां, राजनीति में मार्केटिंग का तरीका बदल गया है. प्रचार के ढंग बदल गए हैं. डिजिटल और सोशल मीडिया के दौर में तकनीकि काफी महत्वपूर्ण हो गया है. कहने की आवश्यकता नहीं कि इस मामले में भारतीय जनता पार्टी अन्य सभी दलों से आगे है. उसके पास तकनीकि मानव संसाधन की एक प्रशिक्षित फौज है जो डिजिटल मार्केटिंग के जरिए सोशल मीडिया के माध्यम से मतदाता व्यवहार को काफी हद तक प्रभावित करने की कला में पारंगत है. सब्लिमिनल तकनीकि : मार्केटिंग की एक बड़ी प्रभावी रणनीति है, जिसे सब्लिमिनल तकनीकि कहते हैं. सब्लिमिनल यानी अचेतन को प्रभावित करने की कला. मतदाता मानस को सूचना के शक्तिशाली प्रवाह के जरिए प्रभावित करना. इसे मनोविज्ञान की भाषा में सजेशन भी कहते हैं. भारतीय मतदाता इस सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में सूचना के तेज प्रवाह से पूरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं और उनके चेतन मन पर अचेतन हावी हो रहा है. इस प्रकार तर्कशक्ति का प्रभाव कम हो जाता है. यही तकनीकि उपभोक्ता उत्पाद को बेचने के लिए बड़े - बड़े उपभोक्ता उत्पाद के उत्पादक इस्तेमाल करते हैं और उपभोक्ता मानस को अपने उत्पादों को खरीदने के लिए तैयार करते हैं. राजनीति में मार्केटिंग : टेलीविजन कमर्शियल में किए जा रहे प्रचार के जरिए वह उत्पाद भी बेच दिए जाते हैं, जिसकी उपभोक्ता को आवश्यकता नहीं होती. और इसमें बड़े नामों का इस्तेमाल विश्वसनीयता लाता है. सिने कलाकार एवं बड़े खिलाड़ी इसके लिए अनुबंधित किए जाते हैं. राजनीति में इस मार्केटिंग का इस्तेमाल बहुत पुराना नहीं है, लेकिन भाजपा ने बहुत कारगर तरीके से इसका प्रयोग किया है. यह दावा कि इस बार के विधानसभा चुनाव के नतीजे अगली लोकसभा चुनाव, जो कि दो साल बाद होने हैं, की झांकी है, इसी मार्केटिंग का उदाहरण है. जो जीत रहा हो : चुनाव विशेषज्ञों के अनुसार मतदाता का एक बड़ा वर्ग उसे वोट करना चाहता है, जो जीत रहा हो. यह वर्ग घटता- बढ़ता रहता है. इसी वर्ग को प्रभावित करने की यह रणनीति है. मजे की बात है कि इस दावे को उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों से जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है. दरअसल, विपक्षी दलों ने उत्तर प्रदेश चुनावों को 2024 लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया था. लेकिन क्योंकि उन्हें आशातीत सफलता नहीं मिली, इसलिए भाजपा ने इसका बुद्धिमता पूर्ण इस्तेमाल कर लिया. ओवैसी की भूमिका : मगर उत्तर प्रदेश चुनाव का अगर बहुत ही वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया जाए तो हम यह पाएंगे कि भाजपा इसे जितना बढ़ा- चढ़ाकर प्रस्तुत कर रही है, यह उससे अलग है. सच्चाई यह है कि समाजवादी पार्टी की सीटें दोगुना से ज्यादा बढ़ गई और भाजपा को काफी सीटों का नुकसान हुआ. इसका एक और भी पक्ष है कि कोई 50 के करीब सीटें ऐसी हैं , जहां भाजपा 5000 से कम वोटों से जीती है. और इस जीत हार में ओवैसी की पार्टी ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. राजनीति का जहां तक सवाल है, तो वहां अंकगणित नहीं बीजगणित चलता है इसलिए सीधे तौर पर नतीजों को समझना शायद ठीक ना हो. न जेपी न वीपी : रहा सवाल इस बात का कि दो साल बाद क्या होगा, तो इसके लिए यदि हम इतना ही समझ लें कि जिस कांग्रेस को 84 के लोकसभा चुनाव में 415 सीटें मिली थी उसे 89 में 195 सीटों से सब्र करना पड़ा था तो काफी है. थोड़ा और पीछे जाए तो सन 77 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पूरे हिंदी भाषी क्षेत्र से सिर्फ एक सीट मिली थी. मगर ढाई साल में ही स्थिति पलट गई. यह ठीक है कि आज ना तो जयप्रकाश नारायण जैसा कोई व्यक्तित्व है और ना ही वीपी सिंह जैसा कोई जुझारू नेता. और न इमरजेंसी या बोफोर्स जैसा कोई मुद्दा. मगर यह ध्यान देना होगा कि इमरजेंसी दो साल में ही मुद्दा बना था और बोफोर्स भी. और हां, मुद्दे बनाये जाते हैं. यह भी जान लेना होगा कि विपक्षी एकता और सत्ताधारी दल का विकल्प उस समय भी स्पष्ट नहीं दिखा था. विकल्प तो कांग्रेस है : मतदाता असंतोष कब और कैसे कहर ढाएगा यह बताना टेढ़ी खीर है. लेकिन दो बातें विपक्ष को समझ लेनी बहुत जरूरी है. पहली कि राष्ट्रीय स्तर पर आज भी भाजपा का विकल्प यदि कोई बन सकता है तो वह सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस है. आज भी दुर्दशा के दिनों में कांग्रेस के पास देश भर में करीब 700 विधायक हैं और अपने उफान के दौरान भी भाजपा के पास 14 सौ. कार्यशैली बदलनी होगी : सबसे जरूरी है, कांग्रेस के लिए यह समझना कि उसे खुद को अब भाजपा का विकल्प साबित करना होगा. इसके लिए कार्यशैली बदलनी होगी. कांग्रेस को सुनने की आदत डालनी होगी. अपनी पुरानी पहचान फिर से बनानी होगी. चुके हुए लोगों को बदल कर मंजे हुए लोगों को लाना होगा. कारपोरेट कल्चर बदलकर पॉलीटिकल कल्चर स्थापित करना होगा. कुछ नए तेवर के लोगों को ढूंढना होगा. और सबसे जरूरी बात यह है कि यह अंतिम मौका है. { लेखक स्तंभकार और आई आई टी -आई एस एम, धनबाद के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं } [wpse_comments_template]

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