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मेला उजड़ने के बाद

Ratan Verma
भारत पहुंच गयी है श्रद्धा. पूरे सात वर्ष बाद. एक लंबे अंतराल के बाद श्रद्धा की मुलाक़ात मां-बाबूजी और सगे-सम्बन्धियों से हुई है. मां- बाबूजी बूढ़े दिखने लगे हैं. कमज़ोर से भी. सभी से मिलकर मन बिछुड़न की कचोट से भर उठा है उसका. मां से जी भर कर सुख-दुख बतियाती रही है. आज श्रद्धा के उत्साह का कोई ओर-छोर नहीं है. जैसे शादी उसके छोटे भाई की नहीं, बल्कि उसके कोख जने बेटे की हो. श्रद्धा की सिर्फ दो बेटियां हैं. दोनों बेटियां , पति शेखर और समीर उर्फ जॉली भी साथ आया है. जॉली, यानी वही भाई, जिसकी शादी होनी है. श्रद्धा की कोशिशों से भाई जॉली अमेरिका पहुंच गया था और अच्छी नौकरी भी पा ली थी, पर श्रद्धा के लिए न्यूयॉर्क प्रवास, जीवन - यापन तक तो ठीक था, पर वहां रहते हुए अपनी संस्कृति का निर्वाह करते रहना अहम बात. उसे उन भारतीयों से सख़्त नफ़रत है, जिनके पैर विदेश की धरती से टिके नहीं कि अपनी संस्कृति को ताक पर रख पूरी तरह विदेशी संस्कृति की रखैल बनकर रह जाते हैं. यही वज़ह है कि उसने जॉली की शादी भारत में, तय करवायी कि क्या पता, जॉली खूबसूरत और आकर्षक तो है ही, कहीं किसी अमेरिकन लड़की के जाल में फंस गया, तो श्रद्धा की साध धरी की धरी ही रह जाएगी.
जब श्रद्धा का ब्याह हुआ था, तब समीर बहुत छोटा था. उसकी मां तो घर-गृहस्थी के काम में ही उलझी रहा करती थीं. इसलिये श्रद्धा ही मां बनकर उसकी देखभाल करती रही थी शादी से पूर्व. श्रद्धा की शादी का भी एक अलग ही किस्सा है. यह तो उस सामान्य से आय वाले परिवार की सोच से भी परे की बात थी कि श्रद्धा का ब्याह न्यूयॉर्क में इंजीनियर के पद पर कार्यरत किसी सम्पन्न लड़के से भी हो सकता है. मगर होनी को भी भला कोई अंगूठा दिखा सकता है ? उन दिनों शेखर भारत आया हुआ था. एक दिन अपने ही घर में उसने श्रद्धा को अपनी मां से बातचीत करते देखा था. चूंकि श्रद्धा सपरिवार शेखर के पड़ोस में ही रहती थी, इसलिए उसका या उसकी मां का अक्सर उसके घर आना जाना लगा रहता था. शेखर को श्रद्धा पसन्द आ गयी थी, सो निःसंकोच उसने अपने मन की बात मां को बता दी. फिर क्या था-- चट मंगनी और पट शादी. दहेज में शेखर ने कुछ नहीं लिया था. फिर भी श्रद्धा के बाबूजी ने शादी में हैसियत से बढ़कर खर्च किया था. ख़ैर, नन्हें समीर की जुदाई की टीस अंतस में समेटे, शादी के लगभग एक वर्ष बाद न्यूयॉर्क चली गयी थी वह. इतना समय पासपोर्ट-वीसा आदि की औपचारिकता में ही लग गया था.
घर में चारों तरफ शादी की चहल -पहल का माहौल है. और श्रद्धा ? उसकी तो पूछिए ही मत. हाथ में नोटों से भरे वैनिटी बैग को लिए एक पैर पर तितली सरीखी इधर से उधर फुदकती फिर रही है . खाने-पीने का ठीक से इंतज़ाम हो रहा है या नहीं? सारे अतिथियों के रहने -सोने की व्यवस्था कोई देख रहा है या नहीं ? या फिर ` नौह छू ` में जिन-जिन रिश्तेदारों को कपड़े देने हैं, उन कपड़ों को सलीके से रैप करवाकर उनपर नाम लिखे जा चुके हैं या अभी और भी कुछ नाम छूट तो नहीं रहे ? जैसे शादी की सारी जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ उसी की हो. वैसे हो भी क्यों न भला--- जबसे समीर पैदा हुआ था, उसकी लगभग सारी जिम्मेवारी तो उसने ही सम्भाली थी.
शादी के बाद भी उसकी पढ़ाई के लिये वह अलग से पैसे भेजा करती थी. भेजना तो अपने मां- बाबूजी को भी चाहती थी, पर बाबूजी की खुद्दारी के सामने उसका एक वश नहीं चलता रहा था. श्रद्धा के और भी दो भाई हैं, जो अब अपने पैरों पर खड़े हैं और मां - बाबूजी की जिम्मेवारी अच्छे से निभा रहे हैं. अमेरिका जाने के बाद से ही श्रध्दा की इच्छा रही थी कि जॉली आगे चल करअगर होटल मैनेजमेंट और कम्प्यूटर की शिक्षा ले -ले तो वह उसे अपने साथ ही ले जाएगी. वहां, न्यूयॉर्क में ऐसे शिक्षा प्राप्त लोगों को आसानी से नौकरी मिल जाती है. और जॉली ने भी दीदी की इच्छा का भरपूर सम्मान रखा था. होटल मैनेजमेंट और कम्प्यूटर, दोनों में ही मास्टरी हासिल कर ली थी उसने.
ढोल और झाल आदि वाद्ययंत्रों पर महिलाओं के गीत अपने चरम पर हैं. श्रद्धा भी घूमती-घामती वहां पहुंच गयी है. फिर बिना किसी के आग्रह पर लगी है वह कमर लचका-लचका कर नाचने. एक बात तो है... कि अगर कोई अनाड़ी स्त्री बरबस ही माहौल के आकर्षण में नाच उठती है, तो किसी प्रशिक्षित नाचने वाली से अधिक आकर्षक दिखने लगती है. श्रद्धा की नज़र नाचते हुए ही पास खड़ी ताली बजा रहीं मां पर पड़ती है. उसे शरारत सूझती है. मां को जबरन खींचकर उसे भी कमर मटकाने को मजबूर कर देती है. फिर तो गाती हुई. औरतों का समवेत ठहाका वहां गूंज उठता है और मां लजाती हुई वहां से भाग खड़ी होती हैं.
पिछली बार ! ... सात वर्ष पूर्व जब श्रद्धा आयी थी और कुछ दिनों के भारत प्रवास के बाद न्यूयॉर्क वापस लौटने को हुई थी , मन में भीषण टीस और कचोट लेकर ही वापस लौट पायी थी कि मां का ऐसा स्नेहिल सान्निध्य, ऐसा वात्सल्य पता नहीं फिर कब नसीब हो ... आज उसी मां को अपनी भरपूर नजरों से देख रही है वह. अपनी उल्लसित मां को... बेटे की शादी में नाच रही मां को.... यह देखकर श्रद्धा का मन भर आया है.
बैंड बाजे की धुन पर नाचती - थिरकती बारात लड़की वाले के दरवाजे पर पहुंच चुकी है. नाचने वालों में श्रद्धा भी शामिल है. कुछ छोकरे - छोकरियां तो पहले से ही शामिल हैं. नाचने के साथ - साथ श्रद्धा बैंड वालों के बीच दिल खोलकर रुपए भी लुटा रही है. लड़की वालों के यहां से विदाई की औपचारिकताएं पूरी कर दूल्हा - दुल्हन बाराती समेत घर लौट आए हैं. अब सुहागकक्ष के दरवाजे पर दूल्हे की बहनों का जमघट है. दूल्हा तभी सुहागकक्ष में प्रवेश पा सकता है, जब वह बहनों को द्वार-छेकाई की नेग अदा करेगा. यहां एक अजीब हालात है . नेग के रुपये श्रद्धा को ही देने हैं और वह स्वयं ही अन्य लड़कियों के साथ द्वार छेक कर भी खड़ी है. थोड़ी हील -हुज़्ज़त के बाद श्रद्धा अपने बैग से रुपये निकाल कर सारी बहनों को देती है और उतने ही रुपये ख़ुद भी बैग से निकाल कर बैग के दूसरे पॉकेट की चेन के अंदर क़ैद कर लेती है.
रात आधी से अधिक बीत चुकी है. सारे मेहमान खा - पीकर सो चुके हैं. पूरी तरह सन्नाटा है. मेला उजड़ने के बाद वाला सन्नाटा. दूल्हा -दुल्हन सुहागकक्ष में अपने जीवन के सर्वाधिक रोमांचक क्षणों को करीने से संवारने में जुटे होंगे-- दीन - दुनिया से पूरी तरह बेख़बर. और श्रद्धा ? कई दिनों की थकावट के बावज़ूद उसकी आंखों में नींद का कतरा नहीं. ढेर सारे संस्मरण, ढेर सारी पीड़ाओं ने उसके अंतस को अपनी गिरफ्त में ले रखा है. मां का झुर्रियों भरा चेहरा बार बार उसकी आंखों के आगे उभर आ रहा है. श्रद्धा के बाल संवारते हाथों वाला चेहरा ... श्रद्धा की शादी के बाद विदाई के समय उसके ललाट पर चुम्बन अंकित करता चेहरा.. रोता -बिलखता, आंसुओं से तर चेहरा...और बाबू जी ? उनके भी चेहरे पर तो झुर्रियों का सैलाब सा उमड़ आया है. जाने फिर कब उनका चेहरा देख पाना नसीब हो पायेगा ?... सगे-सम्बन्धियों के स्नेहिल संबोधन --- ` श्रद्धा ` का आत्मीय धुन उसके कानों में कब मिश्री सा घोलेगा ? थका हारा शेखर बेसुध सा श्रद्धा के बगल में खर्राटें भर रहा है. आज चौबीस तारीख है. सत्ताईस को शेखर और बेटियों के साथ उसे न्यूयॉर्क लौट जाना है. शेखर उसका पति है.अपने पति के अधीन है श्रद्धा --- पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं.
क्या अब सिर्फ दो दिनों की खुली आंखों का सपना शेष है ? सोच रही है श्रद्धा. अचानक उसकी आंखों के आगे फिर से मां का झुर्रियों भरा चेहरा उभर आया है. श्रद्धा का मन बुरी तरह पीड़ा भरे कचोट से भर उठता है. और आंखें उमड़ पड़ने को बेताब. इसके साथ ही फफक पड़ी है वह. रोती ही जा रही है. थका हारा शेखर पूर्ववत ही गहरी नींद में लीन है. श्रद्धा की फफक की आवाज़ उसके कानों को स्पर्श तक नहीं कर पा रही. मेला उजड़ जाने के बाद का सन्नाटा शेखर को तो सुकून ही दे रहा है. लेकिन यह श्रद्धा ही समझ रही है कि मेला उजड़ जाने के बाद का सन्नाटा कितना पीड़ादायक होता है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.

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