Search

18वें आम चुनाव के ‘अग्नि-वीर’

Shyam Kishore Choubey 18वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव और उसके बाद मंत्रिमंडल का गठन हो जाने के बावजूद चुनाव की खुमारियां शेष हैं. लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री चुने जाने के कारण नरेंद्र मोदी ने पं. जवाहरलाल नेहरू की बराबरी कर ली है, लेकिन कुछ सवाल फिजां में तैर रहे हैं. 370 से अधिक सीटें जीतने का दावा करने और एक्जिट पोल में उस दावे की तस्दीक करने के बावजूद भाजपा 240 पर क्यों सिमट गई? सात चरणों में हुए इस चुनाव के चौथे चरण के बाद भाजपा प्रमुख जेपी नड्डा का इंटरव्यू हो कि सरकार गठन के दूसरे दिन 10 जून को संघ प्रमुख मोहन भागवत का नागपुर में संघ कार्यकर्ताओं के विकास वर्ग कार्यक्रम के समापन पर संबोधन, सत्ता ही नहीं, देश के स्तर पर बड़ा सवाल है. नड्डा ने एक अंग्रेजी अखबार को दिये इंटरव्यू में कहा था, ‘अब बीजेपी की संरचना मजबूत हो गई है. अब भाजपा अपने भरोसे चल रही है. वाजपेयी के समय में पार्टी को खुद को चलाने के लिए आरएसएस की जरूरत थी, क्योंकि उस समय बीजेपी कम सक्षम और छोटी पार्टी हुआ करती थी. आज हम बढ़ गये हैं. पहले से अधिक सक्षम हैं. बीजेपी अब अपने आप को चलाती है. आरएसएस एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन है, जबकि भाजपा एक राजनीतिक दल है’. उधर भागवत ने आगाह किया, ‘एक साल से मणिपुर शांति की राह देख रहा है. इसके पहले दस साल शांत रहा और अब अचानक जो कलह वहां उपजी या उपजाई गई, उसकी आग में मणिपुर अभी तक जल रहा है. इस पर कौन ध्यान देगा’? संघ प्रमुख ने मार्के की बात यह भी कही, ‘सहमति से देश चलाने की परंपरा का सभी स्मरण रखें. इस बार चुनाव ऐसे लड़ा गया, जैसे युद्ध हो. संसद में दो पक्ष जरूरी हैं. देश चलाने के लिए सहमति जरूरी है. विपक्ष को विरोधी पक्ष की जगह मैं प्रतिपक्ष कहना उचित समझता हूं’. सवाल यह भी है कि मोहन भागवत को मणिपुर की याद ऐसे मौके पर क्यों आई? उन्होंने यह सवाल किस पर उठाया, डबल इंजन की सरकार पर, मोदी पर या अमित शाह पर? ऐसे सवालों के जवाब न तो अबूझ हैं, न ही उन सात अंधों की तरह हैं जो हाथी को छूकर अपने-अपने ढंग से उसकी परिभाषा बता रहे थे. देश इन बातों को समझता है. भाजपा 2019 के मुकाबले इस बार 303 से घटकर 242 सांसदों पर आ गई. उसने चुनाव पूर्व के गठबंधन के भरोसे सरकार बना ली. डबल इंजन वाले उत्तर प्रदेश में तो ऐसा लगा, जैसे उसके विरूद्ध प्रचंड लहर हो. राष्ट्रीय स्तर पर हुई क्षति के अनुरूप उसको झारखंड में भी नुकसान उठाना पड़ा. वह 11 सीटों से खिसककर आठ सीटों की जीत पर आ गई. यह बहुत बड़ी क्षति न होकर भी चिंता का विषय तो है ही. वह इस राज्य की सुरक्षित सभी पांच जनजातीय सीटों पर हार गई, तब जबकि जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा इसी राज्य के थे, तब जबकि जनजातीय समाज में पैठ बढ़ाने की नीयत से वह बाबूलाल मरांडी को जेवीएम से ले आई थी और पार्टी का प्रान्तीय अध्यक्ष बना दिया था, और तब जबकि देश भर के जनजातीय समाज को आकर्षित करने के लिए उसने कई योजनाओं की घोषणा इस राज्य से की थी. शायद वह भूल गई कि योजनाएं हमेशा चुनावी जीत का सबब नहीं हुआ करतीं. भाजपा बड़े हौसले से कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा और झामुमो विधायक सीता सोरेन को तोड़कर लाई थी, लेकिन दोनों हार गईं. अब गीता-सीता का क्या होगा? एक इन्स्टैंट जवाब होगा, शायद उनको पांच महीने बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में आजमाया जाय. शायद अर्जुन मुंडा का भी यही हश्र हो. शायद नहीं भी हो. अब की सक्षम भाजपा कुछ भी कर सकती है. मोदी हैं तो मुमकिन है. चुनावों में जीत-हार लगी रहती है. इससे अलग कुछ परिस्थितियां कुछ विशेष कहानियां कहा करती हैं. कहानियां बनती ही हैं सीख लेने के लिए. झारखंड की नई राजनीतिक कहानी यह कि स्थानीयता और क्षेत्रीय भाषा के मसले पर गठित नए संगठन झारखंडी भाषा खतियानी संघर्ष समिति ने दमदार उपस्थिति दर्ज कराई. हजारीबाग से खड़े संजय कुमार मेहता ने 1,57,977 वोट हासिल किया. रांची से देवेंद्र नाथ महतो को 1,32,643 मत मिले. गिरिडीह में जयराम महतो को 3,47,322 वोट मिले. कोडरमा से मनोज कुमार 28,612 वोट जुटा सके. सिंहभूम सीट पर दामोदर सिंह हांसदा 44,292 मत ले आये. धनबाद में अखलाक अहमद 79,653 मतों पर रहे. दुमका की प्रत्याशी बेबीलता टुडू 19,360 वोट पा गईं. चतरा सीट पर दीपक गुप्ता को 12,566 मत मिले. बेबीलता टुडू और दीपक गुप्ता को छोड़ दिया जाय तो बाकी छह प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहे. इस तीसरे स्थान ने कहीं-कहीं उपविजेता का खेल बिगाड़ा. खासकर हजारीबाग, रांची, गिरिडीह जैसे कुड़मी बहुल इलाकों में इनको पर्याप्त वोट मिले. राज्य की कई विधानसभा सीटों पर वे आनेवाले चुनाव में बड़ा खेल कर सकते हैं. यह चुनौती उन दलों/प्रत्याशियों के लिए खूब मायने रखती है, जो जातीय राजनीति किया करते हैं. बीता लोकसभा चुनाव गवाह है, ‘जाति-पाति पूछै नहीं कोई’ को तालाबंद कर भारतीय राजनीति में जाति-पाति को ही प्रमुखता दी गई. सभी दल खुलकर जातीय कार्ड खेलते रहे. इस चुनाव ने बता दिया कि कम आबादीवाली जातियां अपना रास्ता तलाश लें, सियासत उनकी बहुत फिक्र नहीं करनेवाली. जब किसी भी सूरत में चुनाव जीतने की मंशा बना ली जाय तो ऐसा ही होता है. इकबाल कह गये हैं- जम्हूरियत इक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें बंदों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.

Comments

Leave a Comment

Follow us on WhatsApp