
बूढ़े बदूईन का सचेत करने वाला किस्सा

Ajay Kumar भारत में पुलिस अधिकारियों और अन्य सुरक्षा कर्मियों को प्रशिक्षित करने वाले कई संस्थान हैं. इन प्रशिक्षण संस्थानों के गलियारों में एक छोटी सी कहानी बेहद लोकप्रिय है. यह कहानी एक बूढ़े बदूईन की है, जिसके पास बड़ी संख्या में घोड़े, मुर्गियां तथा अन्य मवेशी और जानवर थे. ‘बदू’ या ‘बदूईन’ अरब के रेगिस्तानों में पारम्परिक रूप से खानाबदोश जीवन व्यतीत करने वाले कबीलों का समूह हैं. इस कबीले के सदस्यों को ‘बदूईन’ कहा जाता है. इस कहानी के अनुसार, एक रात जब वह बूढ़ा बदूईन गहरी नींद में था, किसी ने उसके मुर्गी चुरा ली. अगली सुबह जब उसने गिनती के क्रम में एक मुर्गी को कम पाया तो उसने अपने कर्मचारियों तथा साथी बदूईनों को बुलाकर मुर्गी चोर का पता लगाने के लिए कहा. चूंकि उस बूढ़े बदूईन के पास सैकड़ों मुर्गियां और अन्य मवेशी थे, इसलिए उसके साथियों और कर्मचारियों को घोर आश्चर्य हुआ कि बूढ़ा बदूईन सिर्फ एक मुर्गी की चोरी से इतना परेशान क्यों है. उन्हें लगा कि बूढ़ा बदूईन सठिया गया है. जाहिर तौर पर वे अपने आधे मन से किये गये प्रयास की वजह से चोर को खोज नहीं पाये और जल्दी ही हार मान ली. लेकिन, कुछ ही हप्तों बाद उनके मवेशीखानों में चोरी की घटनायें अचानक बढ़ गयीं. चोर अब मुर्गियों के अलावा घोड़ों और दूसरे मवेशियों को भी निशाना बनाने लगे. अब घबराए हुए बदूईन फिर से बूढ़े बदूईन के पास गए. उत्तर में बूढ़े बदूईन ने अपना पुराना परामर्श दोहरा दिया- “मुर्गी चोर का पता लगायें.” इस कहानी का सन्देश काफी सरल है. यह कहानी छोटे से छोटे अपराध को नजरअंदाज नहीं करने तथा उन्हें गंभीरता से लेने की शिक्षा देती है, क्योंकि छोटे अपराध ही भविष्य में बड़े अपराधों की भूमिका तैयार करते हैं. छोटे अपराधों को भी गंभीरता से लेने का यह सिद्धांत जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में अनुकरणीय है. इसी संदर्भ में मैं अपने इस सप्ताह के लेख में सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देशों पर चर्चा करना चाहता हूं. सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्देश पुलिस थानों में सीसीटीवी लगाने तथा ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग से संबंधित है. सुप्रीम कोर्ट ने इन निर्देशों के माध्यम से पुलिस हिरासत में यातना को रोकने के उद्देश्य से देशभर के पुलिस स्टेशनों के अलावा केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI), प्रवर्तन निदेशालय (ED), राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) के कार्यालयों में CCTV कैमरे लगाने का आदेश दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने इसी प्रकार का एक निर्देश वर्ष 2018 में भी दिया था तथा एक समय निर्धारित करते हुए कहा था कि क्रियान्वयन के प्रथम चरण में 15 जुलाई 2018 तक इस प्रकार के विडियोग्राफी की शुरुआत कर दी जाये. हालांकि, न्यायालय ने अपने इस निर्देश में ‘व्यवहार्यता’ और ‘प्राथमिकता’ आधार पर कुछ रियायतें भी दी थीं. एक पूर्व पुलिस अधिकारी होने के नाते तथा राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों के साथ अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये इस रियायत का इस प्रकार दुरुपयोग किया गया, ताकि देश की सर्वोच्च अदालत के निर्देशों का वास्तव में पालन न करना पड़े. आप यह कह सकते हैं कि मेरा यह आरोप सिर्फ एक कल्पना है. लेकिन, एक मत्वपूर्ण बात तो मेरे इस आरोप को तार्किक आधार देता है वह पुलिस सुधारों से जुड़ा मामला है जहां, सुप्रीमकोर्ट कोर्ट के निर्देशों में प्रदत्त लचीलेपन का फायदा उठाते हुए, राज्य सरकारों ने बेहद चालाकी से इन सुधारों को लागू नहीं किया. वर्ष 1996 में पुलिस के दो पूर्व निदेशक जनरलों, प्रकाश सिंह और एनके सिंह ने पुलिस सुधारों से संबंधित एक जनहित याचिका दायर की थी. वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका की सुनवाई के बाद सात महत्वपूर्ण निर्देश दिए. ये निर्देश विभिन्न राष्ट्रीय पुलिस आयोगों द्वारा वर्ष 1979 से दिए गए विभिन्न सिफारिशों के आधार पर थे. ब्रिटिश काल से लंबित पुलिस सुधारों को लागू करने की प्रक्रिया को किकस्टार्ट करने के उद्देश्य से दिए गए इन निर्देशों में राज्य सुरक्षा आयोग का गठन का विषय भी शामिल था, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राजनेता और सरकारें पुलिस पर अनुचित दबाव न डाल सकें. इस क्रम में डीजीपी का कार्यकाल दो साल के लिए निर्धारित करने, पुलिस बल के तबादलों, पोस्टिंग तथा भारतीय पुलिस बल के आधुनिकीकरण के लिए महत्वपूर्ण कदमों को तय करने के लिए ‘पुलिस स्थापना बोर्ड’ का गठन करने जैसे महत्वपूर्ण निर्देश थे. जाहिर तौर पर इन निर्देशों का मकसद भारतीय पुलिस बल को आधुनिक बनाने के अलावा उसे हर प्रकार के अवांछित दबाब से मुक्त कराना था. हालांकि, इंटरनेशनल नॉन-प्रॉफिट कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनिशिएटिव की एक रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के इस 14 साल पुराने फैसले का कोई भी भारतीय राज्य पूरी तरह से अनुपालन नहीं करता है. इस रिपोर्ट के अनुसार, केवल दो भारतीय राज्य- आंध्र प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी बाध्यकारी निर्देशों का आंशिक रूप से अनुपालन कर रहे हैं. यह स्थिति विशेष रूप से दुखद इसलिए है, क्योंकि भारत को पुलिस सुधारों की सख्त जरूरत है. इंडियास्पेंड के अनुसार, भारत में प्रति एक लाख की जनसंख्या पर मात्र 151 पुलिस कर्मी हैं जो स्वीकृत 193 पुलिस कर्मी प्रति लाख व्यक्ति की तुलना में बहुत कम है. एक अन्य अतिमहत्वपूर्ण बात यह है कि इन पुलिस सुधारों का लक्ष्य भारत के पुलिस बल को आधुनिक बनाने तथा पुलिस अधिकारियों को अधिक संवेदनशील बनाने के लिए एक अति महत्वपूर्ण पहल है. इंडियास्पेंड की इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के पांच पुलिस कर्मियों में से एक पुलिस कर्मी का यह मानना है कि खतरनाक अपराधियों को जान से मार देना उनपर कानूनी मुकदमे से बेहतर है. यह भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए एक चौंका देने वाला आंकड़ा है. देश में पुलिस बल की वर्तमान सोचनीय स्थिति तथा पुलिस सुधारों को लेकर उच्चतम न्यायालय के ठोस निर्देशों के बावजूद, हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों में पुलिस सुधारों के लिए थोड़ी भी गंभीरता नहीं दिखती. निर्वाचित प्रतिनिधियों के इरादों एवं कार्यों में पुलिस सुधारों के प्रति सोची-समझी नजरंदाजी का भाव यूं ही नहीं है. जाहिर तौर पर इन पुलिस सुधारों को लागू करने से पुलिस बल स्वत: ही सरकार तथा राजनेताओं के नियंत्रण से मुक्त हो जायेगा तथा सत्ता के दुरुपयोग का एक महत्वपूर्ण उपकरण उसके हाथों से निकल जायेगा. ऐसी स्थिति में जब तक सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों और निर्देशों का पालन नहीं करने वाली सरकारों और नौकरशाहों के खिलाफ कार्रवाई करने का फैसला नहीं लेता, तब तक सुप्रीम कोर्ट के पुलिस सुधार सम्बन्धी हालिया निर्देशों पर जश्न सिर्फ बनावटी होगा. ठीक वैसा ही जैसा मुर्गी चोर के आजाद रहने पर भी जीत का का जश्न मनाना. डिस्क्लेमर: लेखक भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और जमशेदपुर के पूर्व सांसद हैं.