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धार्मिक प्रतीक नरेटिव के सहारे यूपी में विपक्ष की तीनों पार्टियां

Faisal Anurag समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था - राजनीति तात्कालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति. डा.लोहिया ने दार्शनिक सांस्कृतिक संदर्भ में यह बात कही थी. डा. लाहिया को समाजवादियों के साथ ही भारतीय जनता भी जी जान से याद करती है. लेकिन पिछले सात सालों में राजनीति में हिंदू प्रतीक ही इस्तेमाल हो रहे हैं. धर्मनिरपेक्षता के आधार पर वोट लेने का साहस तो जैसे बचा ही नहीं है. नरेंद्र मोदी 20 साल पहले जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, तब से भाजपा ने यह नरेटिव स्थापित कर दिया है कि धार्मिक प्रतीक ही सत्ता की कुंजी है. उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों को लेकर जो तरीका समाजवादी,कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी अपना रही है वह मोदी नरेटिव में ही दखल देने जैसा है. रविवार को उत्तर प्रदेश में दो बड़ी रैलियां हुईं. एक में कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को बतौर चेहरा चुनाव लड़ने का एलान किया तो लखनऊ में बसपा ने यह बताने का प्रयास किया कि वह भाजपा के धार्मिक प्रतीकों को अपनाने से गुरेज नहीं करती. कांग्रेस के मंच पर प्रियंका के साथ जितने भी नेता थे सबने यह दिखाने का प्रयास किया कि वह भाजपा से उदारवादी हिंदुओं के समर्थन को छीनने की दिशा में चलते नजर आए. मायावती ने मंच से त्रिशूल लहरा कर बताने का प्रयास किया कि अंबेडकर और कांशीराम जो भी सोचते रहे हैं, मायावती अब नया नरेटिव गढ़ने को तैयार हैं. पहले भी ऐसा हो चुका है जब हाथी नहीं गणेश है, बह्मा विष्णु महेश है का नारा बसपा ने लगाया था. इस नारे ने उसे अकेले दम पर बहुमत दिला दिला दी थी. भाजपा ने पिछला चुनाव श्मशान,कब्रिस्तान के सहारे लड़ा था और इस बार अब्बाजान को ट्रंप कार्ड की तरह इस्मेताल किया जा रहा है. राजनीतिक दलों के इस प्रतीक इस्तेमाल की राजनीति से अलग किसानों के आंदोलन ने भी यूपी के नरेटिव को प्रभावित किया है. लेकिन 2014 में मोदी की कामयाबी के बाद से विपक्ष हताश हुआ और उसने अपने एजेंडा में धार्मिक उदारता का प्रदर्शन शुरू कर दिया. सवाल है कि क्या, भाजपा जो कि नरेंद्र मोदी के नरेटिव के सहारे चुनावों में जीत हासिल करती रही है, क्या विपक्ष इसी सहारे देश के सबसे बड़े राज्य के चुनावों में कामयाब होने का सूत्र निकाल सकेगा. वैसे कांग्रेस के मंच से शक्ति मंत्र पाठ के साथ कुरान की तिलावत और गुरूवाणी को भी छोड़ा नहीं गया.लेकिन नेहरू इंदिरा की कांग्रेस विरासतों से मुक्ति के लिए छटपटाती दिख रही है. बसपा बाबा साहेब अंबेडकर और कांशीराम का नाम जरूर लेती है, लेकिन उसने भाजपा के धार्मिक और जाति प्रतीकों में खुद को रंग लिया है. समाजवादी पार्टी भी इससे भिन्न नहीं है. यदि बड़े फलक पर देखा जाए तो दुनिया भर की दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों और ताकतों ने भी धार्मिक नफरत और प्रतीकों को ही अपनी कामयाबी का सूत्र मान लिया है. यूरोप की राजनीति में दक्षिणपंथी उभार बताता है कि शरणार्थी मामले को धार्मिक भेदभाव बना दिया गया है. डोनाल्ड ट्रंप की राजनीति का बुनियादी आधार भी यही बना रहा है. इस्लामोफाबिया, नस्लवादी नजरिया और मिथ्या राष्ट्रवाद के नाम पर भेदभाव को बढावा ट्रंप की राजनीति का केंद्र है और इसी के सहारे अब 2024 में वे दुबारा राष्ट्रपति बनने का इरादा जता रहे हैं. भाजपा नरेंद्र मोदी का बतौर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के 20 साल पूरे होने के जश्न में भी मोदी नरेटिव को फिर से प्रभावी बनाने के अभियान में लग गयी है. मोहन भागवत में कथित ````लव जेहाद```` और ````जबरन धर्म परिवर्तन```` के सवाल को उठा कर यूपी चुनाव में लखिमपुर खीरी तिकुनिया नरसंहार, कोविड से हुई मौतों और मंहगाई जैसे ज्वलंत सवालों के असर को कम करने का प्रयास किया है. 2015 के बिहार चुनाव में भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का सवाल उठाने के बाद हुई भाजपा की दुर्गति से सबक सीख चुके हैं. तुर्की में अर्देगन हाजिया साफिया विवाद का उसी तरह इस्तेमाल कर रहे हैं ​जैसा कि भारत में भाजपा— आरएसएस ने अयोध्या मंदिर को लेकर करती है. ऐसे समय में दुनिया भर में सेकुलर आधार पर चुनाव लड़ने का साहस राजनीतिक नेता नहीं दिखा पा रहे हैं. भारत में तो धार्मिक आधार पर भेदभाव भाजपा का राजनीतिक एजेंडा है इसी पिच पर विपक्षी नेता और दल कितने कामयाब होंगे यूपी चुनाव उसे प्रमाणित करेगा. [wpse_comments_template]

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