K. Madhwan
अरावली पर्वतमाला को लेकर सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय केवल एक न्यायिक आदेश नहीं है, बल्कि यह उस असहज सच्चाई का दस्तावेज है, जहां सरकार की विकास-लालसा और न्यायपालिका की तकनीकी व्याख्या मिलकर पर्यावरण का गला घोंट देती हैं और फिर उसे “संतुलन” का नाम दे दिया जाता है. वस्तुतः यह फैसला संरक्षण की आड़ में विनाश का वैधानिक रास्ता खोलता है.
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने यह मान लिया है कि केवल वही भू-भाग अरावली कहलाएंगे, जिनकी ऊंचाई स्थानीय स्तर से 100 मीटर से अधिक है. सुनने में यह एक तटस्थ और वैज्ञानिक कसौटी लगती है, किंतु यही परिभाषा अरावली के विशाल हिस्से को संरक्षण से बाहर धकेल देती है. प्रश्न यह नहीं है कि कोर्ट को परिभाषा तय करने का अधिकार है या नहीं, प्रश्न यह है कि क्या पर्यावरण जैसे जीवित तंत्र को केवल ऊंचाई के पैमाने पर नापा जा सकता है?
यहीं से सुप्रीम कोर्ट का दोहरा चेहरा स्पष्ट दिखाई देने लगता है. क्योंकि यही न्यायालय एमसी मेहता बनाम भारत संघ में कहता है कि स्वच्छ पर्यावरण जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है. यही अदालत गोदावर्मन मामले में जंगलों की परिभाषा को कागजी रिकॉर्ड से बाहर निकालकर “वास्तविक वन” तक फैलाती है. और यही सुप्रीम कोर्ट बार-बार “एहतियाती सिद्धांत” और “पीढ़ीगत न्याय” की दुहाई देता है. फिर अरावली के मामले में वही अदालत अचानक इतनी संकीर्ण, इतनी सुविधाजनक परिभाषा क्यों स्वीकार कर लेती है?
यह अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि तथ्य है कि यह फैसला सरकार के लिए किसी वरदान से कम नहीं. वर्षों से केंद्र और राज्य सरकारें अरावली को विकास परियोजनाओं के रास्ते की रुकावट मानती रही है. खनन लॉबी, रियल एस्टेट माफिया और इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों के लिए अरावली केवल “अनुपयोगी पहाड़” रही है. सरकारें सीधे संरक्षण हटाने का साहस नहीं कर पाईं, इसलिए परिभाषा बदलने का रास्ता चुना गया और सुप्रीम कोर्ट ने उसी रास्ते को वैधानिक मुहर दे दी.
वस्तुतः यह फैसला यह संदेश देता है कि अगर सरकार सीधे जंगल नहीं काट सकती, तो न्यायिक व्याख्या से उसका दायरा छोटा कर दो. अगर पर्यावरण कानून के आड़े आता है, तो उसकी भाषा को इतना तकनीकी बना दो कि संरक्षण केवल कागजों में रह जाए. यह न्याय नहीं, यह सुविधा-जनित न्याय है और सरकार की भूमिका यहां और भी शर्मनाक है, क्योंकि एक तरफ वही सरकार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जलवायु परिवर्तन पर भाषण देती है और दूसरी तरफ देश की सबसे पुरानी पर्वतमाला को धीरे-धीरे निर्वस्त्र करने की नीति अपनाती है.
एक ओर जहां अरावली भूजल रिचार्ज करती है, रेगिस्तान रोकती है, दिल्ली-एनसीआर को सांस लेने लायक बनाती है और यह सब सरकार जानती है. फिर भी विकास के नाम पर वह इसे “इत्तर मुद्दा” मानकर किनारे कर देती है. वहीं दूसरी ओर देश के प्रकृति प्रेमी सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षा रखते हैं कि वह सत्ता के दबाव का प्रतिरोध करेगा, लेकिन इस फैसले में न्यायपालिका प्रतिरोध नहीं, समायोजन करती दिखाई देती है. सनद रहे कि तकनीकी तर्कों की आड़ में पर्यावरणीय यथार्थ को नजरअंदाज करना न्यायिक विवेक नहीं, बल्कि न्यायिक पलायन है.
पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी को केवल कार्यपालिका पर छोड़ देना, स्वयं अपने संवैधानिक दायित्व से पीछे हटना है. क्योंकि इस निर्णय के परिणाम आने वाले वर्षों में दिखाई देंगे. जल संकट बढ़ेगा, धूल भरी आंधियां आम हो जाएंगी, तापमान बढ़ेगा और वही सरकार फिर सुप्रीम कोर्ट में आपात याचिकाएं लेकर आएगी. तब शायद अदालत फिर कहेगी कि पर्यावरण बचाना जरूरी है. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी.
अरावली का मामला हमें यह साफ-साफ दिखाता है कि जब सरकार विकास के नशे में चूर हो और सुप्रीम कोर्ट तकनीकी तटस्थता का मुखौटा ओढ़ ले, तब सबसे पहले प्रकृति मारी जाती है और उसके बाद नागरिकों का भविष्य.
यह समय आत्ममंथन का है. सुप्रीम कोर्ट को तय करना होगा कि वह संविधान का संरक्षक है या सरकार की सुविधा का. सरकार को तय करना होगा कि विकास का अर्थ केवल कंक्रीट है या जीवन भी. क्योंकि अरावली को खोना केवल एक पर्वतमाला खोना नहीं होगा. यह उस अंतिम नैतिक रेखा को पार करना होगा, जिसके बाद संरक्षण केवल भाषणों में बचेगा.
इस संदर्भ में दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां बिल्कुल फिट बैठती हैं, जो सत्ता, चुप्पी और अन्याय तीनों पर सीधी चोट करती हैं कि “सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.”
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं
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