2024 की स्क्रिप्ट लिखेंगे विधानसभा चुनाव

Dr. Pramod Pathak वैसे तो हमारा देश सालों भर चुनावी मोड में रहता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह परंपरा और भी मजबूत हो गई है. इस लिहाज से अगले साल के लोकसभा चुनाव की तैयारी लगभग सभी पार्टियां तेजी से कर रही हैं. सिर्फ पार्टियां ही नहीं, बल्कि कुछ मीडिया वाले भी चुनावी मोड में है. सच्चाई तो यह है कि मीडिया भी एक पार्टी है. विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया. मगर चलिए यह सब तो राजकाज है. वाणिज्य के दौर में सब कुछ नफा नुकसान से होता है. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से 1991 की लोकसभा चुनाव के समय एक साक्षात्कार के दौरान इस स्तंभकार ने पूछा था कि क्या मूल्यों पर आधारित राजनीति का दौर खत्म हो गया है. उनका कथन था कि राजनीति हमेशा से मुद्दों पर आधारित रही है. आज का दौर तो और भी अलग है और आज की राजनीति चुनाव जीतने की रणनीति पर आधारित है. न मूल्य न मुद्दे. विशुद्ध रणनीति. इस आलोक में आने वाले महीनों में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की चर्चा इस उद्देश्य से करने की आवश्यकता है कि इनका 2024 के लोकसभा चुनाव पर क्या असर होगा. इसके लिए थोड़ा पीछे चलना होगा. ज्यादा न सही, लेकिन देश की राजनीति में बदलाव के कुछ लक्षण तो दिख रहे हैं. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में ऊर्जा का संचार हो रहा है और कार्यकर्ताओं का उत्साह लौट रहा है.हिमाचल प्रदेश और फिर उसके बाद कर्नाटक के पिछले विधानसभा चुनाव के परिणामों ने कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया. साथ ही विपक्ष को भी थोड़ी उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी है. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह एक शुभ संकेत है. वैसे यह कितना टिकाऊ होगा इसका फैसला आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा के चुनाव परिणाम करेंगे. खासकर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनाव. इन चुनावों के परिणाम 2024 के लोकसभा चुनाव पर खासा असर डालेंगे. विशेष रुप से इसलिए कि इनमें से तीन राज्य हिंदी पट्टी के हैं जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)और कांग्रेस आमने-सामने हैं और पिछले लोकसभा के चुनाव में इन स्थानों पर भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली थी। वैसे पिछले दिनों के हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम भी महत्वपूर्ण रहे और उनसे कई बातें साबित हुईं. पहली बात यह कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का विकल्प फिलहाल तो कांग्रेस ही रहेगी. यह बात सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक सुनियोजित अभियान चलाकर कांग्रेस को खारिज करने का प्रयास हो रहा था जो बहुत सफल नहीं रहा. जो दूसरी बात साबित हुई वो यह कि कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का दावा एक जुमला से अधिक और कुछ नहीं था और इसका देश के राजनीतिक पटल पर कोई बड़ा असर आगे नहीं होने वाला. एक तीसरी चीज भी साबित हुई. विपक्षी खेमे को जोड़ने वाली सीमेंट इस वक्त कांग्रेस ही है. आने वाले विधानसभा चुनावों के परिणाम चाहे जो भी हों, लेकिन अच्छी बात यह हुई है कि भारतीय लोकतंत्र में मौजूदा परिस्थिति में किसी एक दल का एकाधिकार होता नहीं दिखता, जो स्वस्थ लोकतंत्र के भविष्य के लिए अच्छी बात है. विकल्प के अभाव का शोर मचा कर कांग्रेस भी पहले भी यह साबित करने की कोशिश करती थी कि देश चलाने की क्षमता सिर्फ उन्हीं के पास है. इसमें कई बार मीडिया के लोग और तथाकथित चुनाव विशेषज्ञ भी अतिउत्साह में पार्टी बन कर मतदाता को भ्रमित करने का प्रयास करते रहे. लेकिन देश की जनता ने एकाधिकार की मंशा रखने वाली धारणा को तोड़ने का काम किया है। चुनावों में कई बार स्थिरता अस्थिरता से ज्यादा महत्वपूर्ण बदलाव हो जाता है.77 के लोकसभा चुनाव में ऐसा ही हुआ था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं विपक्ष का दिल्ली पहुंचना तय हो गया. दिल्ली की डगर अभी भी मुश्किल है, लेकिन अगर उनकी एका की यही कोशिश ईमानदारी से जारी रही तो 2024 में लोकसभा का स्वरूप कुछ अलग दिख सकता है. यानी ज्यादा संतुलित. हिंदी पट्टी में अभी भाजपा की मजबूती बनी हुई है. साथ ही पिछले लोकसभा चुनाव में बंगाल, कर्नाटक और बिहार में उसे बड़ी सफलता मिली थी जिसके चलते उसके अपने खाते में 300 से अधिक सीटें आई और उसे सहयोगी पार्टियों की आवश्यकता नहीं रही. लेकिन इस बार ऐसा होना मुश्किल दिख रहा और इसीलिए भाजपा भी फिर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को पुनर्जीवित करने के प्रयास में लग गई है. राजनीति तो भाई जोड़-तोड़ का खेल है और इसमें बेहतर रणनीति सफलता दिलाने के लिए आवश्यक है. रणनीति और तालमेल के लिहाज से भाजपा कुछ बेहतर स्थिति में तो दिख रही है.लेकिन 10 साल तक सत्ता में रहने के बाद मतदाता अरुचि एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है और इसका असर मतदाता व्यवहार पर दिखता है. मतदाता की इसी मानसिकता का लाभ विपक्ष चाहे तो उठा सकता है.लेकिन यह स्वतः नहीं होगा. इसके लिए गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता होगी. कुछ हद तक यह प्रयास दिख रहा है.यदि विपक्षी पार्टियां बेहतर तालमेल दिखाकर मतदाता को यह विश्वास दिला सकें कि उनमें एक कारगर समन्वय है तो वे अच्छी स्थिति में हो सकते हैं. लेकिन यह साबित करना जरूरी होगा की वह अपने उद्देश्य और प्रयास के प्रति प्रतिबद्ध हैं.आम जनता इस पर कितना भरोसा करती है यह तय होगा आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में. इस लिहाज से आने वाले विधानसभा चुनाव भाजपा और विपक्ष दोनों ही के लिए अतिमहत्वपूर्ण है. हो सकता है कुछ चुनाव विशेषज्ञ यह माने कि इन राज्यों को मिलाकर सिर्फ 83 लोकसभा सीटें बनती हैं.लेकिन सवाल यह नहीं है.सवाल वह संदेश है जो इन विधानसभा चुनावों के परिणाम देश के मतदाता को देंगे. और यही संदेश अगले लोकसभा की स्क्रिप्ट लिखेंगे. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]
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