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रणनीति हो या राजनीतिक मजबूरी मगर विपक्षी दलों के साथ आने की अपील मानीखेज है

Faisal Anurag बंगाल और तमिलनाडु के राजनेता देश भर में सांप्रदायिकता और निरंकुशता के खिलाफ विपक्ष की व्यापक गोलबंदी की आवाज बुलंद करने लगे हैं. ममता बनर्जी ने कांग्रेस और वामदलों से आग्रह किया है कि वे मोदी सरकार की निरंकुशता के खिलाफ साझा संघर्ष के लिए एक साथ आयें. दूसरे फेज के चुनाव से ठीक एक दिन पहले ममता बनर्जी की इस अपील के अनेक मायने हैं. ममता बनर्जी ने कहा है कि भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त हार मिलेगी. बावजूद इसके विपक्ष को उन चुनौतियों का मुकाबला करना चाहिए, जो भारत के संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी हैं. तमिलनाडु के फायरब्रांड एमडीएमके नेता वायको ने हिंदुत्व की ताकतों के खिलाफ तमिल अस्मिता का सवाल उठाया है और तीव्र सांप्रदायिकता के खिलाफ साझापन का आह्वान किया है. द हिंदू ग्रुप के प्रधान संपादक एन राम ने एक पैनल डिस्कशन में इस बात पर चिंता जाहिर की है कि चुनावों के दरम्यान राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए असमान मैदान (अनइवेन फील्ड) तैयार कर दिया गया है. दरअसल जिस तरह से सरकारी मशीनरी और संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता को लेकर संदेह गहरा हुआ है, चुनावों में प्रतिद्वंद्विता भी असमान हो गयी है. 2019 के लोकसभा के चुनाव के समय से ही चुनाव आयोग की निष्पक्षता को लेकर सवाल उठाये जाते रहे हैं. केंद्रीय बलों के इस्तेमाल और मतदान मशीनरी की निष्पक्ष भूमिका पर भी सवाल उठे हैं. एक ऐसे दौर में, जब चुनाव की व्यूह रचना आर्थिक-सामाजिक सवालों से परे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर फोकस होती है, तो सवाल उठना लाजिमी है. 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी विपक्ष का कोई साझा मोर्चा नहीं बन पाया था. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन बनाया था. लेकिन चुनाव परिणामों के बाद बसपा से उसे भंग करने का एकतरफा एलान कर दिया था. इसी तरह आंध्र प्रदेश के तेलगु देसम नेता चंद्रबाबू नायडू ने एनडीए से अलग होने के बाद विपक्ष के संयुक्त मोर्चे के लिए प्रयास किया था. लेकिन चुनाव परिणाम के बाद उनकी भूमिका बदल गयी. चुनावों के बाद से ही वे विपक्ष के किसी मंच पर नहीं दिखे हैं. ममता बनर्जी ने किसी राजनीतिक मजबूरी में कांग्रेस और वामदलों के नेताओं से एक साथ आने की अपील की है या यह उनकी एक चुनावी रणनीति है? भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार, बार-बार ध्रुवीकरण वाले सवालों को तरजीह देना, बेगम ममता बोल कर सांप्रदायिक प्रचार करना आदि ऐसे सवाल हैं, जिन्होंने बंगाल के भद्रोजन राजनीतिक प्रचार की छवि को खत्म कर दिया है. यही नहीं, बंगाल चुनाव में जातीय गोलबंदी की वापसी हुई है. भद्रोजन चुनावी ग्रामर को इसने पूरी तरह बदल दिया है. खास कर मतुआ के सवाल जिस तरह उठे और नरेंद्र मोदी ने उन्हें प्रभावित करने के लिए बांग्लादेश यात्रा के समय मतुआ समुदाय के गुरु के मंदिर की यात्रा की. भारत के चैनलों ने उनकी इस यात्रा को न केवल लाइव प्रसारित किया, बल्कि उसके फुटेज बार-बार दिखाये. इन सबके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि मतुआ दलितों का पूरा वोट किसी एक के पक्ष में ही जायेगा. इसका एक बड़ा कारण तो मतुआ समुदाय का अब तक वोट पैटर्न है. 2011 से यह वोट ममता बनर्जी को मिलता रहा है, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उसका अच्छा-खासा हिस्सा भाजपा के पक्ष में गया. मतुआ जाति के कई सवाल हैं, जो उनकी नागरिकता से जुड़े हैं. लेकिन मतुआ संप्रदाय मूल रूप से उस हिंदुत्व के विरोध में रहा है, जिसकी बात भाजपा करती रही है. मतुआ समूहों में पिछले कुछ सालों से अंबेडकरपंथी बड़ी संख्या में उभरे हैं. मतुआ अंबेडकरवदियों का नजरिया भाजपा को लेकर कहीं ज्यादा कठोर रहा है. उनके बीच से जो साहित्य पिछले सालों में लिखे गये हैं, वे भी मतुआ समुदाय के अंतरविरोधों और आत्मसंघर्ष को प्रकट कर रहे हैं. भाजपा ने इस समुदाय के साथ नामशूद्र दलितों को भी अपने पक्ष में करने का भरपूर प्रयास किया है. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने लेख में शेख बंद्योपाध्याय ने लिखा है ``मतुआ महासंघ वास्तव में एक विपक्षी धार्मिक आंदोलन है जो ब्राह्मण वर्चस्व और वैदिक हिंदू धर्म के खिलाफ है. इसलिए उनके लिए  हिंदुत्व विचारधारा का समर्थन करना आसान नहीं होगा. लेकिन उन सभी ने रोजमर्रा की जिंदगी में मतुआ-हिंदू बाइनरी के भीतर खुद को मजबूती से नहीं रखा.`` ममता बनर्जी और वाइको के बयानों में एक समानता है. वह है लोकतंत्र, संविधान और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का सवाल हो सकता है ममता बनर्जी ने वाम-कांग्रेस गठबंधन के वोटरों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए इस बयान का इस्तेमाल किया हो, लेकिन उसके दूरगामी असर की संभावना है. किसानों के आंदोलनों को जिस तरह मीडिया से गायब कर दिया गया है और उनके सवाल को अनदेखा किया जा रहा है, उनके बीच भी गहरी राजनीतिक निराशा की संभावना बनी हुई है. किसान नेताओं ने तमिलनाडु और बंगाल दोनों ही राज्यों की यात्रा कर भाजपा को हराने की अपील मतदाताओं से की है. श्रमिक और किसान, दोनों में गहरा असंतोष नये कानूनों को लेकर है. किसानों ने अपने संघर्ष से आर्थिक सुधारों की नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद कर दी है. ममता बनर्जी या वायको भले ही चुनाव के बीच में ही विपक्ष के लिए एजेंडा दे रहे हों, लेकिन इसका दबाव सिर्फ वे ही नहीं बना रहे, बल्कि आर्थिक नीतियों की मार झेल रहे तबकों से भी इसी तरह की आवाजें उठती रही हैं.

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