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जुमलों और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर भारी पड़ी बंगाल की भद्रोलोक संस्कृति

Anand Kumar

“दीदी, अरे ओ दीदी” का फूहड़ जुमला नाकाम हो गया. कविगुरु की भोंडी नकल भी काम न आयी. बंगाल के भद्रोलोक के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को कोशिशें विफल रहीं. और मतुआ शरणार्थियों को लुभानेवाला सीएए का पत्ता कट कर रह गया. प्रशांत किशोर के क्लब हाउस चैट को लीक बताकर भाजपा जो गुब्बारा फुला रही थी, वह फुस्स हो गया. जुमलों और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर बंगाल की भद्रोलोक संस्कृति भारी पड़ गयी. पीके का यह दावा कि भाजपा दो अंकों के भीतर सिमट जायेगी, सही साबित हुआ. 2021 में 5 राज्यों में हो रहे चुनाव का सबसे चर्चित विधानसभा चुनाव तृणमूल के पक्ष में रहा. ममता को कम करके आंकने की भूल भाजपा को भारी पड़ गयी है. ममता अपनी पहले जैसी हनक और तेवर के साथ तीसरी बार सत्ता संभालने जा रही हैं.
दरअसल इसमें गलती भाजपा की नहीं है. 2014 से उसे ऐसे नैटेरिव गढ़कर चुनाव जीतने की आदत पड़ी हुई है. लेकिन मीडिया में बनायी गयी हवा जमीन पर रह रहे लोगों को छू जाये, ऐसा हर बार जरूरी नहीं होता. भाजपा ने जीतने के लिए हर वह दांव अपनाया जो वह अन्य राज्यों में सफलतापूर्वक करती आयी है. उसने तृणमूल के नेताओं, सांसदों और विधायकों को तोड़ा. मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा समेत अपने तरकश के सारे तीर ममता बनर्जी पर छोड़ दिये. तृणमूल समेत अन्य दलों की अपत्ति के बावजूद आठ चरणों में चुनाव कराये गये. बंगाल के इस चुनावी महाभारत में चुनाव आयोग ने धृतराष्ट्र की भूमिका अख्तियार कर ली. भाजपा नेताओं पर हमले की बात को जोरशोर से प्रचारित किया गया. देश में कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका के बीच जनता को चुनावी रैलियों और कुंभ की भीड़ में झोंक दिया गया. लेकिन इन सारे प्रपंचों पर बंगाल की जनता ने पानी फेर दिया.

एक्जिट पोल में भी साफ हो गई थी ममता की जीत

चुनावों से पहले ओपीनियन पोल में भाजपा और तृणमूल के बीच कांटे की टक्कर दिखाई गयी थी. लेकिन तब भी भाजपा को अधिकतम 110 के आसपास सीटें मिलने का ही अनुमान जताया गया था. अलग-अलग एक्जिट पोल में भी साफ हो गया था कि ममता बनर्जी बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही हैं. हालांकि भाजपा परस्त इंडिया टीवी और रिपब्लिक-सीएनएक्स के सर्वे में बीजेपी के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने का अनुमान लगाया गया था. लेकिन तमाम दावों को दरकिनार करते हुए ममता ने दिखाया कि बंगाल में उनका जादू बरकरार है.
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 294 सदस्यीय पश्चिम बंगाल विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस 207 सीटों पर आगे चल रही थी, जबकि भारतीय जनता पार्टी महज 79 सीटों पर आगे थी. 2016 में हुए बंगाल विधानसभा चुनावों में टीएमसी ने 211 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा महज 3 सीटों पर सिमट कर रह गयी थी. वाम दलों और कांग्रेस के खाते में कुल 70 सीटें थीं. इस बार वाम दलों का सूपड़ा साफ होता दिख रहा है, जबकि भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने में सफल रही है.

आत्ममुग्धता के घोड़े पर सवार थी भाजपा

चुनाव के परिणामों की समीक्षा और विश्लेषण अभी कई दिनों तक होता रहेगा, लेकिन ममता बनर्जी की जीत, या यूं कहें कि भाजपा को आशातीत सफलता नहीं मिलने के पीछे कुछ प्रमुख कारण हैं जो स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं. इनमें महंगाई, दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसानों का आंदोलन और कोरोना से निबटने में केंद्र सरकार की विफलता प्रमुख हैं. पैर में चोट लगने के बाद ममता का ह्वील चेयर पर बैठ कर किये गये चुनाव प्रचार ने भी उनके प्रति सहानुभूति पैदा की. किसान नेताओं ने इस पूरे चुनाव में बंगाल में घूम-घूम कर लोगों के सामने अपनी बात रखी. यह बताया कि किस तरह केंद्र सरकार उनके खिलाफ कानून लाकर उन्हें बर्बाद करना चाहती है. इसी तरह चुनाव के बीच देश भर से कोरोना की बढ़ती लहर में अस्पतालों में बेड, दवाओं और ऑक्सीजन की कमी से मरते लोगों की तसवीरों ने भी लोगों को विचलित किया. इससे गंभीरता से निबटने के बदले केंद्र सरकार बमगाल चुनाव पर केंद्रित रही. महंगाई हमेशा से बंगाल में एक संवेदनशील विषय रहा है. पेट्रोल-डीजल और दूसरी जरूरी जिंसो की बढ़ती कीमतों रोक पाने में विफलता भी भाजपा के खिलाफ गयी. ममता बनर्जी के साथ महिला वोटरों की सहानुभूति भी कायम रही.
दरअसल भाजपा आत्ममुग्धता के घोड़े पर सवार थी. राष्ट्रीय मीडिया, खासकर समाचार चैनल भी उसी घोड़े पर सवार थे. लेकिन बंगाल में रह रहे आम लोगों, पत्रकारों और प्रबुद्ध लोगों से जो जानकारी मिल रही थी, वह प्रशांत किशोर के दावों से मेल खाती थी. ऐसा नहीं कि भाजपा को जमीनी हकीकत का अंदाज नहीं होगा, लेकिन अपने उग्र राष्ट्रवादी हिंदुत्व के बूते उसने जीत का जो हवाई किला बनाया था, वह भरभरा कर गिर गया.
असम में भले ही बीजेपी अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रही है, लेकिन हाल के समय में झारखंड, महाराष्ट्र समेत कुछ अन्य राज्यों और अब बंगाल में प्रधानमंत्री की ताबड़तोड़ चुनावी रैलियों के बावजूद मिली हार से मोदी-शाह की जादुई जोड़ी का तिलिस्म भी टूट रहा है. भाजपा के लिए बंगाल में एकमात्र संतोष की बात वहां दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना ही है.