- भागलपुर दंगा (1989) : बिहार और देश पर एक दाग है.

श्रीनिवास
वर्ष 1989 में 24 अक्टूबर को ही भड़का था वह दंगा, जिसमें एक हजार से भी अधिक लोग धर्मांधता की भेंट चढ़ गये थे और शर्मनाक यह कि बहुतेरे लाशों की पहचान के आधार पर दुखी और खुश हो रहे थे!
अतीत के कड़वे-त्रासद प्रसंगों को क्यों और कैसे याद करें, यह दुविधा हमेशा होती है. कुछ लोग इसे गड़े मुर्दे उखाड़ना भी मानते हैं. लेकिन कोई देश और समाज उस नृशंसता को क्यों और कैसे भूल सकता है, जिसमें मरने वाले अपने थे और मारने वाले भी.
मेरी समझ से यदि हम चाहते हैं कि देश/समाज पुनः उस उन्माद में नहीं बहे और फंसे तो हमें अतीत में लौट कर उन कारणों की तलाश और उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए. हां, इसका मकसद गलतियों से सीख लेना होना चाहिए, अतीत में किसी की कथित ज्यादतियों का हिसाब चुकता करना नहीं. वैसे कोई भी समाज अतीत के अच्छे-बुरे प्रसंगों को याद करता ही है. हमारे सारे त्योहार तो अतीत की स्मृति पर ही आधारित हैं. और स्वयंभू हिंदू हितैषियो की तो राजनीति का आधार ही यही है.
इस दंगे पर बहुत कुछ लिखा गया है. नेट पर भी बहुत सामग्री उपलब्ध है. अब फिर से वह सारा इतिहास दुहराना बेमानी लगता है. फिर भी चूंकि काफी लंबा अरसा बीत चुका है, उसके बाद एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है. दूसरे, उन दंगों से जुड़े अनेक सच से आम आदमी शायद अनभिज्ञ है, इसलिए कुछ बातों को याद करना जरूरी लग रहा है.
सबसे अधिक कंफ्यूजन तो हताहतों और उनमें दोनों समुदायों के मृतकों की संख्या को लेकर है. वैसे सरकारी आंकड़ों के अनुसार भागलपुर शहर और भागलपुर जिले के 18 प्रखंडों के 194 गांवों के ग्यारह सौ से ज्यादा लोग मारे गये थे. तब बांका अलग जिला नहीं बना था.
दंगों के कुछ दिन बाद मैंने इस पर कई किश्तों में काफी कुछ लिखा था, इसलिए अभी उस डिटेल में नहीं जाऊंगा. सब कुछ ठीक ठीक याद भी नहीं, फिर भी उस दौरान के कुछ खास अनुभव साझा करूंगा. इसी बहाने एक बार फिर उस दौर और अनुभव को जी लेना चाहता हूं.
रांची से भागलपुर तक के सफर में ही दंगे के असर का एहसास हो गया था
तब मैं ‘प्रभात खबर’ (रांची) में था. 1986 में जुड़ा था. दो-तीन साल बाद अखबार का निजाम बदल गया, नये मालिकान आये और हरिवंश जी नये संपादक. तब झारखंड, बिहार का हिस्सा था. तभी भागलपुर मेँ दंगा भड़क गया. मैंने हरिवंश जी से कहा कि इतना बड़ा दंगा हुआ है, पटना के अखबार उसकी खबरों से भरे रहते हैं, अपना अखबार बहुत पीछे है.
एक दिन दफ्तर पहुंचते ही उन्होंने कहा- आप भागलपुर जा सकते हैं? उनको मालूम था कि मैं मूलतः भागलपुर का हूं. इनकार करने का कोई कारण नहीं था. सहज इच्छा थी. इसी बहाने घर हो आऊंगा. हालांकि रिपोर्टिंग का कोई अनुभव नहीं था. पूछा- कब जाना होगा? वे बोले- आज जा सकते हैं?
16 या 17 नवंबर की तारीख थी. भाग कर घर आया. उस समय हम कांके ब्लॉक कैंपस में रहते थे, दफ्तर से 9 किलोमीटर. वहां से भागते हुए बस स्टैंड गया. भागलपुर के लिए सीधी ट्रेन नहीं थी. बस भी भागलपुर तक नहीं जा रही थी. बस से सुबह देवघर पहुंचा. वहां से भी भागलपुर की बस नहीं थी. वहां के हालात का आभास होने लगा था. मिनी बस से हंसडीहा पहुंचा. जल्द ही महसूस किया कि सड़क पर कोई मुसलिम यात्री नहीं है. वहां से किसी छोटे वाहन से बौंसी.
मंदारहिल-भागलपुर ट्रेन चल रही थी. ट्रेन खचाखच भरी हुई थी. पर मुसलिम एक भी नहीं. कोई पहचान छिपा कर हो तो हो. बातचीत का विषय दंगा-कितना सच, कितना झूठ, कुछ अंदाजा नहीं. अचानक शोर हुआ- पुरैनी आ रहा है, खिड़की- दरवाजे बंद होने लगे. पुरैनी एक मुसलिम बहुल कस्बा है, मेरे गांव फुलवरिया के करीब. लोगों को आशंका थी कि मुसलिम भीड़ हमला कर सकती है! ट्रेन रुकी. स्टेशन पर सन्नाटा पसरा था. न किसी को उतरना था, न किसी को चढ़ना. ट्रेन चल पड़ी. खिड़की- दरवाजे खोल दिये गये.
करीब तीन बजे भागलपुर. अपना ही शहर था, पर बदला हुआ-सा. फिजां में सनसनी और तनाव साफ महसूस कर रहा था. लोग जल्दबाजी में भी दिख रहे थे. रात का कर्फ्यू जारी था. शायद उसी दिन तक. तब बाबूजी (अगम प्रसाद, कानूनी पिता, जो अब नहीं हैं) भागलपुर में ही पोस्टेड थे. पैदल ही उनके सरकारी आवास गया. कुछ देर बाद अपने अग्रज के आवास (भीखनपुर) पर. कहा- मोटर साइकिल चाहिए. आने का मकसद भी बता दिया. बोले- नहीं, तुम दंगे वाले मुहल्लों में जाओगे. मैंने कहा- जाना तो होगा ही, बाइक से नहीं, तो रिक्शा से या पैदल. फिर मान गये, इस हिदायत के साथ कि अंधेरा होने तक लौट आना है.
मैं बाइक लेकर ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ पहुंचा, जो शांतिकामी समाजकर्मियों का केंद्र बना हुआ था. केदार चौरसिया और जयप्रकाश जय (दोनों का निधन हो चुका है), उदय जी और विजय कुमार सहित अनेक परिचित, संघर्ष वाहिनी के साथी मिले. वहां अगले दिन का प्रोग्राम बन रहा था- किसे किस एरिया में जाना है. शहर के हालात, दंगे की घटनाओं और हताहतों का लगभग पूरा ब्योरा भी मिल गया.
हर दंगे की तरह, तब भागलपुर में भी तरह-तरह की अफवाहें फैली या फैलायी गयी थीं. दंगों को भीषणतम बनाने में उनका भी/ही योगदान था. मेरी याद में, विभाजन के समय हुए दंगों के अलावा, पहली बार सांप्रदायिक दंगे की आग गांवों तक फैल गयी थी. सच और झूठ इतनी बातें, कुछ जान बूझ कर फैलायी गयीं कि भागलपुर के लोगों को भी क्या कैसे हुआ, कितने लोग मरे, कितने हिंदू, कितने मुसलमान, सही जानकारी नहीं थी. शायद आज भी नहीं होगी. सभी अफवाहों को अपने हिसाब से सही या गलत मान रहे थे.
भागलपुर के हिंदुओं को तो यही याद है (अफवाहों के आधार पर ही) कि कम से कम चार-पांच सौ हिंदू मारे गये, कोई इससे अधिक भी बतायेगा. पर सच यह शायद यह है- भागलपुर का टीएनबी कॉलेज प्रतिष्ठित और पुराना कॉलेज है. वह जिस इलाके में है, उसके आसपास घनी मुस्लिम आबादी है. जिनको हॉस्टल नहीं मिलता है, ऐसे बहुत सारे विद्यार्थी (हिंदू) प्राइवेट लॉज में रहते हैं, बहुतेरे मुसलमानों के घरों में. परबत्ती और तातारपुर ऐसे ही मुहल्ले हैं. तातारपुर के ही मुसलिम हाई स्कूल के पास 24 अक्टूबर को हिंसा की शुरुआत हुई थी.
जब हिंसा भड़की, तो एक अफवाह यह फैली कि मुसलिम लॉज में रहने वाले सैकड़ों लड़कों को मार दिया गया. हॉस्टल में घुस कर इतनी लड़कियों के साथ रेप हुआ, उनके स्तन काटे गये... इससे उत्तेजना फैली, और पहली बार दंगा गांवों में फैल गया. जम कर 'बदला' लिया गया.
बाद में पता चला कि जो हिंदू लड़के उन मोहल्ले में रहते थे, लॉज के मालिकों ने ही उनको तत्काल निकल जाने कहा था. उस उत्तेजक माहौल में मुसलिम गुंडे भी ’शिकार’ खोज ही रहे होंगे. लॉज मालिकों ने जो किया, वह सहज मानवीय तकाजा था. उनको यह भी लगा हो शायद कि हमारे घर में किसी की हत्या हो गई, तो बदनामी के अलावा भी मुश्किल में पड़ सकते हैं. जिसे जिधर मौका मिला, निकल गया. कुछ स्टेशन गये, जो ट्रेन मिली, उसी पर चढ़ गये. कुछ गंगा पार के अपने सहपाठियों के गांव चले गये.
जब सारा कुछ शांत हुआ, तो पता चला कि दो-तीन से ज्यादा विद्यार्थी मीसिंग नहीं थे. जब तक बच्चे घर नहीं पहुंचे थे, मां-बाप को भी आशंका थी, लेकिन धीरे धीरे सभी घर पहुंच गये. लेकिन तब तक उन अफवाहों के असर से पूरा जिला जल चुका था.
जब हम पर ‘जासूस’ होने का शक किया गया
दो-तीन अनुभव खास हैं. मेरे गांव के पश्चिम तीन-चार किमी पर एक गांव है- तमौनी, जो मेरी एक बुआ की ससुराल है. वहां 11 या 12 मुसलमानों की हत्या हुई थी. वह घटना बहुत चर्चित हुई थी. चुनाव प्रचार के दौरान वीपी सिंह भी वहां गये थे. हालांकि चंदेरी (सबौर) की घटना अधिक चर्चित हुई, जहां 80 मुसलमान तब मार डाले गये थे, जब सेना ने उनको सुरक्षित निकाल कर स्थानीय पुलिस को संरक्षण में सौंप दिया था और पुलिस ने उन्हें हत्यारों के हवाले कर दिया!
मुझे अपने गांव से तमौनी का रास्ता मालूम था, लेकिन भागलपुर से दूसरा रूट था, तो बबलू (भतीजा) को साथ ले लिया. नौगछिया के विजय भी थे. रास्ता भटक गये. किसी गांव में रुके. तब अफवाहों के कारण ऐसी दहशत थी कि लोगों का कहीं आना-जाना बहुत कम होता था. तीन अनजान लोगों को देखते ही 20-25 स्त्री-पुरुष-बच्चे जमा हो गये. हमने तमौनी का रास्ता पूछा. कोई बोला- वहां क्या करने जा रहे हैं? वहां तो कोई नहीं है. मैं चूंकि अपने इलाके, गांव के करीब था, तो थोड़े कॉन्फिडेंस से अपने अंदाज में बोला- 'क्यों, तुम लोग सबको मारिये दिये क्या?' अचानक एक औरत चिल्लाई- ‘है सिनी जासूस छेकौ रे, देखैं छं की...’
महिला के इतना चिल्लाते ही 40-50 लोगों की भीड़ ने हमें घेर लिया! तभी अचानक एक बुजुर्ग देवदूत बन कर आ गये. पूछा- क्या बात है? हमने कहा, तमौनी जाना है, रास्ता पूछ रहे थे. क्यों जाना है? बताया कि बुआ का घर है. उन्होंने सबको डांटा- क्यों परेशान करते हो. रास्ता बता कर कहा- जाइये.
उसी बीच मैंने बबलू से कहा, डिकी से निकाल कर प्रेस वाला स्टिकर आगे लगाओ. लगा कि पत्रकार की पहचान सेफ रहेगी. दस मिनट में तमौनी पहुंच गये. एक भी मुसलिम परिवार वहां नहीं था. जो बचे थे, कहीं चले गये थे. मुसलमान बस 15 या बीस घर. सभी संपन्न. भागलपुर दंगे का वहां कोई असर-तनाव भी नहीं था. इलाके का एक कुख्यात अपराधी ट्रक से आया, लोगों की हत्या की और उनका सारा कीमती और भारी सामान उठा ले गया.
वहां हमें इतना डरा दिया गया कि अपने गांव जाने के लिए बीच की एक मुस्लिम बस्ती सिमरिया से गुजरने में हिचक गया. अंधेरा भी हो रहा था, तीन-चार किलोमीटर चक्कर लगा कर अपने गांव पहुंचे. तय कर लिया कि अब बबलू को कहीं साथ नहीं ले जायेंगे.
दूसरे दिन शहर में किसी ने बताया कि जगदीशपुर प्रखंड, जो मेरा भी ब्लॉक है, के गांव लौगांय में एक ही रात में एक सौ से अधिक मुसलमानों की हत्या हुई है. यह बात जानते सभी हैं, मगर किसी अखबार में खबर नहीं छपी है. कुछ लोगों ने मना भी किया कि छोड़ दीजिये, पुरानी बात हो गयी. पर नहीं जाने का सवाल नहीं था.
घटना शायद 27 या 28 अक्टूबर को हुई थी. मैं पहुंचा 20 या 21 नवंबर को. इस बार सिर्फ विजय जी के साथ. जाने के पहले शहर के मुस्लिम संगठनों के लोगों से मिले. उन्होंने कहा कि सीधे लौगांय जाना रिस्की हो सकता है. बगल में एक गांव है बबूरा. मिली- जुली बस्ती है. लौगांय के बचे हुए लोग भी वहीं हैं. उनसे भेंट हो जायेगी. कुछ नाम भी बताया. वहां से जैसा समझ में आये. वह रास्ता-इलाका मेरे लिए भी नया था, सड़क भी ठीक नहीं.
करीब 12 बजे बबूरा पहुंचे. माहौल सामान्य था. लोगों का कहीं आना-जाना बंद था, तो बाजारनुमा चौक पर चहल पहल थी. उस हादसे के बाद वहां बाहर से (पुलिस-प्रशासन और सेना के अलावा) कोई नहीं पहुंचा था. हम बाहरी थे, लोगों में सहज जिज्ञासा थी. मैंने बता दिया कि प्रेस से हैं. लौगांय के लोग भी मिले. पूछा कि गांव में कुछ हिंदू ऐसे भी थे, जिन्होंने आप लोगों को बचाने की कोशिश की? हमलावर गांव के थे या बाहरी? किसी ने बताया कि मुखिया जी का परिवार हम लोग को बचाना चाहता था. लेकिन कुछ नहीं कर सके. हमलावर बाहर के थे. गांव जाने का एक लिंक और आधार मिला. हमने मुखिया जी से मिलना तय किया.
तब लोकसभा चुनाव करीब था, उसी तनाव के माहौल में प्रचार भी चल रहा था. केंद्र और बिहार में कांग्रेस की सरकार थी. राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. भागलपुर में वीपी सिंह (जनता दल) का जोर था. हिंदू और मुसलमान दोनों कांग्रेस से नाराज दिख रहे थे. कारण अलग-अलग. हमने साथ में जनता दल का झंडा और कुछ परचा भी रख लिया था, शायद काम आये.
भागलपुर में दंगा भड़कने का तात्कालिक कारण जो भी हो- मुसलिम बस्ती से जुलूस ले जाने पर आपत्ति, प्रशासन द्वारा अलग रूट तय हो जाने के बावजूद जुलूस उसी मार्ग से ले जाने की जिद, प्रशासन में आपसी मतभेद, पुलिस का रवैया वगैरह. लेकिन मूल कारण वह माहौल था, जो, 'रामशिला' को लेकर निकाले गये जुलूस के कारण बना था.
24 अक्टूबर के तीन-चार दिन पहले से माहौल तनावपूर्ण हो गया था. जगह-जगह से झड़प की सूचना मिल रही थी. गांव-गांव से 'रामशिला' जुलूस गुजरता था. कहने को धार्मिक नारे लगते थे, असल में 'हिंदुओं का खून खौलाने' वाले, भड़काऊ और मुसलमानों को चिढ़ाने-डराने वाले. जैसे- ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान, मुल्ला भागो पाकिस्तान’ और ‘बाबर की औलादो…’ आदि.
इस तरह के दंगों या सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के बाद अक्सर पूछा जाता है कि हिंसा की शुरुआत किसने की? पहला पत्थर किसने चलाया? यह सवाल नहीं किया जाता कि गांव और शहर को इतना विषाक्त किसने बनाया? धर्मोंन्माद कौन लोग भड़का रहे थे? चारों ओर बारूद और पेट्रोल किन लोगों ने छिड़क दिया था कि माचिस की एक तीली से पूरा शहर जल गया?
बाद में कभी बाबूजी ने कहा था- जरा सोचिये कि कुछ लोग एक ईंट को ‘रामशिला’ बता कर मुसलमान के घर के सामने से, उनके मोहल्ले से गुजरते हैं और कहते हैं कि देखो, तुम्हारी मसजिद तोड़ कर इसी ईंट से वहीं पर मंदिर बनयेंगे और ये चाहते हैं कि वे इनका स्वागत करें! नहीं करें, तो वे सांप्रदायिक हैं! उनकी बात विचारणीय थी/ है!
भरसक प्रयास किया कि संक्षेप में लिखूं. सफल नहीं हुआ. मगर उस दंगे की एक और पृष्ठभूमि थी, जिसका उल्लेख जरूरी है और जिस कारण माहौल पहले से तनावपूर्ण बन चुका था.
उन दिनों शहर में दो मुसलिम अपराधी गिरोह सक्रिय और प्रभावी थे, उनका आतंक था. दोनों के बीच आपसी रंजिश भी थी. और माना जाता है कि दोनों को बिहार के कांग्रेस के दो शीर्ष नेताओं का संरक्षण हासिल था. उन नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई के कारण जिला प्रशासन में भी खेमे थे. तत्कालीन पुलिस अधीक्षक केएस द्विवेदी और जिलाधिकारी (डीएम) अरुण झा की आपस में नहीं बनती थी, इस कारण भी 24 अक्टूबर को हालत को ढंग से काबू नहीं किया जा सका.
उन्हीं दिनों एक अपराधी गिरोह ने एक डीएसपी की हत्या कर दी, शायद जिंदा जला दिया था. शहर-समाज में स्वाभाविक आक्रोश था. उसके कुछ दिन बाद पुलिस ने 8 अपराधियों का एनकाउंटर किया. संदेह था कि वह फर्जी मुठभेड़ थी, मरने वाले सभी मुस्लिम. आम हिंदू उस ‘मुठभेड़’ को सही और जरूरी मान रहा था. मुसलिम समाज पक्षपात-हत्या. हिंदू-मुसलमान के बीच की दरार थोड़ी और बढ़ गयी. इस बीच बिसहरी पूजा के आयोजन में परबत्ती, जहां जुली आबादी थी, में विसर्जन के समय झड़प हो गयी. तनाव और बढ़ गया.
ऐसे माहौल में रामशिला जुलूस के आयोजन से पूरे जिले में हिंसक टकराव का माहौल बनता गया, जिसका विस्फोट 24 अक्टूबर को भागलपुर में हुआ. स्वाभाविक की ऐसे माहौल में दोनों तरफ के गुंडे अपने-अपने समाज के नायक बन जाते हैं. हिंदू गुंडे घरों की सुरक्षा के नाम पर वसूली करने लगे. मुस्लिम अपराधी भी अपने समाज के हीरो थे.
नफरत और हिंसा के बीच भी उम्मीद के दीपक
शहर के हिंदू एरिया में लगभग सभी मसजिदों, दरगाहों पर हमले हुए, मगर कमिश्नरी के पास स्थित यहां तक कि मुगल शासक औरंगजेब के भाई शुजा, जिसके नाम पर ही शायद सूजागंज बाजार भी है, के कथित मजार को भी नष्ट कर दिया गया. बस एक मजार बच गयी- घूरन बाबा या 'पीर बाबा'की. इसलिए कि हिंदू भी वहां सिर नवाते थे. आदमपुर घाट से नहा कर लौटते हुए वहां जल और फूल चढ़ाने की परंपरा रही है, सो 'पीर बाबा' बच गये.
एक हिंदू ने अपने घर में 40 मुसलिम शरणार्थियों को शरण दे रखी थी. उत्तेजक हिंदू भीड़ ने घर को घेर लिया- उनको हमारे हवाले करो. लेकिन वह आदमी बंदूक लेकर सामने खड़ा हो गया कि जो सामने पड़ा उसको गोली मार देंगे.
ढेवर द्वार के पास एक जैन परिवार के आहाते में एक आतंकित दर्जी (मुस्लिम) उनकी जानकारी की बिना छिप कर रह रहा था. जब उन्होंने देखा तो वह पैर पर गिर गया- आप तो हमको जानते हैं, हम आपका कपड़ा सीते रहे हैं, जान बचा लीजिये. उस परिवार ने उसकी रक्षा का आश्वासन दिया और निभाया. बावजूद इसके कि आसपास के उत्तेजित हिंदू उन पर दबाव डाल रहे थे कि उसको बाहर निकालिये, वे अड़ गये.
किसी भी सांप्रदायिक दंगे की जवाबदेही से संबद्ध राज्य सरकार बच नहीं सकती. भले ही दंगे की वजह जो भी रही हो. दंगा हुआ, उस पर तत्काल काबू नहीं पाया जा सका, एक हजार से अधिक लोग मारे गये, इससे जिला प्रशासन, यानी राज्य सरकार की अक्षमता साबित होती ही है. इस लिहाज से भागलपुर दंगों के दाग भी कांग्रेस पर हमेशा लगे रहेंगे. और तथ्य यह है कि उसके बाद कांग्रेस दोबारा बिहार में सत्ता में नहीं लौट सकी है. हालांकि इसके लिए सीधे उन दंगों को कारण नहीं माना जा सकता, न ही यह कहा जा सकता है कि दंगे कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार द्वारा प्रायोजित थे.
और रोचक विडंबना यह भी कि जिस भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों (संघ और विहिप) की कारगुजारियों की उनमें प्रत्यक्ष भूमिका थी और जो इसी उन्माद की लहर पर सवार होकर लोकसभा में ’84 की दो सीटों से ’89 के चुनाव में 85 तक पहुंच गयी, आज हिंदी पट्टी पर जिसकी तूती बोल रही है, 11 साल से केंद्र की सत्ता पर काबिज है, वह भी अब तक बिहार की राजनीति में अपने दम पर सत्ता नहीं पा सकी है.
एक सच यह भी है कि उस दंगे में लूट और हिंसा में शामिल जो 'हिंदू फौज' थी, उसका मुख्य हिस्सा पिछड़े वर्ग से आता था. यह कोई नयी बातचीत नहीं थी. हमेशा से ऐसा ही होता रहा है. हालांकि 90 के बाद बिहार का राजनीतिक परिवेश और सामाजिक समीकरण बदला. खास कर यादवों का. राजनीतिक स्वार्थ से ही सही, लेकिन उनका मुसलिम विरोधी तेवर नरम पड़ा.
तब दंगे की रपट के अंत में जो लिखा था, आज पुनः याद से उसे दुहराने का प्रयास करता हूं- भागलपुर में जो देखा-सुना और महसूस किया, उससे एक जन्मना भागलपुरी, बिहारी, हिंदू और भारतीय होने पर शर्मिंदगी का एहसास हो रहा है... इस पर भागलपुर के ही एक पत्रकार मित्र का कमेंट था- आपको ऐसा नहीं लिखना चाहिए था. लेकिन वह एहसास अब भी कायम है, शायद कभी नहीं जायेगा.. इति.

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