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बिहारः दंगल से पहले अखाड़ियों की वर्जिश

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बैजनाथ मिश्र

 

इन दिनों बिहार राजनीतिक फलक पर छाया हुआ है. कारण यह कि यहां चुनाव है. चुनाव की घोषणा से पहले ही आरोप-प्रत्यारोप, गाली-गलौज की कर्कश ध्वनि हवा में तैरने लगी है. रथियों-महारथियों का जुटान होने लगा है. व्यूह रचने और तोड़ने की कलायें सीखी और सिखायी जा रही हैं. अस्त्र-शस्त्र परीक्षित और पुनरीक्षित किये जा रहे हैं. एक-दूसरे के पाले में सेंध लगाने की जुगत भिड़ायी जा रही है. लेकिन इस संभावित महासमर की परंपरागत खासियत यह है कि जाति जाती नजर नहीं आ रही है. हर खेमा इसी जातीय गोलबंदी में लगा है. 

 

वैसे तो यहां मुकाबला महागंठबंधन (राजद-कांग्रेस, वाम मोर्चा और वीआईपी) तथा एनडीए (जद (यू), भाजपा, रालोजपा, हम और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी) के बीच है. इस बार त्रिगर्त नरेश की भूमिका में पीके यानी प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज है. महाभारत में त्रिगर्त नरेश अर्जुन को ललकारते हुए बहुत दूर लेकर चले गये थे. इतनी दूर कि अर्जुन चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु की रक्षा के लिए आ न सके और अभिमन्यु का वध हो गया. पता नहीं प्रशांत किशोर किसके वध का कारण बनेंगे, इस बाबत अटकलें लगायी जा रही हैं, लेकिन उनका एलान है कि वह समर जीतने के लिए लड़ रहे हैं, न कि किसी को हराने के लिए.

 

दूसरा दृश्य यह है कि दोनों प्रमुख गंठबंधनों के पास संजय हैं. एनडीए वाले संजय तो तैयारियों का जायजा ले रहे हैं, लेकिन महागंठबंधन वाले संजय के कारण इसके हरावल दस्ते की लालटेन भभकने लगी है. घर और पार्टी से निकाले गये ज्येष्ठ पुत्र तेज प्रताप तो पहले से ही उन्हें जयचंद की उपमा से विभूषित कर रहे थे, अब परिवार के मुखिया की लाडली बिटिया रोहिणी आचार्य ने भी उन पर तोहमत लगा दी है. रोहिणी ने किडनी देकर मुखिया जी की जान बचायी है. इसके एवज में वह पार्टी और परिवार में खास अधिकार चाहती है. मीसा भारती भी मौजूदा हालात में खिन्न हैं, लेकिन कुछ बोल नहीं रही हैं. उधर विरासत की रक्षा के लिए सन्नद्ध तेजस्वी संजय की गिरफ्त में हैं. ये संजय महाशय हरियाणा यानी करूक्षेत्र के हैं. इसलिए तेजस्वी उन्हें युद्ध कला और नीति में निष्णात मानते हुए अपने सिर पर बैठाये हुए हैं. लेकिन विरासत के दूसरे दावेदारों को वह सुहा नहीं रहे हैं. अब उन्हें कौन समझाए कि तेजस्वी की पत्नी भी मूलतः हरियाणवी है. इसलिए संजय का भाव दोगुना होना स्वाभाविक है. लेकिन इससे भी बड़ी परेशानी कांग्रेस पैदा कर रही है. उसे पहले से ज्यादा सीटें चाहिए. ज्यादा ना मिलें तो उतनी जरूर मिले, जितनी पिछली बार मिली थीं और ये सीटें क्वालिटी वाली यानी जीतने लायक होनी चाहिए. राजद इसके लिए तैयार नहीं है. कोढ़ में खाज यह कि कांग्रेस तेजस्वी को बतौर मुख्यमंत्री पेश करने के लिए तैयार नहीं है.

 

दरअसल, कांग्रेस बिहार में अपनी हैसियत बढ़ाने के लिए नये-नये उपक्रम रच रही है. पहले राहुल गांधी ने वोट चोरी के खिलाफ यात्रा निकालकर तेजस्वी को पिछलग्गू बना लिया, बाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पटना में आयोजित कर नया दबाव बना दिया. बिहार में कांग्रेस की यह बैठक 1940 के बाद पहली बार हो रही है. दरअसल, कांग्रेस को इत्मीनान हो गया है कि अल्पसंख्यक वोट उसके साथ लौट आये हैं. इसलिए यदि राजद ने बात नहीं मानी और गंठबंधन टूट गया तो कांग्रेस को खास घाटा नहीं होगा. कांग्रेस के रणनीतिकारों ने शायद हिन्दी पट्टी में क्षेत्रीय दलों को हाशिए पर धकेलने की योजना बना ली है, ताकि अपनी सीटें बढ़ायी जा सके और भाजपा को फैसलाकुन टक्कर दी जा सके.

 

इस महागंठबंधन के लिए वीआईपी भी सिरदर्द है और वाम मोर्चा भी बड़ा रोड़ा है. वाम मोर्चा चाहता है कि उसे 43 सीटें मिलें और शेष दो सौ सीटें कांग्रेस-राजद-वीआईपी आपस में बांट लें. उधर वीआईपी भी 30-40 सीट मांग रही है. हिसाब बैठ नहीं रहा है, इसलिए राजद की पेशानी पर बल पड़ना वाजिब है. 

 

उधर एनडीए में भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है. चिराग पासवान सम्मान से समझौते के लिए तैयार नहीं हैं. वह अपनी माता जी को राज्यसभा भेजना चाहते हैं और अपने जीजा जी के लिए उप मुख्यमंत्री पद की मांग कर रहे हैं. उन्हें 30-40 सीटें भी चाहिए. नहीं मिलीं तो वह सभी सीटों पर लड़ने का मंसूबा पाले बैठे हैं. उन्हें अभिमान है कि लोकसभा चुनाव में उनका स्ट्राइक रेट सौ फीसदी था. यानी पांच सीटें लड़े और सभी जीत गये, लेकिन क्या वह अपने बूते अपनी हाजीपुर की सीट तक जीत पाते? लेकिन चिराग फिलहाल बारगेनिंग के मूड में हैं. पिछली बार वह अकेले लड़कर जीते तो एक सीट लेकिन एनडीए खासतौर से जद(यू) का भट्ठा बैठाने में सहायक जरुर बन गये. उपेंद्र कुशवाहा बहुत उठा-पटक में नहीं हैं और जद(यू)-भाजपा में भी लाग-डांट की स्थिति नहीं है. लेकिन हम के मुखिया जीतन राम मांझी डेढ़ दर्जन सीटें मांग रहे हैं. वह अपनी पार्टी को मान्यता प्राप्त दल का दर्जा दिलाना चाहते हैं. इसके लिए छह फीसदी वोट या आठ विधायक चाहिए. अभी हम सिर्फ रजिस्टर्ड दल है. इसके लिए वह अपनी बिरादरी के वोटों का हवाला दे रहे हैं. पता नहीं उनकी मनोकामना पूरी होगी या नहीं, लेकिन वह बगावत का झंडा उठा लेंगे इसकी संभावना कम है. 

 

जहां तक रणनीति की बात है, ऐसा लगता है कि एनडीए विकास बनाम जंगलराज को मुख्य मुद्दा बनाएगा तो महागंठबंधन सीधे नरेंद्र मोदी को टारगेट करेगा. प्रशांत किशोर ना मोदी पर हमला करेंगे न नीतीश को घेरेंगे. वह दोनों दलों के दूसरे नेताओं पर निशाना साधेंगे और अपना रथ आगे बढ़ायेंगे. नरेंद्र मोदी को महागंठबंधन इसलिए निशाना बना रहा है, क्योंकि एनडीए के पक्ष में माहौल मोदी ही बना पायेंगे और बाकी काम जातीय गोलबंदी से हो जाएगा. मोदी भ्रष्टाचार और राष्ट्रवाद को मुद्दा बना रहे हैं और वंशवाद तथा विकास के मुद्दे पूरक के रुप में सामने आ रहे हैं. यह चुनाव ऐसे समय में हो रहा है जब वोट चोर गद्दी छोड़ के नारे लगाये जा रहे हैं, चुनाव आयोग पर लानत भेजी जा रही है और युवाओं को उपद्रव के लिए उकसाया जा रहा है. चुनाव आते-आते इसमें कुछ और मुद्दे जुड़ेंगे. स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर भी कुछ मुद्दे उभरेंगे. लेकिन बाजी वही मारेगा जो सीट के हिसाब से समीकरण बैठाकर उम्मीदवार उतारेगा, जिसके कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर ज्यादा सक्रिय होंगे और अपने चिन्हित वोटरों को बूथ तक पहुंचा देंगे.

 

जहां तक चुनावी साधन-संसाधन की बात है, कोई किसी से कम नहीं रहेगा. राज्य सरकार अभी से अपना खजाना लुटा रही है और रेवड़ियां बांट रही हैं. आजकल चुनाव जीतने का यह आजमाया हुआ नुस्खा है. व्यवस्था के मामले में प्रशांत किशोर दोनों गंठबंधनों को बराबर की टक्कर दे रहे हैं और देंगे. इसलिए यह चुनाव अभूतपूर्व होगा, देखने लायक और अनुमान से परे होगा. दशहरे के बाद जब चुनाव की घोषणा होगी, तो गठबंधन आकार ले लेंगे, सीटें बंट जायेंगी, उम्मीदवारी तय होने लगेगी और जनसभाएं, रैलियां शुरु हो जायेंगी, तब तस्वीर धीरे-धीरे साफ होने लगेगी. यह चुनाव देखने और समझने लायक होगा. इसलिए चुनावों में दिलचस्पी लेने वाले विश्लेषक और राजनीतिज्ञों को इस बार का बिहार चुनाव बहुत कुछ सिखा देगा. 

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