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बिरसा की शहादत स्मृति आदिवासी चेतना का अभिन्न हिस्सा है

Faisal Anurag
बिरसा मुंडा आदिवासियों के दिलों की धड़कन की तरह उनकी स्मृतियों और जिंदगी की बेहतरी के संघर्ष के प्रेरक,मार्गदर्शक और दार्शनिक की तरह मौजूद हैं. मृत्यु के 121 साल बाद बिरसा मुंडा झारखंड ही नहीं दुनिया भर के आदिवासियों की अस्मिता, प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासी हक और एक वैकल्पिक विश्व के विमर्श के केंद्र में हैं. अफ्रीकी लेखक चिनुवा अचिबे ने उत्पीड़कों को अपना इतिहास खुद लिखने की राह प्रशस्त किया और इसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनायी पड़ने लगी. बिरसा मुंडा का इतिहास और संघर्ष उसी धारा में एक सशक्त नयी राह है.

बिरसा मुंडा शहादत के 121 साल साल बाद भी झारखंड के सूदूर गांवों में पूरी शिद्दत जज्बे और संकल्प के साथ याद किए जाते हैं. बिरसा मुंडा के शोधकर्ता और उनकी जीवनी को पहली बार बौद्धिक मानकों के साथ लेखन करने वाले डॉ. कुमार सुरेश सिंह ने गांवों में बिरसा को याद किए जाने का एक जीवंत विवरण लिखा है. खूंटी में एसडीओ के रूप में पदस्थापित डॉ. सिंह एक गांव में रात में ठहरे हुए थे. उन्होंने लिखा है : मैं 30 दिसंबर 1960 को मैं खूंटी से 28 किलोमीटर दूर,उबड़-खाबड़ पहाड़ियों की सर्पीली पंक्तियों के उस पार,बीरबांकी गांव में ठहरा हुआ था. रात के प्रारंभ का समय था. कुछ मुंडा उत्सावाग्नि के चारों ओर सामूहिक नृत्य करते हुए एक गीत गा रहे थे, जो बिरसा द्वारा 1900 के अंत में छेड़े गए मुंडाओं के एक महान उलगुलान के बारे में था :

भाइयों,बहनों और बच्चों
भागो एक आंधी आ रही है,
हमारी पृथ्वी आंधी से ढंक गयी,
हमारे आकाश में कुहासा छा गया,
हमारा देश बहता जा रहा है,
अब हमें रास्ता दिखायी नहीं पड़ेगा,
हमारा देश अंधकारमय हो गया है.

यह उस क्रांतिकारी गीत की कुछ पंक्तियां हैं, जो बताती है कि मुंडाओं के गांव में बिरसा मुंडा किस तरह याद किए जाते हैं. 1960 में सुने गए इस गीत को आज भी किसी भी गांव में कभी भी अखाड़ों में सुना जा सकता है. ऐसे हजारों गीत हैं, जिसे गांव के लोगों ने सामूहिक तरीके से तैयार किया है और अपनी यादों में संजो रखा है. इससे जाहिर होता है कि बिरसा मुंडा आदिवासी गांवों में चाहे शादी ब्याह हो या कोई पर्व त्योहार गीतों के माध्यम से उठ खड़े होते हैं और जल,जंगल जमीन के अधिकार के आंदोलन की चेतना से लोगों को लैस कर देते हैं. यह सिलसिला न केवल खूंटी बल्कि दूरदराज पोड़ाहाट और सारंडा के जंगलों के बीच रातों के सन्नाटे को चिरते हुए अपनी बेचैन सुरों में ध्वनित होने लगता है. इन इलाकों में पिछले साढ़े तीन दशकों से बहुत कुछ बदला है. अब बंदूकों के शोर भी हैं और दहशत भी. बावजूद इसके आदिवासियों की यह उम्मीद अपराजेय है कि एक दिन बिरसा उलगुलान की असमाप्त कथा अंजाम तक पहुंचेगी.


गांवों में आदिवासी चेतना का एक बोध है और उस बोध को जिन सांस्कृतिक विशेषताओं से गढ़ा गया है, उसमें बिरसा मुंडा की सबसे बड़ी भूमिका है. मुंडाओं के लिए बिरसा मुंडा बार-बार जीवित होते हैं और वे पूरी अपने लोगों को पूरी ताकत के साथ लड़ने की चेतना देते हैं. यही वह चेतना है, जिसे मुंडाओं ने कभी विस्तृत नहीं होने दिया है. उनके लिए बिरसा मुंडा की याद रस्म अदायगी भर नहीं है. यही कारण है कि बिरसा मुंडा न केवल 9 जनवरी,9 जून और 15 नवंबर को याद किए जाते हैं. बल्कि जब कभी गांवों में रातों का सन्नाटा मांदर की थाप से टूटता है गीतों में वे जीने लगते हैं.

मानों बिरसा मुंडा को इस गांव से विदा हुए कुछ ही पल गुजरे हैं. गांवों में बिरसा को तो शादी ब्याह हो या पर्व त्योहार हर समय भी याद किया जाता है.आदिवासियों के इतिहास दर्शन का जो नया फलक तैयार होने की प्रक्रिया में है. उसमें बिरसा मुंडा होना एक विशिष्ट अनुभूति है. अफ्रीकी लेखक चिनुआ अचिबे ने जब से शिकार हुए लोगों को अपना इतिहास कुछ लिखने की प्रेरणा दी, दुनियाभर में अनेक आदिवासी नायक अपने गांव,जंगल और देश की सीमाओं को लांघ कर एक दूसरे के विमर्श का हिस्सा बन गए हैं. इसमें बिरसा मुंडा बेहद महत्वपूर्ण है. बिरसा मुंडा को आदिवासी गांवों में याद करते हुए अनगिनत गीतों की रचना की गयी है. ये गीत खेती करते हुए और चरवाही के समय भी सुनायी पड़ने लगता है. महिलाओं ने अपने गीतों में भी बिरसा मुंडा की याद सुनायी पड़ती है.

आदिवासी लोकोक्ति है : जहां चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत. यह प्राचीन समय से मुंडाओं के अस्तित्व के तमाम उपक्रमों में मौजूद रहा है. बिरसा की याद गांवों ने इसी रूप में संजो रखी है. गांवों के किसी भी आयोजन में अचानक यह गीत गूंजने लगता है, जिसका भाव यह है कि डुंबारी पहाड़ पर बिरसा के मांदर की थाप पर उनके लोग नाच रहे थे. इस गीत में आगे की पंक्तियों में रक्त में डूबो दिए गए डुंबारीबुरू पर हुए नरसंहार का विवरण है. यह गीत आदिवासी चेतना के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाता है. माना ताजा है कि पिछले 121 सालों से जंगलों के सन्नाटे को यह गीत बार-बार बेचैनी के साथ तोड़ता है.

सिम्बुआबुरू मुंडाओं का एक पवित्र सांस्कृतिक स्थल है. यह बिरसा मुंडा के उलगुलान का भी एक प्रतीक स्थल के बतौर याद किया जाता है. इस पर हर साल हजारों की संख्या में आदिवासी जमा होते हैं. इसमें बिरसा मुंडा को भी याद किया जाता है और एक गीत जरूर गाया जाता है जिसमें बिरसा के उलगुलान, उनकी शहादत और उनके विचारों को जीवंत किया ताजा है. इस गीत का भाव है ओ, बिरसा तुमने वे सारे मंत्र दे दिए हैं, जिसपर चल कर मुंडाओं को तमाम तकलीफों से मुक्त होने की राह मिलती है. इसी तरह एक और गीत में कहा गया है, जो बिरसा मुंडा की स्मृति में मुंडा गांवों में गाया जाता है, रांची जेल में तुम्हें पिंजड़े में बंद कर दिया गया, लेकिन तुमने अपनी ताकत से फिरंगी राज को हिला दिया. तुमने अपने लोगों के लिए यातनाओं को झेला. लेकिन पूरे मुंडा दिशुम का नाम रोशन कर दिया.

एक और गीत में मुंडा उन्हें याद करते हैं बिरसा तुम ही थे, जिसने हमें बताया कि किस तरह हमारे पुरखों ने सांप बाघ भालू के जबड़े से छीन कर हमारे दिशुम को बनाया, हम इस खुशनुमा दिशुम की जमीन और जंगल को कभी किसी को छीनने नहीं देंगे. तो इस तरह गीतों में बिरसा को गांवों में बार-बार याद किया जाता है. शहादत दिवस पर इसी तरह याद किए जाते हैं उलगुलान के प्रणेता बिरसा मुंडा.

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