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विपक्षी एकता की चुनौतियां

Premkumar Mani मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने अपने महत्वाकांक्षी भारत जोड़ो यात्रा में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है और इसका कुछ सकारात्मक असर भी दिख रहा है. लेकिन सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच वोटों और सीटों का इतना बड़ा फासला है कि कांग्रेस व दूसरी प्रतिपक्षी पार्टियों का उससे मुकाबला आसान नहीं होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने शानदार सफलता हासिल की है. 2014 के मुकाबले उसने 6.36 फीसद वोट और 21 अधिक सीटें हासिल की थीं. उसे अकेले 303 और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ कोई 350 सीटें हासिल हुई थीं. इसके मुकाबले उसे राजनीतिक चुनौती देने वाली कांग्रेस पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले केवल 0.18 फीसद वोट और 8 सीटें अधिक मिली थी. दोनों के बीच वोटों का अंतर लगभग दुगुने का था. कांग्रेस के 19 .49 % के मुकाबले भाजपा को 37 .36 % वोट प्राप्त हुए थे. इस बीच ऐसा कुछ भी खास नहीं हुआ कि यह आशा की जाय कि कांग्रेस के दिन बहुरने वाले हैं. इस बीच विधानसभा के चुनावों से भी ऐसे कोई संकेत नहीं मिले कि यह कहा जा सके कि भाजपा के लिए मुश्किलें हैं. लेकिन राजनीति में निश्चित तौर पर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. 1971 और 1984 में कांग्रेस की स्थिति आज की भाजपा से कहीं अधिक बुलंद थी, लेकिन 1977 और 1989 के चुनाव में उसकी क्या स्थिति हुई थी, इसे सब जानते हैं. लेकिन जो उन राजनीतिक हालातों से अवगत हैं, वे जेपी और वीपी के व्यक्तित्व और उस दौर के राजनीतिक घटनाक्रम से भी परिचित हैं. 1977 में भारतीय मतदाताओं का जोर आपातकाल की ज्यादतियों के विरोध पर अधिक था, वैसे ही 1989 में उसका जोर बोफोर्स जैसे भ्रष्टाचरण के विरोध पर अधिक था. उपरोक्त दोनों चुनावों में विपक्षी दलों की व्यापक एकता भी संभव हुई थी. 1977 में तो अनेक कुनबों के समाजवादी संघटन कांग्रेसी और जनसंघी इकट्ठे होकर जनता पार्टी के रूप में आए थे. 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा और वाम मोर्चा तो बना ही था, उसके पूर्व भाजपा छोड़ तमाम पूर्व जनता पार्टी के घटक दल जनता दल के रूप में संगठित हो गए थे और इसमें कांग्रेस के भी वीपी सिंह और अरुण नेहरू जैसे कुछ कद्दावर नेता आ मिले थे. क्या आज वैसी स्थितियां बन रही हैं ? कांग्रेस आंतरिक स्तर पर सुधरने की कोशिश जरूर कर रही है, लेकिन उसकी मुश्किलें इतनी हैं कि राजनीतिक `ग्लासनोस्त ` का सकारात्मक प्रभाव भी हुआ तो उसे आत्मसुधार में लम्बा समय लगेगा. इंदिरा-संजय के कार्यकाल में कांग्रेस विचारों और कार्यक्रमों से दूर होती गई थी. यह सब क्या इंगित करता है ? क्या इससे कोई उम्मीद बनती दिखती है कि कांग्रेस कार्यकर्त्ता भाजपा द्वारा खड़ी चुनौतियों का मुकाबला कर सकेंगे? शायद नहीं. ऐसे में कोई करिश्मा ही सक्षम प्रतिपक्ष खड़ा कर सकता है. ऐसा करिश्मा तब होता है, जब भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मुद्दा आ जाय या फिर श्रीलंका या पाकिस्तान की तरह भयावह आर्थिक संकट आ जाय. ऐसे में जनता और परिस्थितियां नेता और शक्ति का निर्माण स्वयं कर लेती हैं. लेकिन फिलहाल इसकी कोई संभावना नहीं दिखती. प्रतिपक्ष के पास सबसे बड़ा संकट विचारों का है. समाजवादी विचार बहुत हद तक अप्रासंगिक हो चुके हैं. प्रतिपक्ष से जुड़े लगभग सभी दल उससे किसी न किसी स्तर पर जुड़े हुए थे. कांग्रेस का नेहरूवादी समाजवाद यानी मिश्रित अर्थव्यवस्था से जो लगाव था, उसे नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकारों ने ख़त्म कर दिया. 1991 से कांग्रेस ने भी पूर्णरूप से पूंजीवादी अर्थनीति को स्वीकार लिया. भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में बुनियादी अंतर अब नहीं रह रह गया है. कम्युनिस्ट पूरी दुनिया में वैचारिक स्तर पर अप्रासंगिक हो चुके हैं. यही कारण है कि नई पीढ़ी के बीच उनका कोई आकर्षण नहीं रह गया है. चूंकि उन पार्टियों के पास पार्टी-कोष है और कुछ मठनुमा दफ्तर हैं, इसलिए पुराने लोग जमे हुए हैं. इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. हां, समाजवादी और सामाजिक न्याय का बैनर लगाए मंडलवादी घरानों के पास थोड़ी जन शक्ति जरूर शेष है. लेकिन ये बिखरे हुए हैं और सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इनके बीच भी आंतरिक लोकतंत्र और नैतिकता का घोर अभाव है. उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी , बहुजन समाजपार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड का प्रांतीय स्तर पर थोड़ा प्रभाव जरूर है, लेकिन इससे कोई राष्ट्रीय प्रतिपक्ष बन सकता है इसकी दूर -दूर तक कोई उम्मीद नहीं बनती. पिछले वर्ष बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अचानक भाजपा से स्वयं को अलग कर राष्ट्रीय प्रतिपक्ष देने का ख्वाब बनाया था. दिल्ली जाकर वह उन दलों के नेताओं से मिले, जो एक सीट भी किसी प्रान्त में नहीं जीत सकते. जल्दी ही उन्हें हकीकत का अहसास हो गया. उनके इस अहसास ने बिहार में महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. लम्बे समय तक राजद और जदयू का साथ रहेगा, इसमें सन्देह है. अनुमान यही है कि इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा को लाभ मिलना है. दरअसल प्रतिपक्ष तभी ताकतवर बन सकता है, जब भाजपा के विरुद्ध राजनीतिक स्तर पर नैतिक और वैचारिक संघर्ष हो. इसके लिए आवश्यक होगा कि प्रतिपक्षी दल स्वयं अपनी समन्वित नैतिकता प्रदर्शित करें. इसके साथ एक विचार और कार्यक्रम केंद्रित राजनीति के वास्ते राष्ट्रीय सम्मेलन हो. इससे एक राजनीतिक आकर्षण विकसित हो सकता है ,जिसके इर्द -गिर्द युवा मतदाताओं और भाजपा विरोधी मतों को संगठित कर एक सक्षम प्रतिपक्ष उभर सकता है. लेकिन इसके लिए एक करिश्माई नेता की जरूरत होगी. प्रतिपक्षी दल समकालीन राजनीतिक चुनौतियों का आकलन करने में विफल रहे हैं. इसके बिना वे उसका मुकाबला कैसे करेंगे. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]

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