सिविल संहिता: अफसाना या हकीकत!

Shyam Kishore Choubey अमेरिका और मिस्र के दौरे से लौटते ही प्रधानमंत्री ने 27 जून को भोपाल में कई राज्यों से जुटे भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए समान सिविल संहिता लागू करने की बात कही. यह नया विषय कतई नहीं है. संविधान में इसका बाकायदा उल्लेख है. हमारे संविधान के 44वें अनुच्छेद में कहा गया है, ‘राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा’. संविधान ने निर्देश नहीं दिया है, अपितु उदारवादी रुख अख्तियार करते हुए केंद्र सरकार को इस दिशा में प्रयास करने को कहा है. हमारी सरकारें इस विषय पर आंख मूंदे नहीं रहीं. समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी के लिए अबतक 22 विधि आयोगों का गठन किया जा चुका है. जस्टिस ऋतुराज अवस्थी पिछले नवंबर में गठित 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष हैं. इसके पूर्व 21वें विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस चौहान ने 2018 में सरकार को सौंपी अपनी 185 पेज की रिपोर्ट में यूसीसी लागू करने के प्रयास को खारिज करते हुए कहा था, अभी वक्त नहीं आया है. उस आयोग को लगभग 75 हजार सुझाव मिले थे. वर्तमान आयोग को करीब साढ़े उन्नीस लाख सुझाव मिले हैं. विधि एवं न्याय मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की बैठक में पिछले सोमवार को आयोग ने अबतक का फ्रेमवर्क प्रस्तुत किया. विधि एवं न्याय मंत्रालय की इस संसदीय समिति के सभापति सांसद सुशील कुमार मोदी ने कहा कि पूर्वोत्तर एवं अन्य आदिवासी क्षेत्रों को समान सिविल संहिता के दायरे से अलग रखा जा सकता है. इसके पहले ही नगालैंड के मुख्यमंत्री नेइफियू रियो ने कह दिया था कि फ्रीडम हमारे संविधान का बेसिक हिस्सा है, हम यूसीसी लागू किये जाने के खिलाफ हैं. मेघालय के मुख्यमंत्री कोनार्ड संगमा ने कहा कि हमें लगता है कि पूर्वोत्तर में अनूठी संस्कृतियां हैं, हम चाहते हैं कि ये संस्कृतियां बनी रहें और इन्हें छुआ न जाए. इन दोनों राज्यों की सत्ता में भाजपा भागीदार है. सोशल मीडिया में एक बात खूब तैर रही है कि नरेन्द्र मोदी सरकार 17 जुलाई से प्रस्तावित संसद के मानसून सत्र में ही यूसीसी विधेयक लेकर आनेवाली है, जबकि 13 जुलाई तक विधि आयोग को सुझाव दिया जा सकता है. ऐसी स्थिति में लगता नहीं कि सरकार इतनी हड़बड़ी में विधेयक लाएगी. यूं, यूसीसी भाजपानीत सरकार का तीसरा ब्रह्मास्त्र है. इसके पहले वह कश्मीर में लागू धारा 370 में परिवर्तन और सुप्रीम कोर्ट के न्यायादेश पर राम मंदिर जैसे अस्त्रों का संधान कर चुकी है. माना यही जा रहा है कि जनवरी 2024 में राम मंदिर का लोकार्पण करने का प्रोग्राम उसी उद्देश्य से तय किया गया है, जिस उद्देश्य से यूसीसी लाने का प्रयास किया जा रहा है. वह सर्वविदित उद्देश्य है, वोटों का ध्रुवीकरण कर 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना. हमें नहीं भूलना चाहिए कि संविधान सभा में यूसीसी की बहस का अंत करते हुए डॉ. बीआर अम्बेडकर ने कहा था, ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड वैकल्पिक व्यवस्था है. राज्य तत्काल यह प्रावधान लागू करने को बाध्य नहीं है. राज्य जब उचित समझे तब इसे लागू कर सकता है’. लगातार दो लोकसभा चुनाव जीतने के बाद अब तीसरी विजय हेतु लगता है कि मोदी-शाह के जमानेवाली भाजपा के लिए वह उचित समय आ गया है. बहरहाल, यूसीसी विषयक चार मसले महत्वपूर्ण हैं; विवाह और तलाक के मसले, गोद लेने का प्रावधान और उत्तराधिकार यानी पैतृक संपति में अधिकार. इन चारों ही मसलों पर भारतीय समाज में विविधता है. इसी कारण सिखों को हिंदू मानने के बावजूद उनके लिए अलग से आनंद मैरिज एक्ट लाने की जरूरत पड़ी थी. अपने समाजों में ये कार्य अलग-अलग रीति-रिवाजों से संचालित होते रहे हैं. रीति-रिवाज परंपरागत होते हैं. जब इनको सरकारी बही-खातों में दर्ज कर लिया जाता है, तब ये कानून बन जाते हैं. अपने यहां हिंदू, मुस्लिम, सिख, आदिवासी, ईसाई, पारसी आदि तरह-तरह के समाज हैं. हिंदू समाज का ही उदाहरण लिया जाय तो दक्षिण और उत्तर के रीति-रिवाजों में काफी अंतर है. यहां तक कि उत्तर भारत के भी हिंदू समाज में एक तरह के रीति-रिवाज नहीं हैं. इसलिए सबको समेटते हुए सामान्य और सर्वमान्य सिविल कोड लाना आसान नहीं होगा. कानूनी जामा पहना भी दिया जाय तो उसका अनुपालन किस हद तक हो पाएगा, कहना कठिन है. हम देख रहे हैं कि 1962 में बने दहेज प्रतिषेध कानून का किस हद तक अनुपालन होता है. हाल के वर्षों से लागू शिक्षा का अधिकार हो कि सूचना का अधिकार, तथाकथित सिविल सोसाइटी ही इन्हें किस कदर हाशिये पर डालती जा रही है, यह हर कोई देख-समझ रहा है. सबसे बड़ी बात यह कि सरकार को यदि यूसीसी लागू करना ही है तो इसे चुनाव से जोड़कर क्यों देखा/दिखाया जा रहा है और इसको लेकर कुछ पक्षों द्वारा हाय-तौबा क्यों मचाई जा रही है? जाहिर सी बात है, सभी पक्षकारों को वोट भर से ही मतलब है. किसी भी कानून को जबतक समाज अंगीकार नहीं कर लेता, तबतक वह या तो बेमानी बना रहता है या किसी न किसी रूप में भयादोहन का संसाधन बन जाता है. लोकसभा चुनाव 2024 को देखते हुए भाजपा एक तरफ अकाली दल से हाथ मिलाने का प्रयास कर रही है, आदिवासियों को साधने के तरह-तरह के उपक्रम कर रही है और ऐसे ही अनेक राजनीतिक प्रपंच रच रही है, दूसरी तरफ समान सिविल कोड लाने की जल्दबाजी भी दिखा रही है. इन सारी चीजों को वह कैसे साधती है, यह देखना कम दिलचस्प न होगा. इस संहिता को संसद में पेश कर और लटका कर भी तो वह अपना हित साध ही सकती है. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]
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