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चुनावों पर मंडराते संशय के बादल

Nishikant Thakur

 

 

चुनाव से पूर्व उसके भविष्य का विश्लेषण करने का तात्पर्य केवल तथाकथित हवा का रुख भांपना होता है. सामान्य जनता इससे भ्रमित होकर निस्संदेह अपने मतदान करने के विचार पर बार बार मंथन करती है. यह विश्लेषण केवल संदेह जताने के लिए किया जाता है और प्रायः जनता इसमें उलझ भी जाती है. पिछले कुछ वर्षों में जब से मीडिया ने अपना व्यापक प्रभाव समाज पर डालना शुरू किया है तब से जनता केवल उलझती ही रही है. 

 

इसी से भ्रमित होकर आप प्रचार के कारण ऐसे प्रत्याशी के प्रति अपना विश्वास प्रकट कर देते हैं, जो नितांत अयोग्य होता है, न्यायालय से वांछित अपराधी तक होता है. लेकिन वही कुछ दिन बाद आपको अप्रिय लगने लगता है, फिर आप अपने किए पर पछताने लगते हैं. सच तो यह है, जनता को भ्रमित करने के लिए नहीं, बल्कि समाज को सही दिशा दिखाने, सूचना देने और विचार व्यक्त करने का अधिकार संविधान देता हैं, लेकिन हम चुनावी काल में उसका जी भरकर दुरुपयोग करते हैं. 

 

यदि हमारा देश शतप्रतिशत शिक्षित हो जाए, तो इस तरह नहीं होगा. जिसे मध्यस्थ होने के लिए हमारा संविधान अधिकार देता है, वह पक्षपाती ही साबित हो जाता है. मनुष्य, मानुष, मनुज, मानव- यह चारों शब्द 'मनु' की, यानी ज्ञानी की संतान बनने का संकेत कर रहे हैं. हम खूब ज्ञानी बनें, लेकिन ऐसा कहां हो रहा है! क्योंकि हमें तो कोई भी दिग्भ्रमित कर देता है.

 

बहरहाल, इसबार बिहार विधानसभा चुनाव पर चर्चा करते हैं. अभी राजनीति में बिहार विधानसभा का चुनाव ही छाया हुआ है. सभी राजनीतिक दल यहां तक कि राजनीति से जो कुछ भी जुड़े हुए हैं, सबके बीच यही चर्चा का विषय रहता है. हां, अभी कुछ दिन पहले ही चुनाव के पहले चरण की नामांकन के साथ शुरुआत हो गई है. अब सचमुच सभी प्रत्याशी खुलकर अपने दमखम का प्रदर्शन करेंगे, लेकिन होगा वही, जो जनता चाहेगी. 

 

इस चुनाव में इतना तो होगा ही कि चुनाव आयोग पर वोट चोरी का आरोप नहीं लग पाएगा, इसकी आशा अब सब करने लगें हैं. यह इसलिए क्योंकि चुनाव आयोग पर विपक्षी दलों द्वारा जो प्रचार प्रसार देशभर में और विशेष रूप में बिहार में जो सफल रैली नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और तेजस्वी यादव द्वारा करके दमखम दिखाया गया उससे चुनाव आयोग दहशत में है और फिर अब जनता भी इस मामले में सक्षम हो गई है, जागरूक हो गई है. वोट चोरी के खिलाफ राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की पदयात्रा का इतना लाभ तो होता दिख रहा है, लेकिन कंप्यूटरीकृत चुनाव में कब क्या खेल हो जाए, इस पर अभी से कुछ कहना बेमानी होगी.

 

ऐसा इसलिए भी सोचने पर विवश हो जाना पड़ता है कि पिछले दिनों हरियाणा, महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव के लिए कहा जाता था कि इस बार एनडीए की सरकार वहां नहीं बन पाएगी, लेकिन सबका अनुमान, सबकी समीक्षा गलत हुई और एनडीए की सरकार बन गई. वैसे इन दिनों राज्यों में हुए चुनाव विवाद के घेरे में है ही, लेकिन विपक्षी तो आरोप लगा ही रहे हैं और कई मामले तो अदालत में निर्णय के लिए रुके हुए हैं. 

 

विपक्षी दलों के नेता राहुल गांधी ने जो प्रेस कॉन्फ्रेंस करके चुनाव आयोग को सरेआम नंगा किया है, वह तो ऐतिहासिक है. इन मुद्दों पर कोई सोच भी नहीं सकता था कि किस प्रकार अपने पक्ष के मतदाताओं को शामिल किया जा सकता है और किसे मतदान से वंचित किया जा सकता है. नया कंप्यूटरीकृत चुनाव इतना पक्षपाती भी हो सकता है उस पर कोई विचार भी नहीं कर सकता था. लेकिन, जब सच्चाई सामने आई तो चुनाव और चुनाव आयोग, दोनों की विश्वसनीयता निश्चित रूप से प्रभावित हुई है. इस प्रत्यक्ष प्रमाण के बाद भी चुनाव आयोग तो इसे स्वीकार नहीं ही कर रहा है, लेकिन सरकार उसका पक्ष लेने से बाज नहीं आ रही है. 

 

यह कोई बात नहीं होती कि आरोप किसी पर लगे और उसका उत्तर किसी और द्वारा दिया जाए. यह तो हो सकता है कि सरकार घोषणा कर दे कि हम इन आरोपों के लिए जांच कमेटी का गठन करेंगे और आरोपों की निष्पक्ष जांच कराएंगे, लेकिन ऐसी कोई घोषणा सरकार की ओर से अब तक नहीं की गई है. बिहार चुनाव में इन सारी बातों को विपक्ष जनता के समक्ष तो उठाएगा ही, लेकिन सच और झूठ का पर्दाफाश तो तभी होगा, जब कंप्यूटरीकृत चुनाव को हटाकर बैलेट पेपर से कराएं जाएं, लेकिन क्या सरकार इस पर सहमत होगी? विचारणीय प्रश्न यह  भी है.

 

चुनाव में वोटों  की चोरी का मुद्दा तो तभी और गरमाया जब कर्नाटक के एक विधानसभा और हरियाणा के एक विधानसभा चुनाव में की गई हेराफेरी का प्रेस कॉन्फ्रेंस में पर्दाफाश किया गया. इन चुनावी विश्लेषणों के बाद मामला बिल्कुल केंद्रीय सरकार पर उल्टा पड़ गया और जहां बिहार में भी एनडीए गठबंधन का पलड़ा मजबूत दिखाई दे रहा था, अब उसका तार दरकता दिखाई देता है. अब वर्तमान सरकार ही संदेह के घेरे में आकर ठहर जाती है कि क्या अब तक जो भी चुनाव हुए, वे सभी हेराफेरी से बनाई गई सरकार थी? यदि ऐसा है तो इसकी गहन जांच कराई जानी चाहिए , लेकिन क्या इन सभी मुद्दों की जांच कराई जा सकेगी? जनता के मन में उठे संदेहों को दूर तो करना ही पड़ेगा, अन्यथा इन आरोपों से चुनाव आयोग और केंद्रीय सरकार निष्पक्ष कैसे मानी जा सकती है. 

 

अभी एक कार्यक्रम में गृहमंत्री ने कुछ गंभीर मुद्दों को उठाया जो आज के परिपेक्ष्य में बहुत ही आशाजनक है. गृहमंत्री ने पहली बात पिछली सरकार पर तंज कसते हुए बिहार चुनाव के मद्देनजर कहा कि भारत का बंटवारा धर्म के आधार पर ही हुआ था, जो एक बहुत बड़ी गलती थी. उसके बावजूद सरकारें चलती रहीं और बंटवारे में जो शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान और पाकिस्तान से आए थे, उन्हें शरण तो दिया गया, लेकिन उन्हें मतदान के अधिकार से वंचित रखा गया.

 

ऐसे तथाकथित शरणार्थी आजादी के बाद से भटकते रहे. दूसरी बात वह कहते हैं कि घुसपैठिये नहीं तय कर सकते कि कौन प्रधानमंत्री और कौन मुख्यमंत्री बन सकता है. यदि उनके इस कथन का विश्लेषण किया जाए तो देश विभाजन काल की परिस्थितियों के समय आज जीवित व्यक्तियों में से कोई गवाह नहीं है. हमने इतिहास पढ़ा है, लेकिन यह नहीं पढ़ा कि महात्मा गांधी कभी नहीं चाहते थे कि देश का बंटवारा हो. उन्होंने तो यहां तक कहा था कि बंटवारा उनकी लाश पर ही किया जा सकता है, लेकिन देश का बंटवारा हुआ, अन्यथा न जाने कितने हिन्दू-मुसलमानों को काल के गाल में समाना पड़ता.

 

हां, यह ठीक है कि अंग्रेजों ने यह फैसला कर लिया था और बहुत पहले से ही इस नीति को अंजाम तक पहुंचने में लगे हुए थे कि हिंदुस्तान के हिन्दू-मुसलमानो को रेल की पटरी जैसा बनाकर रखो कि वह चलें तो साथ साथ, लेकिन कभी मिले नहीं, जिसे अंजाम तक पहुंचाया मुहम्मद अली जिन्ना और उनके कट्टर समर्थकों ने. इसलिए गृहमंत्री ने सच कहा कहा कि धर्म के आधार पर ही भारत का बंटवारा हुआ. लेकिन, अब क्या उस लकीर को हम पीटते रहें.

 

यह बात भी गृहमंत्री ठीक कहते हैं कि घुसपैठिये पीएम और सीएम तय नहीं कर सकते, लेकिन क्या इस समस्या का हल हम खोज चुके हैं? यदि हां, तो बिहार में एसआईआर का जो अभियान चलाया गया, वह सही था या फिर हमने जातिगत समीकरणों और इतिहास को तोड़ने मरोड़ने का काम किया है. चुनाव में जीत हार का फैसला तो निश्चित रूप से जनता ही करती है, लेकिन जिस निष्पक्ष चुनाव की बात हमारे संविधान निर्माताओं ने किया था और जिसका पालन देश के पहले चुनाव आयोग सुकुमार सेन ने किया था, अब आखिर में बिहार चुनाव संपन्न होने और 14 नवंबर को परिणाम आने के बाद ही तय किया जा सकता है कि क्या देश में संवैधानिक आधार पर निष्पक्ष चुनाव हुए!

 

 

डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये इनके निजी विचार हैं

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