गांव की कहानी
(सनिका मुण्डा : ग्राम प्रधान,किशुन मुण्डा,जेम्स टुटी,पौलुस टुटी)
बुरूडीह गांव का मौखिक सांस्कृतिक इतिहास मुंडा लोकजीवन और संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है.
बुरूडीह गांव झारखंड के खूंटी जिला का एक खूटकट्टी गांव है. यह गांव डाड़ीगुटु पंचायत में स्थित है. खूंटी के पूरब दिशा में 18 किण्मीण्की दूरी पर यह गांव बसा है. इस गांव में कुल 67 परिवार रहते हैं. जिनमें तीन परिवार लोहरा, एक परिवार दलित और 63 परिवार मुण्डा समुदाय के लोग हैं.
इस गांव के पूरब में सलगाडीह और पश्चिमी सीमान में सेतागड़ा गांव है. दक्षिण में सुकरीसेरेंग तथा दक्षिण में एक छच्टा टुंगरी पहाड़ी है, जिसका नाम तिरींग बुरू है. गांव के उत्तर दिशा में तेले बुरू ;टुंगरी तथा दक्षिण दिशा में ही मिरींग बुरू पहाड़ है और जंगल है. गांव के पश्चिम दिशा में ऊलि इकिर स्थित है. जहां पर बारिश की शुरुआत में पूजा की जाती है. गांव के पश्चिम में माड़ाबुरू देशाउली स्थित है तथा पूरब में ही दिबि स्थान ;कुन्दरू डाड़ी. है. इस गांव का ससन पूर्ब कोना में है.
हातु बोंगा का इतिहास
सरना
सरहुल के अवसर पर सरना में पाहन के द्वारा पूजा की जाती है. यह पूजा शनिवार की रात में शुरू होती है. शनिवार के दिन लोग मछली और केंकड़ा को पकड़कर लाते हैं. इसे हाई.कोड़कोम कहा जाता है. इसी रात मछली और केंकडा को पकड़ने गांव के लोग जाते हैं. उसके बाद चावल के साथ पकी हुई मछली और केंकड़ा अपने पूर्वजों को अर्पित करते हैं. इसके बाद ही सभी लोग खाते हैं. शनिवार की सुबह ही तपन इलि उठाने की परम्परा है.
रविवार की सुबह पूजा करनेवाले उपवास में रहते हैं. इस दिन गोटा उरद दाल पकाने की परम्परा है. पूजा के दिन सखुआ के नए कोपल की पूजा की जाती है. इसी दिन से सखुआ के नये पत्तों का व्यवहार शुरू हो जाता है. इस दिन गोटा उरद दाल अपने पूर्वजों के नाम अर्पित करते हैं. यह पूजा हर घर में होती है. सरजोम बा की विधि में कुकुरू डाड़ी खेत में कोड़ा हुआ छोटा सा कुंआ, जिसको मुंह में लकड़ी का सांचा लगा हुआ रहता है. उससे सबसे पहले पाहन पानी भर कर लाते हैं. उसी पानी से सरना स्थल में पूजा की प्रक्रिया पूरी की जाती है. फिर लोग नाचते गाते हैं.
दिबि
दिबि पूजा जून जुलाई में होती है.यह पूजा गांव के पूरब दिशा में स्थित दिबि स्थान में की जाती है. अनाज की पैदावर अच्छी हो,मवेशी और गांव का कोई व्यक्ति बीमार न पड़े इसी कामना के साथ दिबि स्थान में पूजा के अवसर पर लाल, काला, सफेद, पुर्ता,चितकबरा, मुर्गे की बलि दी जाती है. उसके साथ ही हेन्दे काला, बकरे की बलि दी जाती है. सभी लोग सामूहिक रूप से पूजा करते हैं. बलि दिए गए मुर्गे और बकरे को खिचड़ी के रुप में पकाया जाता है और प्रसाद को रूप में वितरण किया जाता है. बलि दिए गए बाकी मांस के पूरे गांव को लोगो में बांट दिया जाता है.
मागे
मकर संक्राति के बाद मागे पोरोब मनाने की परम्परा है. इस दिन अदवा,अरवा, चावल की रोटी बनाते हैं और खाते हैं. मागे पोरोब खेतीबारी का काम खत्म होने की खुशी में मनाया जाता है. सारे धान खलिहानों में पहुंच जाते हैं. इस पर्व में मेहमान लोग आते हैं और रातभर नाच-गान होता है. इस दिन किसी के घर जाने पर प्रतिबंध नहीं होता है. हर किसी के घर में प्रसाद के रूप में हंडि़या पी सकते हैं. मागे पोरोब का दिन तथा तिथि तय नहीं होता है. इस पर्व का दिन,तारीख ग्राम सभा में तय किया जाता है.
जोमनावाँ ;नवा खाना
यह पोरोब सितम्बर का अंत और अक्टूबर के शुरूआत में मनाने की परम्परा है. इस पर्व में गोड़ा धान काटने के बाद उसके चावल से भोजन बनाया जाता है और खाया जाता है.
करम
करम पर्व अखड़ा में सामूहिक रूप से मनाया जाता है. इस पर्व में अखड़ा में करम की दो डाली गाड़ी जाती है और लोग रातभर अखड़ा में नाचते हैं. घर के आंगन में भी लोग अपने परिवार के लिए करम डाली गाड़ते हैं. किसी परिवार के सिझे हुए धान में अगर बिचड़े निकल आएं. भेड़ें बीमार हो जाएं अथवा परिवार का कोई व्यक्ति खो जाए तो लोग समझ जाते हैं कि आंगन में करम डाली गाड़ने की जरूरत है. इससे वह दोष दूर हो जाता है. इस पर्व में लच्ग अखड़ा में रातभर पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ नाचते-गाते हैं. पर्व मनाने के लिए मेहमान भी उनकी खुशियों में शामिल होते हैं.
मरांग बोंगा
मरांग बोंगा की पूजा के 3 या 5 दिन पूर्व ही तपन हंड़िया चावल से बना हुआ पवित्र पेय उठाने की परम्परा है. तपन हंड़िया उठाने के दिन से ही लोग मांसाहार भोजन का त्याग कर देते हैं. पूजा हो जाने के बाद ही मांसाहार ग्रहण करते हैं. पूजा बेजोड़ दिन में करने की परम्परा है. जोड़ा दिन में पूजा नहीं की जाती है. पूजा के समय आंगन में एक सखुआ की डाली गाड़ने के बाद एक रस्सी दरवाजे की चौखट में बांध देते हैं. पूजा खत्म होने के बाद ही वह रस्सी खोली जाती है.
जब तक यह रस्सी नहीं खोली जाती तब तक घर आए हुए मेहमान में से भी अपने घर वापस नहीं जा सकते. इस विधि को पागा तानी के नाम से जानते हैं.
पूजा की सामग्री के रूप में कच्चा चुक्का,छोटा घड़ा जिसे आग में न पकाया गया हो, पान, सुपारी, गुंगू पता,एक प्रकार का लरंग. गिलहरी का घोंसला इत्यादि का उपयोग होता है. दरवाजे का बगल में सखुआ का खूंटा गाड़ा जाता है और ये सारी सामग्री चुक्का के अन्दर रखकर चुक्का को उल्टा करके खूंटा पर रख देते हैं. इसके पीछे लोगों का विश्वास है कि बोंगा का निवास इसी चुक्के में होगा.
खान-पान
मांडी : यानी भात,चावल की रोटी, मड़ुवा,मकई, गंगई, रम्बड़ा: उरद,अरहर,कुर्थी इस गांव के लोगों का मुख्य आहार है. तेलहन के रूप में सुरगुजा, सरसो, करंज, डेरी: महुआ उगाते हैं और इनके तेल को खाने और अन्य कामों में इस्तेमाल किया जाता है.
मांसाहार में ये मुंडा समुदाय बकरी,बकरा, मुर्गा,मुर्गी, मछली, केंकड़ा, खरगोश, जंगली सुअर, सियार, गिलहरी और अनेक तरह के पक्षी इनके भोजन में शामिल करते हैं.
बुजुर्ग के प्रति समाज का व्यवहार
बुजुर्गे के प्रति लोगों के मान-सम्मान की भावना आज भी देखने को मिलती हैं. ये परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. गांव के किसी बड़े काम जैसे – शादी विवाह अथवा पूजा-पाठ में बुजुर्गों से सलाह ली जाती है और उन्हें तवज्जो दी जाती है.
गांव के बुजुर्गों पर विशेष ध्यान दिया जाता है. उनकी सेवा और देखभाल भी अच्छे से की जाती है. गांव के छोटे बच्चे आज भी उनसे कहानियां सुना करते हैं. और ज्ञान की बातें सीखा करते हैं. बुजुर्गों के साथ किशोर वर्ग के तालमेल में थोड़ी कमी आयी है. किशोर वर्ग आजकल आधुनिक चीजों में अधिक व्यस्त रहने लगा है.
स्वशासन की स्थिति
प्राचीन काल से ही एक परंपरा चली आ रही है कि इनको स्वशासन व्यवस्था में किसी बाहरी तत्व का बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं रहता है. गांव में कुछ भी घटना घटती है अथवा कोई निर्णय लेना होता है तो ग्राम प्रधान, हातु मुंडा और आम ग्रामीणों की उपस्थिति में ही फैसला लिया जाता है. स्वशासन की यह स्थिति शुरू से ही चली आ रही है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है.
…… जारी
(इस गांव की पूरी कहानी अगली कड़ी में पढ़िए)