Nand Kishore Acharya
एक विधिशासित समाज में संचार-माध्यमों की नैतिकी-बल्कि संचार-माध्यम ही क्यों, किसी भी संदर्भ में नैतिकी- का सवाल ही क्यों उठता है? जब सभी प्रकार की मानवीय क्रियाशीलताएं राज्य और उसके द्वारा निर्मित विधि एवं संस्थाओं की नियंत्रण-परिधि में मान ली गयी हैं तो उनके सन्दर्भ में नैतिकी पर अलग से विचार की जरूरत ही क्यों पेश आती है? क्या अलग से नैतिकी की बात करना एक सीमा के बाद कानून की असफलता या असमर्थता को स्वीकार कर लेना नहीं है? इसकी प्रमुख वजह कहीं यह तो नहीं है कि कानून मूलतः एक नियंत्रणकारी संस्था है, जबकि नैतिकी एक प्रेरक प्रक्रिया. कानून निरन्तर परिवर्तनशील हो सकता है, जबकि नैतिकी मूलतः मूल्यबोध होने के कारण सनातन. दरअसल, कानून का भी वास्तविक प्रयोजन तो समाज में मूल्यबोध की प्रतिष्ठा ही होना चाहिए, लेकिन, व्यावहारिक दबावों और सत्ता के प्रयोजनों के चलते उसे अनिवार्यतः मूल्यबोध से प्रेरित होता नहीं देखा जाता. एक राज्य का कानून जुआ खेलने या वेश्यावृत्ति को स्वीकृति दे सकता है और दूसरे राज्य का कानून उस पर रोक लगा सकता है- यहां तक कि एक ही संघ-राज्य के विभिन्न घटकों में एक ही विषय के बारे में अलग-अलग ही नहीं, विपरीत मन्तव्य वाले कानून भी हो सकते हैं, होते हैं. यदि कानून का नैतिकी से अनिवार्य जुड़ाव हो तो ऐसा होना सम्भव नहीं है.
इसलिए किसी भी विषय के सन्दर्भ में कानून के बजाय नैतिकी की दृष्टि से विचार करना अधिक उचित है और इस तर्क से संचार-माध्यमों के संदर्भ में भी. मैंने शुरू में कहा कि नैतिकी एक सकारात्मक और प्रेरक अवधारणा है, इसलिए संचार-माध्यमों की नैतिकी पर विचार करते हुए यह सवाल उठना चाहिए कि उनके संदर्भ में नैतिक सकारात्मकता का क्या तात्पर्य है. संचार–माध्यमों का मुख्य कार्य सूचनाओं या तथ्यों का प्रसार है. इसमें सकारात्मकता को कैसे व्याख्यायित किया जा सकता है. सामान्यतः तो संचार-माध्यमों से सूचनाओं के प्रसार में तटस्थता की ही अपेक्षा की जाती है. सीधे-सरल शब्दों में अगर पत्रकारिता या संचार-कर्म की परिभाषा की जाय तो कहा जा सकता है कि वह दुनिया में जो कुछ घटित हो रहा है, उसे बयान करना अर्थात् बनते हुए इतिहास को दर्ज करना और उसे तत्काल समाज तक सम्प्रेषित कर देना है, जिससे समाज को भी यह अवसर मिल जाता है कि वह भी उसमें तत्काल हस्तक्षेप कर सके.लेकिन तब क्या यह सिर्फ दर्ज करना या बयान कर देना है? क्या यह बयान स्वयं घटनाओं की व्याख्या करता और एक हद तक इस व्याख्या के माध्यम से स्वयं घटनाओं के रुख को प्रभावित नहीं करता?
यदि एक बार घटनाओं के चयन और व्याख्या पर पड़नेवाले इतर दबावों की बात छोड़ भी दें तो भी एक घटना या सूचना को पूरे तौर पर तभी जाना जा सकता है, जब हम उसे सही परिप्रेक्ष्य और पृष्ठभूमि, उसके कारण, अन्तस्संबंधों और पड़नेवाले प्रभावों के साथ देखें- बल्कि देखने का हमारा कोण ही बड़ी हद तक हमारे द्वारा घटना के ग्रहण और बयान को प्रभावित करता है, क्योंकि तथ्यों की प्रस्तुति और उनके क्रमिक विन्यास में परिवर्तन उनके माध्यम से व्यंजित सत्य के रूप को भी प्रभावित करता है. प्रसिद्ध भौतिकीविद् आइंस्टाइन और हाइजेनबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को साथ रखकर देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी घटना का हमारा ग्रहण इस बात पर निर्भर करता है कि हम उसे कहां से और किस माध्यम से देख रहे हैं अर्थात् द्रष्टा की स्थिति और माध्यम य़थार्थ को उसके लिए रूपांतरित कर देते हैं. इसलिए एक व्यापक और बहुकोणीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने पर ही हम किसी घटना के वास्तविक महत्त्व को समझ सकते हैं और यह परिप्रेक्ष्य केवल भौतिक नहीं, बल्कि अनिवार्यतः सांस्कृतिक और मूल्यगत होता है.
जब हम किसी घटना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में रखे बिना ही प्रेषित करते हैं तो हम वस्तुतः कुछ भी प्रेषित नहीं कर रहे होते; उसे वास्तविक अर्थों में सम्प्रेषित करने का तात्पर्य एक तात्कालिकता को मूल्यगत और मानवीय इतिहास की निरन्तरता के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना-दिखाना है. किसी भी चीज को उसकी समग्रता में एक मूल्यगत और मानव-विकास की परंपरा के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना ही आलोचना है. इसलिए वास्तविक आलोचना सदैव संस्कृति की सर्जन-प्रक्रिया का हिस्सा होती है, क्योंकि वह समाज के आत्म-साक्षात्कार और आत्म-सर्जन का ही एक माध्यम होती है. इन अर्थों में संचार-कर्म भी एक सांस्कृतिक और सर्जनात्मक कर्म है और यह कहना प्रसंगान्तर नहीं होगा कि यदि रचनाकार-लेखक यदा-कदा संचार-कर्म में सक्रिय होते रहे हैं तो इसलिए भी कि एक सर्जक की हैसियत से वह उन्हें अपने सर्जन-कर्म का ही एक आनुषंगिक रूप लगता रहा है.
इस परिप्रेक्ष्य में संचार-कर्म के गहन उत्तरदायित्व,विशेषतया एक लोकतांत्रिक समाज में उसके उत्तरदायित्व, पर अलग से बल देने की जरूरत शायद नहीं होनी चाहिए. मैं समाज के आत्म-साक्षात्कार और आत्म-सर्जन का एक माध्यम हूं- यह एहसास एक संचार-कर्मी को कितनी गहरी अर्थवत्ता और उसके साथ जुड़े कितने गहरे दायित्व-बोध से भर देता है, यह हमारे लिए जितनी अनुभव करने की बात है, उतनी कहने की नहीं. एक संचार-कर्मी के रूप में हम चाहे किसी छोटे-से स्थानीय संस्थान से जुड़ें या किसी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संस्थान से, इससे हमारे कर्म की परिधि तो छोटी-बड़ी हो सकती है, लेकिन हमारे कर्म के माध्यम से जिस रचनात्मक अर्थवत्ता की अनुभूति होती है, उसमें कोई गुणात्मक अन्तर नहीं होता.
लेकिन किसी भी क्रियाशीलता के प्रयोजन पर उसके माध्यम और साधनों की अन्तःप्रक्रिया का गहरा प्रभाव पड़ता है. यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संचार-कर्म को सदैव समाज में एक पेशेवर दर्जा प्राप्त रहा है- यद्पि उसमें केंद्रीय और व्यापक प्रबंधन की जरूरत नहीं होती थी और उसका अर्थशास्त्र भी सम्प्रेषण-कर्मी पर ही निर्भर था. इसलिए उसका संस्कृति-कर्म बने रहना अधिक मुमकिन था. लेकिन आज संचार-कर्म एक संस्कृति-कर्म होने के साथ-साथ एक उद्योग भी है और इस पक्ष की अवहेलना भी संभव नहीं है. यह व्यावसायिक पक्ष केवल सम्प्रेषण-कौशल पर नहीं, बल्कि पूंजी और प्रबन्ध-कौशल पर भी निर्भर करता है. इसलिए इसकी प्रक्रिया में एक ऐसा तत्त्व भी शामिल हो जाता है, जिसका प्रयोजन संस्कृति नहीं, बल्कि आर्थिक लाभ है. ऐसी स्थिति में संचार-कर्म पर पूंजी संस्थान और उसके अनुकूल राज्य संस्थान के दृष्टिकोण और हितों का दबाव पड़ना स्वाभाविक है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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