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नायकों को हड़पने की होड़ और विवेकानंद का भारतबोध

Faisal Anurag निहित संकीर्णता के वशीभूत होकर किसी महान् व्यक्ति को उनकी असल पहचान से अलग कर पेश कर देना राजनीति का एक त्रासद पहलू है. अतीत के नायकों को अपना बताने की प्रतिस्पर्धा उस महान शख्सियत की वास्तविकता के बरक्स एक मिथकीय नायकत्व गढ़ती है. स्वामी विवेकानंद को हड़पने की होड़ उस विद्रोही वेदांती  को आत्मसात करने के लिए संघर्ष करती रहती है. विवेकानंद के अलावा इस होड़ के शिकार नायकों में सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस और डॉ अंबेडकर का नाम भी शामिल है. राजनीति में यह प्रचलन है कि जब अपने पास असरदार नायक नहीं हों, तो दूसरे को अपना बता कर छीन लो. विवेकानंद भारतीय आध्यात्म के एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने विचारों की बहुलता और सत्य की विविधता के दर्शन को प्रचारित किया. उनका ही एक प्रसिद्ध कथन है, “सत्य अलग अलग भी हो सकते हैं, लेकिन वे सत्य ही होते हैं.” यह कोई मामूली दार्शनिक प्रतिस्थापना नहीं है. विवेकानंद के अध्येता डॉ कनक तिवारी ने उन्हें एक विदोही वेदांती बताया है, जो जिसके पास भारतबोध की अथाह गहराई है और जिसका भारत हजारों मेहनतकशों का वह भारत है, जो जाति और सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्षरत रहता है. विवेकानंद हमारी आध्यात्मिक परंपरा के उन सबसे बड़े नायकों में हैं, जिनके लिए धर्म नफरत का विषय नहीं है. धर्मों के सद्भाव के वे गहरे पैरोकार हैं. उनके गुरु परमहंस रामकृष्ण ने जिस सांप्रदायिक एकता को जीवन का आचार बनाया था, विवेकानंद आजीवन उसके ही प्रतिनिधि बने रहे. विवेकानंद का आध्यात्म आत्मबोध से न तो ग्रस्त है और न ही अतीत की दुहाई देते हुए मरणशील परंपराओं की वकालत करता है. वे विज्ञान और आध्यात्म के समन्वय की बात करते हैं. विवेकानंद वर्णवाद और बाह्मणवादी कर्मकांड के खिलाफ मुखर आवाज रहे हैं. भारत की जिन बाधाओं की वे चर्चा करते थे, उसमें कर्मकांड और वर्णवाद हमेशा प्रमुखता से उनके निशाने पर रहा. आमतौर पर वे भारतीय नवजागरण के ऐसे अग्रदूत थे, जिसने एक ऐसे भारत की कल्पना प्रस्तुत की जो वैश्विक बंधुत्व का नेतृत्व कर सकने में सक्षम होगा. उन्होंने बताया कि इसके लिए भारत को अपनी आतंरिक बीमारियों से लड़ने की जरूरत है. भारत में ऐसे कम ही विचारक हुए हैं, जिन्होंने भविष्य को अतीत से ज्यादा अहमियत दी. विवेकानंद भविष्यद्रष्टा थे. सांस्कृतिक परतंत्रता की तमाम बेड़ियों को तोड़ने के लिए भी ऐसे ही भारतबोध की अनिवार्यता है, जो अपने नागरिकों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं करे. इस अर्थ में विवेकानंद का व्यक्तित्व जनतांत्रिक चेतना का प्रसार करता है. ज्योति बा फुले (1827-1890) और नारायण गुरु (1856-1928), अय्यंकली (1863-1941) और शाहूजी महराज (1874-1922) जैसों के चिंतन और विचारों ने भारत के आध्यात्म और समाज को क्रांतिधर्मी समझ प्रदान की है. विवेकानंद का योगदान भी इसी श्रेणी का है. कार्ल मार्क्स ने आध्यात्म को शोषितों की अफीम कहा था. लेकिन इसी पैराग्राफ में उन्होंने आध्यात्म को शोषितों की आकांक्षा और विश्वास भी कहा है. विवेकानंद ने आध्यात्म को फिलासफी की जटिलताओं से बाहर निकाल कर एक व्यावहारिक समझ दी. उन्होंने अज्ञेय माने जानेवालों विचारों को भारत के आमलोगों की चेतना का हिस्सा बनाने का प्रयास किया. यह करते हुए भी उन्होंने किसी ऐसे कर्मकांड का सृजन नहीं किया, जो विचारों की स्वतंत्रता के प्रवाह को बाधित करता हो. आज आमतौर पर जब विचारों की विविधता पर प्रहार हो रहे हैं, विवेकानंद विचारों के लोकतंत्र के पैरोकार बनकर दिशा देते हैं. विवेकानंद ने अपने समय के भारत की दुर्दशा देखी. इससे बेचैन हुए और इसे बदलने के संकल्प को अपनी आध्यत्मिक साधना का हिस्सा बनाया. यह कोई सामान्य बात नहीं है. वर्णवाद और कर्मकांड के खिलाफ तो दयानंद सरस्वती ने भी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा. दयानंद का चिंतन भी भारतीय समाज की कुप्रवृत्तियों के खिलाफ था. लेकिन विवेकानंद ने इसे सांस्कृतिक चेतना का अंग बनाने का प्रयास किया. संस्कृतियों की कुप्रवृत्तियों और परंपराओं के खिलाफ विवेकानंद एक समानांतर भारतीय चेतना के उद्घोषक बन कर उभरे. भारत में संकीर्णतावाद के खिलाफ वेदों के जमाने से ही आत्मसंघर्ष की प्रवृत्तियां जारी हैं. भारत आज जिस तरह महापुरुषों को हड़पने की प्रवृत्तियों का शिकार है, उसमें विवेकानंद की एक नयी छवि गढ़ी जा रही है. वास्तविक विवेकानंद तो इससे बहुत भिन्न थे. राजनीति जब इस तरह का प्रयास करती है, तो असका गहरा असर समाज पर पड़ता है. जरूरत तो इस बात की है कि विवेकानंद के साहित्य का प्रचार-प्रसार हो, ताकि उनके विचारों की सही समझ लोगों में विकसित हो सके.

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