Faisal Anurag
तीन राज्यों में बहुमत की सत्ता, तीन ही राज्यों में साझा सरकार के हिस्सेदार. बावजूद इसके कांग्रेस अपनी गुटबंदी की त्रासदी से बाहर नहीं निकल पा रही है. तीनों ही राज्यों में जिस तरह के टकराव दिख रहे हैं, वह कांग्रेस नेतृत्व के विवाद को जल्द सुलझा लेने की कार्यक्षमता पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं. यही नहीं कांग्रेस केंद्रीय स्तर पर भी अपने युवा नेताओं के भरोसे को टूटने से रोक नहीं पा रही है.
पंजाब, जहां अगले छह-सात महीनों में ही विधानसभा चुनाव हैं, दो नेताओं के शक्ति प्रदर्शन खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा. पांच सालों से पंजाब में कांग्रेस सत्ता में है, लेकिन इन पांच सालों से विवाद के साथ उसका गहरा रिश्ता बना हुआ है. कांग्रेस छत्तीसगढ़ में 15 सालों का सत्ता वनवास काटने के बाद ढाई साल पहले सत्ता में आयी थी. लेकिन नेतृत्व परिवर्तन के संकट से भी उलझना पड़ रहा है. छत्तीसगढ़ के साथ ही राजस्थान में भी कांग्रेस सत्ता में आयी और विवादों के नए दौर में फंस गयी. उस विवाद के कारण कांग्रेस में दलबदल का संकट खड़ा हुआ और उसकी छाया बरकरार ही है. बहुमत को बचाए रखने के संघर्ष का स्थायी हल करने में केंद्रीय नेतृत्व की कोताही किसी से छुपी नहीं है. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को दो तिहायी बहुमत मिला था.
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को उनके ही कैबिनेट के वरिष्ठतम टी के सिंहदेव चुनौती दे रहे हैं. चुनाव में भारी जीत के बाद से ही सिंहदेव की निगाह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रही है. कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने के लिए बघेल की मेहनत और लगन को नेतृत्व नकार नहीं सका. तब असंतुष्ट खेमें ने प्रचार किया कि बघेल एक समझौते के तहत मुख्यमंत्री बने हैं और ढाई साल बाद सिंहदेव को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी जाएगी. यह समझौता कब और किसने कराया यह कभी स्पष्ट नहीं हुआ. अब सिंहदेव ने ही मीडिया से कह रहे हैं कि ऐसा कोई समझौता कभी नहीं हुआ. लेकिन मीडिया और राजनीतिक गलियारों में इस कथित समझौते की चर्चा ढाई सालों से हो रही है. न तो नेतृत्व और न ही छत्तीसगढ़ के किसी नेता ने इसका कभी भी खंडन किया. दिल्ली दरबार के एक प्रभावी गुट ने असंतुष्टों को एक तरह से सहलाया ही. भूपेंद्र बघेल कांग्रेस के एक ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिनके कार्यों की खूब तरीफ होती रही है.
राहुल गांधी ने भी बघेल की बार-बार सराहना की है. एक ऐसे समय में जब पूरे देश में कांग्रेस को लेकर कई तरह के सवाल उठे हैं, आखिर कांग्रेस की सरकारों की स्थिरता को कौन सी ताकतें चुनौती दे रही हैं. केद्रीय नेतृत्व कोई भी ठोस निर्णय करने के बजाय अफवाहों और राजनैतिक महत्वकांक्षाओं को खतरनाक मोड़ तक क्यों पहुंचने दे रहा है.
बघेल कांग्रेस के एक ऐसे ओबीसी मास्टर कार्ड हैं. जिनका इस्तेमाल कांग्रेस विधानसभा चुनावों में करती रही है. बघेल को हाल ही में असम का प्रभारी बनाया गया था. असम की पराजय की सामूहिक जिम्मेदारी तय करने के बजाय रायुपर में बघेल विरोधियों को उकाया गया. कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में सत्ता हासिल कर खो देने से भी कोई सबक नहीं सीखा है. यही नहीं कनार्टक से भी जो सबक वह नहीं ले सकी है. जिन राज्यों में वह साझा सरकारों में हैं, वहां कर्नाटक जैसे ही हालात बने हैं. झारखंड इसका उदाहरण है. झारखंड में कांग्रेस के भीतर का असंतोष बार-बार उभर कर सामने आ जाता है. महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के नेताओं के बोल ऐसे हैं, जिससे शिवसेना ने कई बार नाराजगी जाहिर किया है. पंजाब में कांग्रेस यह चुन नहीं पा रही है कि वह कैप्टन को महत्व दे यी क्रिकेटर को. नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद भी पंजाब का कांग्रेस का आंतरिक टकराव बार-बार सामने आ रहा है.
कैप्टन ने 50 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत दिखा दी है. यह उस राज्य की कहानी है, जहां किसान आंदोलन का गहरा असर है और कांग्रेस को दुबारा सत्ता में वापस आने के लिए आक्रामक रणनीति की जरूरत है. अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन कर लिया है. सामाजिक तौर पर इस गठबंधन की ताकत को नकारा नहीं जा सकता है. आम आदमी पार्टी के रूप में एक तीसरा खिलाड़ी भी मौजूद है. सिद्धू दरअसल कैप्टन अमरेंद्र सिंह की आलोचना अध्यक्ष बनने के बाद अपने समर्थकों से करा रहे हैं. विपक्ष को मारक हथियार देने जैसी यह घटना है. क्रिकेटर कैप्टन से चुनाव के पहले ही सत्ता छीन लेने का इरादा दिखा चुका है.
केंद्रीय नेतृत्व समय रहते कदम उठाने में अब तक अक्षम दिखा है. राजस्थान में गहलोत और पायलट के बीच का विवाद खत्म करने की उसकी नाकायबी जहिर ही है. कांग्रेस ने तो अपने युवा नेताओं को दूसरे दलों में जाने से रोक पा रही है और ना ही सत्ता वाले राज्यों के विवादों में समय रहते हस्तक्षेप कर पा रही है. कांग्रेस के 23 नेताओं ने पत्र लिख कर जो सवाल उठाए थे, उन्हें भी हल नहीं किया जा सका है. सवाल है कि जिस केंद्रीय नेतृत्व ने 2004 में अटल बिहारी बाजपेयी की भाजपा को बड़ा गठबंधन बनाकर बेदखल किया और 2009 में सत्ता बरकरार रखा.
वहीं 2014 की करारी हार के बाद से उठ के खड़ा क्यों नहीं हो पा रही है. राज्य विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन से भी उसका आत्म विश्वास आखिर क्यों नहीं लौटा है. अपने ही रैंक और फाइल को बदले हालात की चुनौतियों से निपटने लायक बनाने में वह कामयाब क्यों नहीं दिख रही है. इन सवालों को जितनी देर नजरअंदाज किया जाएगा, नुकसान उतना ही ज्यादा होगा.