Search

भाषा आंदोलन का संदर्भ झारखंडी अस्मिता से जुड़ा है

Faisal Anurag `हासा-भासा` के लिए झारखंडियों का संघर्ष निरंतर जारी है. भाषा आंदोलन का मूल संदेश सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा से जुड़ा हुआ है. एक ऐसे दौर में जब कि क्षेत्रीय और आदिवासी भाषाओं के अस्तित्व,अस्मिता और संस्कृति के संरक्षण को लेकर अनेक संकट मौजूद हैं. झारखंड के विभिन्न हिस्सों के आंदोलन की गंभीरता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. झारखंड आंदोलन के समय से ही जल,जंगल,जमीन,संस्कृति और भाषा का प्रश्न आमजन की भावना का हिस्सा रहा है. भाषा की राजनीति न केवल किसी राज्य की शांति,विकास और सद्भाव से अभिन्न तौर पर जुड़ा हुआ, बल्कि स्थानीय लोगों की भावनाओं का इससे गहरा जुड़ाव सर्वविदित है. दुनिया के अनेक महत्वपूर्ण भाषाविदों ने भाषा के सवाल को किसी भी समाज और समुदाय की आत्मा का हिस्सा करार दिया है. इस तथ्य को भी याद रखना चाहिए कि भाषाई आत्मीयता अक्सर अन्य सामाजिक और आर्थिक मतभेदों को दूर करने में विफल रही है. यूनेस्को के आंकड़े के अनुसार, भारत में 780 जीवंत भाषा और बोलियां हैं, जिनमें 400 मृत होने के खतरे से जूझ रही हैं. यही वह मूल संकट है जो किसी बाह्य भाषा के आरोपित किए जाने के खिलाफ लोगों की भावनाओं को आंदोलित और आक्रोशित करता है. यूनेस्को ने असुर, बिरहोर और कोरवा को दुनिया की लुप्तप्राय भाषाओं की सूची में रखा है और बिरहोर को गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है. आठवीं अनुसूची में शामिल दो प्रमुख आदिवासी भाषाओं- बोडो और संताली में गिरावट देखी गई है. क्षेत्रीय भाषाओं के मानकीकरण के बावजूद उनके विकास की प्रक्रिया स्वाभाविक तौर पर अनेक अवरोधों की शिकार बना दी गयी है. आजादी के बाद पांचवी अनुसूची वाले इलाकों के लिए एक पंचशील नीति को अपनाया गया था, जिसमें क्षेत्रीय और आदिवासी भाषाओं को प्रशासकीय कामकाज का हिस्सा बनाने की बात कही गयी थी. लेकिन केंद्र की यह भाषा प्रतिबद्धता कभी अमली जामा नहीं पहन सकी. नवउदारवादी पूंजीवादी नीतियों के जोरदार आक्रमण के कारण तो भाषाओं के फलने-फूलने की राह में अनेक अवरोध उठ खड़े हुए हैं. यही वह आंश्का है जो झारखंड के भाषा आंदोलन के वर्तमान के पीछे क्रियाशील है. 30 जनवरी को जब दुनिया महात्मा गांधी का शहादत दिवस मना रहा था. बोकारो धनबाद के 40 किलोमीटर के रास्ते पर 2 लाख से ज्यादा लोग अपनी भाषा और जमीन की रक्षा के लिए और झारखंड सरकार की भाषा नीति के खिलाफ प्रतिरोध कर रहे थे. प्रतिरोध का यह स्वर सोशल मीडिया पर भी दिख रहा है. झारखंड सरकार के शिक्षा मंत्री जगन्नाथ महतो ने भी भाषा आंदोलन का समर्थन किया है. जाहिर है झारखंड का राजनीतिक पारा भीतर ही भीतर उबल रहा है. भाषा नीति के सवाल पर पूर्व मंत्री गीता श्री उरांव भी सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रमुख घटक कांग्रेस से इस्तीफा दे चुकी है. जाहिर है कि राजनैतिक हलकों में भाषा को लेकर जो बेचैनी है, उसे ही सड़कों का प्रतिरोध तीखा कर रहा है. दक्षिण भारत के अनेक राज्यों में केंद्र के त्रिभाषा नीति के खिलाफ भी आंदोलन का माहौल है. तमिलनाडु का विवाद तो राज्यपाल बनाम तमिलनाडु सरकार के बीच तनाव को कारण बना हुआ है. भाषाओं के महत्व को समझने के लिए याद किया जा सकता है कि किस तरह आंध्र पद्रेश तेलगू भाषा की आस्मिता का सवाल उठा कर पचास के दशक में अलग राज्य बन गया था. श्रीरामलू को अब भी याद किया जाता है, जिन्होंने तेलगू भाषा की पहचान वाले आंध्रप्रदेश के निर्माण के लिए 58 दिनों तक अनशन किया और अपनी जान दी. इस तथ्य का उल्लेख करने का काम तलब सिर्फ यही है कि भाषा का प्रश्न संकीर्ण राजनैतिक हितों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. वोट की राजनीति में किसी तबके को खुश करने के लिए स्थानीय हितों की अवज्ञा नहीं की जानी चाहिए. भाषाओं के सहअस्तित्व का प्रश्न राजनैतिक प्रक्रिया और उसकी साख ही स्थापित करती है. इस समय यदि झारखंड में भाषाओं के बीच के मतभेद तीखे दिख रहे हैं तो इसे जल्द से जल्द हल किए जाने की जरूरत है ताकि भाषाई अल्पसंख्यकों के हितों की भी उपेक्षा नहीं हो. आर्थिक सुधारों के कारण देश में नौकरी के अवसर कम हुए है. भाषा आंदोलन के पीछे यह एक बड़ा कारक है. लेकिन झारखंड में जमीन,जंगल संस्कृति और स्थानीय भाषा का सवाल विशिष्ट है क्योंकि झारखंड के लंबे संघर्ष ने इसके प्रति एक गहरी चेतना पैदा की है. [wpse_comments_template]  

Comments

Leave a Comment

Follow us on WhatsApp