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वामपंथ का निरंतर पतन

Bharat Jain
पांच राज्यों के चुनाव में यदि कोई हारा है, तो कांग्रेस और वामपंथ. पहले कांग्रेस की बात - बंगाल में साफ और केरल में हाफ़.
कई दशकों में पहली बार केरल में किसी सरकार की वापसी हुई है. इसका अर्थ मार्क्सवादियों से प्रेम शायद इतना नहीं है, जितना कि कांग्रेस से नफ़रत. भाजपा भले ही बंगाल में पूरी तरह मात खा गयी है, पर लेफ़्ट और कांग्रेस की जगह तो ले ही ली है. असम में भी कांग्रेस को वापसी की आशा थी, पर बहुत बुरा प्रदर्शन रहा. जहां NRC के विरोध के समय मोदी और शाह घुस नहीं पा रहे थे, वहां डेढ़ साल के भीतर ही दोबारा पूर्ण बहुमत से वापस आना कांग्रेस की ख़त्म होती पकड़ का पुख़्ता सबूत है. राहुल गांधी को दक्षिण के राज्यों में अच्छा समर्थन मिल रहा है. ऐसा लग रहा था पर चुनाव परिणाम कुछ और ही कहानी कह रहे हैं.
कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी है स्थानीय नेताओं का अभाव. नये नेता सदा संघर्ष से ही उभरते हैं. पर कांग्रेस कई दशकों तक सत्ता में रहने के कारण आरामतलब लोगों की पार्टी बन कर रह गयी है.

अब समय है कि राहुल और प्रियंका (और है ही कौन ? ) को चुनावों को तिलांजलि देकर लगातार संघर्ष पर ही जोर देना चाहिए. मुद्दे बहुत हैं - युवाओं में बेरोज़गारी, बंद होते हुए सरकारी उद्यम, लचर मेडिकल ढांचा - समस्याएं ही समस्याएं हैं. चुनाव होते हैं तो होने दें.
यही कमी वामपंथ को मार रही है. बिना संघर्ष के कैसा वामपंथ ? बंगाल में वामपंथ की कामयाबी के पीछे सातवें दशक का नक्सली आंदोलन था. इतनी जल्दी घोर दक्षिण पंथी भाजपा का कामयाब होना हैरान कर देता है!
देश की आज़ादी के समय कांग्रेस के अलावा वामपंथी ही थे. भले ही वे कम्युनिस्टों की तरह धुर वामपंथी हों या थोड़े मॉर्डरेट वामपंथी समाजवादी हों पर दक्षिणपंथी कहीं नहीं थे. एक निम्न आय के देश में दक्षिणपंथियों की कामयाबी अजूबा है.

डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.

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