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कोरोना मुक्त एक खेल - लाश अपनी रुखसती के लिए वेटिंग में अटकी पड़ी है

Chanchal Bhu
एक धर्म विशेष को कोरोना नहीं छूता. परम् मुरहा है. दूसरे मजहब को छूता जी नहीं. उसके साथ-साथ घूमता, टहलता, बिखरता, फैलता चलता है. निजामुददीन थाने की रपट यही कहती है. पढा-लिखा पुलिस का अधिकारी था. निजामुददीन वाकये पर हंस रहा था.
कमबख्त ! हमारी इस बेहूदी हरकत पर आने वाले नस्लें हंसेंगी. हमें जाहिल बोलेंगी. कहेंगी कि एक ऐसी भी महामारी थी जी मजहब, जुबान, लिबास, ओहदा और औकात देख कर चिपटती थी?
पटना में एक बाप घर से निकला था अपने परिवार के सदस्य के इलाज के लिए दवा लेने. मुंह में मास्क नहीं लगा था. पुलिस ने उसके जेब से कुल जमापूंजी 500 रुपये निकाल लिए. वह बूढ़ा रोता रहा, गिड़गिड़ाता रहा, लेकिन पुलिस ने एक न सुनी.
वहीं दूसरी तरफ देखिये असम, बंगाल, चेन्नई, पुडुचेरी में नेताओं के मुंह सुरसा की तरह खुले पड़े हैं. मखदूम के पनाला की तरह. आज इन विषयों पर चुप्पी भले ही है, लेकिन बर्दाश्त भी तो हद तक ही जाती है.
उत्तराखंड में आयोजित नहान और कुंभ को देखिए. दुनिया का यह वाहिद मुल्क है जो मौत पर उत्सव आयोजित कर रहा है. अस्पताल नहीं, दवा नहीं, बेड नहीं, ऑक्सीजन नहीं. और तो और श्मशान पर लाशों को जलाने के लिए जगह नहीं. दुनिया हंस रही है - लाश अपनी रुखसती के लिए वेटिंग में अटकी पड़ी है.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.

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