Sunil Badal
एनिमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया ने देश के लोगों से 14 फरवरी को ‘काऊ हग डे’ मनाने की अपील की थी, लेकिन विरोध और चर्चा के बाद वापस ले लिया है. इस दिन पश्चिमी देशों के साथ अब भारत जैसे अनेक अंग्रेजी शिक्षा और संस्कृति के प्रति विशेष आकर्षण रखने वाले देश वेलेंटाइन डे मनाते हैं, जिस कारण भारत में दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं टकरा रही हैं. कथित सनातनी विचारधारा के समर्थक मानते हैं कि यह प्रेम प्रदर्शन का त्योहार न होकर अपसंस्कृति और पश्चिमी देशों का अंधानुकरण है और वेलेंटाइन डे से जुड़ी कहानी किताब ‘ऑरिया ऑफ जैकोबस डी वॉराजिन’ में हमें संत वेलेंटाइन का ज़िक्र मिलता है . इस किताब के अनुसार रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था और उनका मानना था कि विवाह करने से पुरुषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है . उन्होंने आदेश जारी किया कि उनका कोई भी सैनिक और अधिकारी विवाह नहीं करेगा. संत वेलेंटाइन ने इस क्रूर आदेश का विरोध किया.
उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों और अधिकारियों ने विवाह किए. बिशप वेलेंटाइन ने भी क्लॉडियस की इच्छा के खिलाफ जा कर गुप्त शादी कर ली. इसके लिए, वेलेंटाइन को जेल भेज दिया गया, जेल में रहते हुए उन्होंने जेलर की नेत्रहीन बेटी ‘जैकोबस’ को नेत्रदान किया व जेकोबस को एक पत्र लिखा, जिसमें अंत में उन्होंने लिखा था ‘तुम्हारा वेलेंटाइन’. आखिर क्लॉडियस ने 14 फरवरी के दिन ही, संत वेलेंटाइन को फांसी पर चढ़वा दिया और तभी से उनकी याद में इस दिन को निःस्वार्थ प्रेम का संदेश फैलाने लिए मनाया जाता है.14 फरवरी को दुनिया भर में वैलेंटाइन डे के रूप में सेलिब्रेट किया जाता है. इस दिन प्यार करने वाले जोड़े एक-दूसरे के साथ समय बिताते हैं और गिफ्ट देते हैं. इसलिए युवाओं में वैलेंटाइन डे को लेकर एक अलग ही उत्साह देखने को मिलता है. वैलेंटाइन डे को ध्यान में रखते हुए दुनिया भर के बाजार तमाम तरह के गिफ्ट्स से पट जाते हैं.
प्रेमी जोड़े इस दिन अपने पार्टनर को प्यारा सा गिफ्ट देकर इसे यादगार बनाना चाहते हैं. इसे देखते हुए समाज का एक तबका वैलेंटाइन डे को महज बाजार द्वारा खड़ा किया गया डे बताता है. भारतीय और पर्दे का समर्थन करने वाली कुछ अन्य संस्कृतियों के समर्थक इसे भौंड़ेपन और अश्लीलता फैलाने वाले विदेशी परंपरा बताकर विरोध करते रहे हैं और कभी कभी पार्क या खुले आम भी प्रेम प्रदर्शन करने वाले जोड़ों की पिटाई तक कर देते हैं . इनका मानना है कि भारत मूल्यों और संस्कारों वाला देश है जिसे ऐसी फूहड़ परंपराएं खुले आम सेक्स और बेशर्मी की ओर ले जा रही हैं.
यहां एक दिलचस्प बात यह भी है कि पश्चिमी सभ्यता और अपसंस्कृति का विरोध भी पश्चिमी अंदाज़ में किया जा रहा है, जिसका नामकरण भी काऊ हग डे रखा गया है यानी गाय से गले मिलने का दिन . इसके गहरे निहितार्थ हैं . इसका नामकरण गऊ आलिंगन दिवस रख दिया जाता तो लोगों का ध्यान इस ओर उतना नहीं जाता और इसे एक पुरातनपंथी विचार माना जाता, पर नाम की विचित्रता से देश भर में इसकी चर्चा हो रही है . कुछ हिंदी भाषी मज़ाक में सोशल मीडिया में कह रहे हैं कि अर्द्धशिक्षित देश को पहले खुले में हगने( शौच) के लिए मना किया गया अब गाय के साथ साथ गोबर करने के लिए कहा जा रहा है.
इतना तो अवश्य है कि बहुत सोच समझकर इसका नाम रखा गया है, ताकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी नई पीढ़ी इसपर गूगल करे, पढ़े और ऐसा करते ही यह भारतीय अभियान अपना उद्देश्य पूरा कर लेगा, क्योंकि काऊ हग मानसिक शांति के लिए पश्चिमी देशों में ख़ासा लोकप्रिय है और इसके लिए पैसे देने पड़ते हैं.
भारत में एक ख़ास विचारधारा के समर्थकों द्वारा इसका विरोध करने के पीछे मान्यता यह है कि गाय को माता मानने वाले लोग पुरातनपंथी हैं जो भारत को अंधविश्वास और पंडे पुजारी की व्यवस्था में धकेल रहे हैं, जो भारत की आधुनिकतावाद के विरोधी हैं.
सनातनी मानते हैं कि इससे भटकी हुई युवा पीढ़ी को यह समझाने में आसानी होगी कि पश्चिमी देश जिस गाय को गले लगाकर अवसाद से मुक्ति पाते हैं, वह यहां सदियों से पूजी जाती रही है और न सिर्फ़ ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, बल्कि स्वस्थ जीवन का आधार भी . देश में उभरी सनातन संस्कृति की ओर बढ़ते झुकाव से युवा जुड़ते हैं या आधुनिक मौज मेले से भरी रंगीन पश्चिमी संस्कृति के प्रति लगाव बना रहता है.
इसका नामकरण करने वाले संभवतः खुश होंगे कि छोटी छोटी बातों और विवाद को वायरल करने वाले लोग समर्थन या विरोध में इसपर डिजिटल या आपसी चर्चा कर रहे हैं और यही इसका उद्देश्य था .कुछ विपक्षी और वामपंथी पार्टियां इसे देश के गंभीर मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने वाला अभियान बताती हैं तो कुछ लोगों ने इसे वैयक्तिक स्वतंत्रता से जोड़कर इसका समर्थन और विरोध दोनों किया है .
भारत ऋतुराज बसंत के वसंतोत्सव और होली को दकियानूसी और पानी की बर्बादी वाला त्योहार वाला अभियान भी देख चुका है और इन सबके पीछे गिफ्ट और झूठे प्रदर्शन के बाजारवाद को भी समझकर नहीं समझना चाहता कि कहीं उसे पिछड़ा न मान लिया जाए. ऐसे और भी डे देखना दिलचस्प होगा, क्योंकि इसका असर अगले वर्ष के चुनाव पर भी पड़ सकता है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.