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प्रदूषण का गहराता संकट

Arvind Jayatilak स्विस संस्था आईक्यू एयर की ‘वल्र्ड एयर क्वालिटी’का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि वर्ष 2022 में दुनिया का 8 वां सबसे प्रदूषित देश भारत रहा. रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित 20 शहरों में 19 एशिया के हैं. इनमें भी 14 भारतीय शहर हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में भारत का सबसे प्रदूषित शहर राजस्थान का भिवाड़ी और महानगरों में दिल्ली रहा. प्रदूषित राजधानियों में नई दिल्ली दूसरे स्थान पर है. आंकड़ों पर गौर करें तो भारत के तकरीबन 60 फीसद शहरों में प्रदूषण डब्ल्यूएचओ के मानकों से सात गुना अधिक है. यह रेखांकित करता है कि प्रदूषण को लेकर भारत पूरी तरह गंभीर नहीं है. अगर समय रहते प्रदूषण से निपटने के ठोस उपाय नहीं किए गए तो भारतीय लोगों का जीवन संकट में पड़ना तय है. ऐसा इसलिए कि गत वर्ष ही एनर्जी पॉलिसी इंस्टिट्यूट एट द यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो (एपिक) द्वारा खुलासा किया गया कि प्रदूषण के कारण भारत में लोगों की जिंदगी पांच वर्ष कम हो रही है. एपिक रिपोर्ट में यह भी कहा जा चुका है कि गंगा के मैदानी इलाकों में सबसे अधिक प्रदूषण है और यहां 7.6 साल जिंदगी कम हो रही है. 48 करोड़ से ज्यादा लोग मध्य, पूर्वी और उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के उच्च स्तर का सामना कर रहे हैं. अगर भारत में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप प्रदूषण कम किया जाए तो यहां के निवासियों की औसत जीवन प्रत्याशा 5.4 वर्ष बढ़ सकती है. यह पहली बार नहीं है, जब किसी संस्था द्वारा प्रदूषण से जिंदगी पर पड़ने वाले भयावह असर का जिक्र है. हार्वर्ड और येल के अर्थशास्त्रियों द्वारा भी खुलासा किया जा चुका है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शुमार है, जहां सबसे अधिक वायु प्रदूषण है. भारत की आधी आबादी यानी 66 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं, जहां सूक्ष्म कण पदार्थ (पार्टिकुलेट मैटर) प्रदूषण भारत के सुरक्षित मानकों से ऊपर है. भारत ने अगर वायु प्रदूषण पर शीध्र नियंत्रण नहीं लगाया तो 2025 तक अकेले राजधानी दिल्ली में ही वायु प्रदूषण से हर वर्ष 26,600 लोगों की मौत होगी. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि प्रदूषित हवा के चपेट में भारत में वर्ष 2016 में लगभग एक लाख मासूम बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. यूनिवर्सिटी ऑफ कैरोलीना के विद्वान जैसन वेस्ट के अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण से सबसे अधिक मौत दक्षिण और पूर्व एशिया में होती है और उसमें भी भारत शीर्ष पर है. आंकड़े बताते हैं कि हर साल मानव निर्मित वायु प्रदूषण से 4 लाख 70 हजार और औद्योगिक इकाइयों से उत्पन प्रदूषण से 21 लाख लोग दम तोड़ते हैं. दुनिया की जानी-मानी पत्रिका ‘नेचर’द्वारा भी खुलासा किया जा चुका है कि शीघ्र ही वायु की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ तो वर्ष 2050 तक प्रत्येक वर्ष 66 लाख लोगों की जानें जा सकती है. यह रिपोर्ट जर्मनी के मैक्स प्लेंक इंस्टीट्यूट ऑफ केमेस्ट्री के प्रोफेसर जोहान लेलिवेल्ड और उनके शोध दल ने तैयार किया था, जिसमें प्रदूषण फैलने के दो प्रमुख कारण गिनाए गए. एक, पीएम 2.5एस विषाक्त कण और दूसरा वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन आक्साइड. रिपोर्ट में आगाह किया गया कि भारत और चीन में वायु प्रदूषण की समस्या विशेष तौर पर गहरा सकती है. क्योंकि इन दोनों देशों में खाना पकाने के लिए कच्चे ईंधन का इस्तेमाल होता है. विशेषज्ञों की मानें तो अगर इससे निपटने की तत्काल वैश्विक रणनीति तैयार नहीं की गयी तो भारत की बड़ी जनसंख्या वायु प्रदूषण की चपेट में आ सकती है. गत वर्ष पहले भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा खुलासा किया गया कि जागरूकता का अभाव और कठोर मानकों की कमी के कारण भारत में हर आठवें व्यक्ति की मौत का कारण वायु प्रदूषण है. लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ 2020 के अनुसार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और राजस्थान में प्रदूषण के कारण 50 फीसद से अधिक मौतें होती हैं. अध्ययन के मुताबिक उत्तर प्रदेश में वायु प्रदूषण के कारण तीन लाख से अधिक मौतें हुई. वर्ष 2019 में वायु प्रदूषण के कारण भारत में कम से कम 1.7 मिलियन लोगों की मौत हुई. इनमें से 58 फीसद से अधिक मौतों का कारण बाहरी वायु प्रदूषण और 36 प्रतिशत घरेलू वायु प्रदूषण के कारण अकेले खाना पकाने से जुड़ा हुआ था. देखा जाए तो अधिकतर मौतें प्रदूषण के कारण फेफड़ों में कैंसर, हार्ट अटैक और क्रोनिक रोगों से हो रही है. आंकड़े के मुताबिक प्रति लाख आबादी की मृत्यु में वायु प्रदूषण की हिस्सेदारी 89.9 प्रतिशत है. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के वैज्ञानिकों की मानें तो वायु प्रदूषण के कहर का सबसे ज्यादा प्रभावित दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार है. सबसे खतरनाक बात यह है कि देश के शहरों के वायुमण्डल में गैसों का अनुपात लगातार बिगड़ता जा रहा है और उसे लेकर किसी तरह की सतर्कता नहीं बरती जा रही है. आंकड़ों पर गौर करें तो हाल के वर्षों में वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा घटी है और दूषित गैसों की मात्रा बढ़ी है. कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में तकरीबन 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसका मुख्य कारण बड़े कल-कारखानें और उद्योगधंधों में कोयले एवं खनिज तेल का उपयोग है. गौरतलब है कि इनके जलने से सल्फर डाई ऑक्साइड निकलती है, जो मानव जीवन के लिए बेहद खतरनाक है. शहरों का बढ़ता दायरा, कारखानों से निकलने वाला धुंआ, वाहनों की बढ़ती तादाद एवं मेट्रो का विस्तार तमाम ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से प्रदूषण बढ़ रहा है. वाहनों के धुएं के साथ सीसा, कार्बन मोनोक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड के कण निकलते हैं. वैज्ञानिक रिचर्ड फूलर की मानें तो वायुमंडल में सीसा की मात्रा बढ़ने और संपर्क में आने से शुरुआती मौतों का कारण हृदय रोग रहता है. इसके संपर्क में आने से धमनियां सख्त हो जाती हैं. यह मस्तिष्क के विकास को भी नुकसान पहुंचाता है. डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं. 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