Rama Shankar Singh
यह वही हरा भरा स्थान है, जहां आकर हर विदेशी तक कहता था कि दुनिया में किसी भी देश की राजधानी में ऐसा खुला विशाल हरित स्थान नहीं है, जैसा रायसीना पहाड़ी स्थित राष्ट्रपति भवन से राजपथ पर यमुना किनारे तक दिल्ली में है. यहीं बोटक्लब, इंडिया गेट, राष्ट्रीय स्टेडियम, प्रगति मैदान स्थित हैं. अब इन तस्वीरों को देखें. आने वाले वक्त में ऐसा कुछ भी दिखने नहीं जा रहा. इंडिया गेट की भव्यता अब कहानियों में ही मिलेंगे.
क्या-क्या ध्वस्त होगा. क्या मिटेगा. कैसा बनेगा ? कितने में बनेगा ? किसी गंभीर चर्चा के बाद तय नहीं हुआ है. निजी दंभी फ़ैसलों से. करदाता के पैसों से वह बन या मिट रहा है. जिसकी कोई ज़रूरत इस आपदा काल में तो कम से कम न थी. अभी सेंट्रल विस्टा की उपयोगिता और निर्माण के सौंदर्यबोध की चर्चा नहीं कर रहा हूं.
मैं 1952 में दिल्ली में पैदा हुआ और सेकेंडरी इम्तहान अच्छे (काफ़ी अच्छे) से पास होने पर इनाम में मिली अपनी बाइसिकल से सैंकड़ों बार इन राजमार्गों की संकरी सड़कों पर गुजरा हूं. एक-एक स्थान को डिटेल में देखा है. दिल्ली का पुत्र होने के नाते मुझे रोने का पूरा हक़ है, जो मैं कर लेना चाहता हूं.
दिल्ली, इतिहास में कई बार आक्रांताओं ने ध्वस्त कर फिर से बनायी है. पर वहां स्थायी रूप से कोई नहीं रह पाया. आज फिर मेरी दिल्ली तोड़ी जा रही है. इमारतों का भी दुख है. पर ज़्यादा सदी पुराने उन वृक्षों का दुख है. जहां गर्मियों में डाल हिलाकर ढेर सारा जामुन टपका कर भरपेट खा लिया करते थे. बाद में नई दिल्ली नगरपालिका अरबों रूपये का राजस्व इकट्ठा कर इतनी गरीब हो गई कि जामुन के उन पेडों का ठेका होने लगा. तब पांच रूपये में एक दोना भर जामुन नमक से खा कर तृप्त हो जाते थे. इस उम्र के वृक्ष कौन सम्राट लगा सकता है? सौ बरस गुजर जायेंगें यानी पांच पीढ़ियां. संसद के बीस चुनाव होकर बीस प्रधानमंत्री बदल जायेंगें, तब एक जामुन का पेड़ वैसा खड़ा हो पायेगा!
बीजों से पौधों और शतायु पेड़ होने की महागाथा, तुम क्या जानो नरेंद्र बाबू?
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