लोकतंत्र और गणतंत्र के बीच का फर्क

Arun Kumar Tripathi दरअसल लोकतंत्र और गणतंत्र का फर्क कम लोग समझते हैं और सरकार में बैठे लोग इसी घालमेल में लोगों को रखना चाहते हैं. वे यह साबित करना चाहते हैं कि चुनाव हुआ और सरकार चुन ली गई तो समझ लो कि लोकतंत्र कायम है. जबकि यह तो गणतंत्र है. लोकतंत्र इससे कहीं आगे की चीज है. इस अंतर को संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने बार बार स्पष्ट करने की कोशिश की, लेकिन आंबेडकर का नाम लेने वाले न तो इस अंतर को स्पष्ट करते हैं और न ही किसी को साफ तौर पर रखने देते हैं. जो लोग लिच्छवियों और शाक्यों के गणतंत्र का हवाला देते हैं, वे यह नहीं बताते कि गणतंत्र और लोकतंत्र में फर्क होता है. वही फर्क जो यूनान के प्राचीन गणतंत्र और आज के यूरोपीय और अमेरिकी गणतंत्र में है. सिर्फ शासन करने वालों को चुन लेने का अधिकार मिल जाने से लोकतंत्र कायम नहीं हो जाता. इस बारे में डॉ. आंबेडकर बताते हैं, ‘ लोकतंत्र का अर्थ एक राजनीतिक मशीन से लिया जाता है. माना जाता है कि जहां यह मशीन है वहां लोकतंत्र है. यह भी समझा जाता है कि जहां गणतंत्र है होगा, वहां लोकतंत्र होगा. जहां संसद है और वयस्क लोग नियमित तौर पर होने वाले चुनाव में उसे चुनते हैं. संसद कानून बनाती है, वहां लोकतंत्र है. यानी यह एक तरह का राजनीतिक उपकरण है और जहां वह उपकरण है वहां लोकतंत्र होगा ही. क्या भारत में लोकतंत्र है या लोकतंत्र बिल्कुल नहीं है?’’ (डा आंबेडकर, 20 मई 1956). वे अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं,’ एक तो लोकतंत्र का मतलब गणतंत्र से नहीं है. दूसरी बात यह है कि जहां संसदीय सरकार है उसका मतलब लोकतंत्र नहीं है. इसी कारण भ्रम पैदा होता है. लोकतंत्र इन दोनों से एकदम अलग चीज है. लोकतंत्र की जड़ें सरकार के स्वरूप में नहीं होतीं, बल्कि उससे अलग होती हैं. लोकतंत्र प्राथमिक रूप से मिली जुली जीवन पद्धति है. लोकतंत्र की जड़ें सामाजिक संबंधों में होती हैं. जो लोग समाज बनाते हैं, उनके साझा जीवन में होती हैं. समाज क्या है? समाज वास्तव में एक समुदाय है, जिसका कोई मकसद है, कल्याण करने की कोई इच्छा है. सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निष्ठा है, पारस्परिक सहानुभूति और सहयोग की भावना है. क्या ये चीजें भारतीय समाज में हैं? नहीं हैं. भारतीय समाज में व्यक्ति नहीं है. यहां ढेर सारी जातियों का संकलन है, जो एक दूसरे से साझेदारी नहीं करतीं और उनमें सहानुभूति का कोई सूत्र नहीं है. जाति व्यवस्था के कारण यहां समाज के आदर्श नहीं है इसलिए लोकतंत्र नहीं है. हर चीज जाति व्यवस्था के आधार पर संगठित है.…जाति के कारण भारतीय लोग एक दूसरे से न तो शादी कर सकते हैं और न ही एक साथ भोजन कर सकते हैं.’’ डॉ. आंबेडकर की बातों को अगर जाति के साथ संप्रदाय के अर्थ में भी लागू किया जाए तो आज भारतीय समाज ज्यादा ही विभाजित है. यह जानते हुए कि इस देश में अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाह का अनुपात आबादी के 1 से 3 प्रतिशत से अधिक नहीं है. सामुदायिक पारस्परिकता को खत्म करने के ही उपाय किए गए हैं. यह सब हमारे समाज को महज गणतंत्र बनाकर छोड़ देते हैं, लोकतंत्र नहीं बनने देते. लोकतंत्र क्या है और उसकी क्या अनिवार्य शर्तें हैं, इस बारे में डॉ. आंबेडकर का विमर्श बहुत प्रासंगिक है. वे कहते हैं कि लोकतंत्र क्या है, इस बारे में कोई आम राय नहीं है. मुख्य रूप से दो दृष्टिकोण रखे जाते हैं लोकतंत्र के बारे में. एक दृष्टिकोण कहता है कि यह एक किस्म की सरकार की प्रणाली है. यानी लोकतंत्र वह प्रणाली है, जहां जनता सरकार चुनती है. मतलब जहां प्रतिनिधित्व वाली सरकार है, वहां लोकतंत्र है. उस जगह पर लोकतंत्र कायम मान लिया जाता है, जहां पर वयस्क मताधिकार हों और समय समय पर चुनाव हों. जबकि दूसरा दृष्टिकोण यह कहता है कि लोकतंत्र सरकार की प्रणाली से कहीं ज्यादा बड़ी चीज है. वह समाज का एक संगठन है. लोकतांत्रिक रूप से गठित समाज की दो अनिवार्य शर्तें हैं. पहला समाज में वर्गीय आधार पर जड़ता का अभाव और दूसरा व्यक्ति और समूह सदैव तालमेल करने को तैयार रहते हैं और हितों की पारस्परिकता को मान्यता देते हैं. डा आंबेडकर कहते हैं कि अगर दूसरी शर्त का पालन नहीं होता तो समाज अलोकतांत्रिक हो जाता है. वे कहते हैं कि जो लोग यह मानते हैं कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव होता है, वे तीन गलतियां करते हैं. पहली गलती यह कि सरकार नामक संस्था समाज से भिन्न और कटी हुई होती है. जबकि वास्तव में वैसा नहीं है. सरकार उन तमाम संस्थाओं में से एक है, जिसे समाज तैयार करता है, ताकि वह कुछ दायित्वों का निर्वाह कर सके. दूसरी गलती यह है कि वे यह समझ नहीं पाते कि सरकार को समाज के असीम उद्देश्यों और इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करना होता है. ऐसा तभी हो सकता है, जब जिस समाज में सरकार खड़ी है, वह समाज लोकतांत्रिक हो. अगर समाज लोकतांत्रिक नहीं है तो सरकार लोकतांत्रिक नहीं हो सकती. अगर समाज वर्गों में बंटा है तो सरकार शासक वर्ग के हितों की रक्षा करने में लगी रहती है. तीसरी गलती यह है कि वे लोग नहीं समझते कि सरकार चाहे जैसी हो वह अफसरों यानी सिविल सर्वेंट्स पर निर्भर करती है. वे लोग कैसे हैं यह उस सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है, जिसमें वे तैयार होते हैं. इसलिए लोकतांत्रिक सरकार के लिए लोकतांत्रिक समाज का होना अनिवार्य है. लोकतंत्र एक राजनीतिक मशीन से बड़ी चीज है. डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]
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