Nand Kishore Acharya
भारत में सभी धर्मावलंबियों के लिए एक समान सिविल कोड की मांग लम्बे अरसे से की जाती रही है और सर्वोच्च न्यायालय की एक टिप्पणी ने इस मामले को फिर सार्वजनिक बहस के केंद्र में तब ला दिया, जब एक ईसाई पादरी से संबंधित मामले पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह राय प्रकट की थी कि राज्य ने समान सिविल कोड लागू करने में विशेष रुचि नहीं दिखायी है. संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों में सभी धर्मावलंबियों के लिए एकसमान सिविल कोड की जरूरत बताते हुए राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह इस दिशा में सक्रिय होकर कानून बनाएगा. लेकिन अन्य बहुत-से नीति-निर्देशों की तरह भारतीय राज्य इस निर्देश की भी अवहेलना ही करता रहा है. इससे पहले शाहबानो और सरला मुदगल के मामलों में भी सर्वोच्च न्यायालय राज्य से आग्रह कर चुका है कि उसे इस संवैधानिक नीति-निर्देश का पालन करते हुए इस दिशा में कारगर कदम उठाना चाहिए.
लेकिन यह मामला इतना सरल नहीं है, जितना समझा जाता है. यह ठीक है कि सभी आधुनिक राष्ट्र-राज्यों में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू है और सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी भी वाजिब है कि इससे राष्ट्रीय एकता की भावना बलवती होती है. लेकिन यहां यह तथ्य भी विचारणीय है कि अधिकांश राष्ट्र-राज्य उस तरह एक सुदीर्घ परंपरा वाले बहुदलवादी समाज नहीं हैं, जिस तरह भारतीय समाज है. आधुनिक यूरोप की राष्ट्र-राज्य वाली उन्नीसवीं शती की अवधारणा भारत पर लागू नहीं की जा सकती.
भारत का साम्प्रदायिक आधार पर बँटवारा उन्नीसवीं शती की राष्ट्र-राज्य की इस अवधारणा का ही परिणाम था, जिसके अनुसार धर्म, नस्ल, भाषा आदि राष्ट्र-राज्य के घटक तत्त्व थे. इसी आधार पर मोहम्मद अली जिन्ना ने हिंदूओं और मुसलमानों को दो राष्ट्र कहते हुए पाकिस्तान की मांग की थी. बाद में स्वयं पाकिस्तान के विभाजन का एक मुख्य आधार भी भाषाई अस्मिता बनी और आज भी भिन्न भाषा-भाषी अपनी अलग राष्ट्रीय अस्मिता की मांग करते रहते हैं.
जब यह कहा जाता है कि एकसमान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगी, तब कहीं न कहीं अवचेतन स्तर पर केंद्रीयकृत राष्ट्रीयता की अवधारणा ही काम कर रही होती है. इस वजन पर तो यह भी कहा जा सकता है कि यदि सभी का धर्म और भाषा एक ही हो जाएं तो राष्ट्रीय एकता की भावना को और भी अधिक बल मिलेगा. लेकिन क्या ऐसा करना वांछनीय होगा? क्या ऐसा करना संभव है? यदि नहीं तो इस तर्क को सिविल कोड के मामले में लागू करना कहां तक उचित है, इस पर खुले मन से विचार करने की जरूरत है.
दरअसल, भारत में राष्ट्रीयता का स्वरूप संघात्मक ही हो सकता है. वही हमारे बहुलवादी चरित्र के अनुकूल है. संघात्मक राष्ट्रीयता का तात्पर्य भारतीय समाज को केवल राजनीतिक दृष्टि से संघात्मक संरचना मान लेना नहीं है.संघात्मक एक सांस्कृतिक-सामाजिक संरचना भी है और राजनीतिक संघात्मकता की जरूरत भी उसी की वजह से होती है, ताकि इस बहुलवादी समाज की विविध घटक अस्मिताओं के वैशिष्ट्य को आघात न पहुंचे.
इसी तर्क के आधार पर हिंदू समाज के मामलों में राज्य के हस्तक्षेप की लोकतांत्रिकता को समझा जा सकता है. भारत की संसद द्वारा हिंदू समाज के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप को लेकर कोई यह नहीं कह सकता कि यह किसी इतर धर्म के प्रतिनिधियों का हिंदओं के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है, क्योंकि प्रायः सभी संसद सदस्य किसी-न-किसी धर्म के अनुयायी हैं और उनकी तीन-चौथाई से भी अधिक संख्या हिंदू समाज से जुड़ी होती है. इसलिए इस बहुमत के हस्तक्षेप को इतर संप्रदाय या धर्म के मानने वालों का हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता. लेकिन मुस्लिम, ईसाई या अन्य समुदायों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप को एक सीमा के बाद नैतिक और राजनीतिक, दोनों ही दृष्टियों से गैर-मुनासिब माना जाना स्वाभाविक है, क्योंकि संसद में उनका कभी भी बहुमत नहीं होता- बल्कि एक दूरस्थ संभावना तो यह भी हो ही सकती है कि किसी समाज-विशेष से संबंधित सदस्यों की पूरी या अधिकांश संख्या के विरोध के बावजूद उनके समाज से संबंधित कोई विधेयक किसी तरह इतर समाज के सदस्यों की बहुसंख्या के आधार पर पारित हो जाये.
जिस प्रथा को दक्षिण के हिंदू समुदाय में पूरी मान्यता प्राप्त है, उसे उत्तर का हिंदू समाज अगम्यागमन मानेगा. क्या समान नागरिक संहिता के आधार पर मुस्लिम समाज में जिन चचेरे-ममेरे संबंधियों में विवाह को जायज माना जाता है, उन्हें आगे नाजायज करार देना होगा? यदि समान नागरिक संहिता इन संबंधों को कानूनी मानती है तो क्या उत्तर भारत के हिंदू समाज में इन्हें वैध स्वीकार किया जा सकेगा? यदि इस संबंध में हिंदू और मुस्लिम समाजों में भेद स्वीकार कर लिया जाता है तो फिर समान नागरिक संहिता का क्या मतलब रह जाएगा?
लेकिन, दूसरी ओर, यह भी इतना ही जरूरी है कि बहुलवादी चरित्र को बचाने के नाम पर भारत के किसी नागरिक को सामान्य मानवीय व्यवहार तथा संविधान-प्रदत्त मूल अधिकारों के साथ-साथ मनुष्य होने के नाते उसके प्राकृतिक एवं मानव-अधिकारों से वंचित न होना पड़े. इसके लिए समान नागरिक संहिता की नहीं, बल्कि उन रिवाजों और मान्यताओं पर पुनर्विचार की जरूरत है, जो इन अधिकारों पर आघात करते हैं.
दरअस्ल, हर धार्मिक समुदाय के कुछ बुनियादी फर्ज और कुछ बुनियादी निषेध होते हैं और वे ही उस धार्मिक समुदाय के विशिष्ट चरित्र के निर्धारक तत्त्व होते हैं. यदि राज्य इन बुनियादी कर्तव्यों में रुकावट डालता हो या बुनियादी निषेधों को तोड़ने के लिए मजबूर करता हो तो उसे निश्चय ही हर दृष्टि से अनुचित माना जाएगा और किसी भी संप्रदाय द्वारा राज्य के ऐसे हस्तक्षेप का विरोध किए जाने को एक नैतिक आधार स्वाभाविक ही प्राप्त हो जाएगा. लेकिन बुनियादी कर्तव्य या निषेध- मुस्लिम समाज की भाषा में कहें तो फर्ज या हराम- के मामले में हस्तक्षेप को उचित नहीं कहा जा सकता.लेकिन यदि अन्य बातों को लेकर राज्य अपने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाता है तो उसे अनुचित नहीं माना जा सकता और उससे किसी समाज की धार्मिक-सामाजिक अस्मिता पर भी किसी तरह की आंच नहीं आती.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.