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ग्लासगो की नाकामयाबी की कीमत पीढ़ियों तक चुकानी होगी पृथ्वीवासियों को

Faisal Anurag बारह दिनों की मैराथन बहस और फिर सहमति बनाने के पुरजोर प्रयासों के बावजूद ग्लासगो जलवायु सम्मेलन किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाया है. ग्लासगो घोषणा के लिए सभी देशों को एक और दिन की मोहलत देते हुए सम्मेलन को एक और दिन का इंतजार करना पड़ रहा है. बारह दिनों में अमीर और विकाशील देशों के नेताओं के बड़े बड़े एलान भी ग्रीन और कार्बन उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती करने के लिए राज़ी होने को तैयार नहीं दिख रहे हैं. एक दिन शेष रहने के बाद अब तो आशंका प्रबल हो गयी है कि शायद ही ग्लोबल वार्मिंग यानी वैश्विक तापमान को 1.5 तक सीमित करने के लिए राह आसान होगी. पेरिस के जलवायु सम्मेलन के घोषणा पत्र में इन दोनों को ही शामिल किया गया था लेकिन ग्लासगो, जिसके संदर्भ में ग्रेटा थनवर्ग पहले ही कह चुकी है कि यह एक विफल सम्मेलन साबित हो रहा है, नाउम्मीदी ही पैदा कर रहा है. जूलिया कोनले के शब्दों में `` कॉप 26 के नेताओं ने पेरिस एग्रीमेंट के साथ वफादारी से मुंह मोड़ लिया है जो एक तरह से जलवायु बचाने के प्रयास को नष्ट कर देने जैसा है. आलोचक कह रहे हैं कि केवल समय को आगे खींचने और दोषी न दिखने के जद्दोजहद में ही लगे हैं.`` शनिवार देर तक वार्ता चलने की उम्मीद है और देशों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे जिद छोड़ कर एग्रीमेंट की ओर बढ़े. ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में जो गतिरोध देशों के बीच दिखा है वह धरती के लिए गहरे नुकसान के भयावह संकेत जैसा है. पेरिस में जब यह एग्रीमेंट हो गया था कि वैश्विक तापमान को 1.5 से 2 डिग्री तक हर हाल में सीमित किया जाएगा तो फिर ग्लासगो पहुंचने तक ऐसा क्या हो गया कि अब जलवायु को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले अमीर देश ही कहने लगे हैं, कि शायद ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 तक करना संभव नहीं होगा. इस संदर्भ में एसोसिएट प्रेस के दिए गए संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियों गुटरेस की चिंता से समझा जा सकता है.उन्होंने कहा कि ये संभव है कि इस सम्मेलन में सरकारें कार्बन उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती करने के लिए सहमत न हों. गुटरेस ने कहा कि जब जीवाश्म ईंधन उद्योग अभी भी खरबों की सब्सिडी प्राप्त कर रहे हैं, अभी भी कोयला संयंत्रों का निर्माण हो रहा है, तो कार्बन में कटौती का वादा खोखला है. पेरिस एग्रीमेंट में नेटजीरो के लिए 2050 के डेडलाइन को लेकर ही अब अनेक देश सहमत नहीं हैं. चीन,तुर्की, सउदी अरब जैसे देश पहले ही 2060 के डेडलाइन की बात करते रहे हैं. इस बार भारत ने भी 2070 के नए डेडलाइन का एलान कर दिया. जलवायु का सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं देशों के साथ अमेरिका ने भी किया है. ताजा आकलन है कि दुनिया के तापमान में अब 2.7 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने जा रही है. यह प्राकृतिक आपदाओं के लिए नियंत्रण जैसा साबित हो सकता है. 2023 तक अब दुनिया को इंतजार करना पड़ सकता है कि क्या प्रभावी देश कटौती के लिए सहमत हो सकेंगे और इसके लिए युद्धस्तर पर कार्रवाई करेंगे. दुविधा तो यह है कि दुनिया के तमाम बड़े देश कारपारेट निगमों के दबावों से मुक्त हो जलवायु संरक्षण के लिए स्वतंत्र नीति और कार्रवाई के लिए तैयार ही नहीं हो पा रहे हैं. इसका एक बड़ा कारण अधिकांश देशों की राजनीति पर कारपारेट के प्रभाव और नियंत्रण से जुड़ा है. तमाम गतिरोध इन्हीं कारणों से पैदा हुए हैं जिसका ग्लासगो इस समय शिकार होता प्रतीत हो रहा है या फिर बेमन से की गयी सहमति बनने की हल्की उम्मीद के बीच संतुलन बनाने के प्रयास में आखिरी कोशिश में जुटा हुआ है. भारत ने भी आधिकारिक अंत से ठीक पहले चल रहे अनौपचारिक स्टॉकटेकिंग प्लेनरी में जलवायु वित्त के मुद्दे पर ``गहरी निराशा`` व्यक्त की है. पूर्ण सत्र में बोलते हुए भारतीय वार्ताकार ने कहा कि विकसित देशों ने 2020 तक गरीब देशों के लिए जलवायु वित्त में सालाना 100 अरब डॉलर के वादे को पूरा नहीं किया है. जैसा कि अब अनेक देश इस मामले में खजाना खाली होने की बात करने लगे हैं.विकासशील देशों की चिंता है कि जलवायु संकट के प्रभावों के अनुकूल होने के लिए वित्त की उनकी जरूरतों की अनदेखी की जा रही है. वे अनुकूलन के लिए उपलब्ध वित्त को कम से कम दोगुना करना चाहते हैं और सार्वजनिक और निजी स्रोतों से जलवायु वित्त में एक वर्ष में 100 बिलियन डालर को व्यापक रूप से कैसे बढ़ाया जाए इस पर चर्चा करना चाहते हैं जिसका वादा उन्हें 2009 में 2020 से वितरण के लिए किया गया था. लेकिन यह साफ हो चुका है कि यह वर्तमान अनुमानों पर 2023 तक भी पूरा नहीं होगा. यूरोपीय संघ आयोग के उपाध्यक्ष फ्रैंस टिमरमैन ने कहा "अगर हम विफल हो जाते हैं तो पानी और भोजन के लिए हमारे पाते अन्य मनुष्यों के साथ लड़ेंगे. यही वह कड़वी सच्चाई है जिसका हम सामना करने जा रहे हैं. तो 1.5C हमारे बच्चों और नाती-पोतों के भविष्य से बचने के बारे में है. टिमरमेन की इन बातों की निराश बताती है कि जलवायु संरक्षण मामला किस तरह बड़े कारपारेट निगमों की लालच का शिकार होने वाला है. तो बड़े बड़े दावों से जुटे विश्व नेताओं के बड़े दावे और एलान के बावजूद ग्लसगो का सफर एक गहरे धुंध का शिकार हो गया है. [wpse_comments_template]

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